समत्वं योग उच्यते

December 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

संतुलन को समत्व भी कहते हैं। इस प्रकार मानसिक संतुलन प्रकाराँतर से गीता में बतलायी समत्व की ही भावना है साँसारिक पदार्थों में प्रवृत्ति की हममें जितनी शक्ति होती है, उतनी ही जब उनसे निवृत्त होने की भी शक्ति होती है, तो उस अवस्था को संतुलित और समत्व की अवस्था कह सकते हैं।

इस समत्व को आचरण में उतारने के लिए केवल विरागी अथवा रागहीन होने से ही कार्य न चलेगा। संतुलित अवस्था तो तब होगी, जब रागहीन होने के साथ-साथ द्वेषहीन भी हुआ जाय। अपने देश के तथाकथित साधुओं ने यहीं भूल की। वे होने के लिए तो विरागी हो गये, पर साथ-साथ अद्वेष्ट न हुए। राग से बचने की धुन में उन्होंने द्वेष को अपना लिया। संसार के सुख-दुख से संबद्ध न होने की चाह में उन्होंने संसार से अपना संबंध विच्छेद कर लिया और उसकी सेवाओं से अपना मुख मोड़ लिया।

जब दो गुण ऐसे होते हैं, जो परस्पर विपरीत दिशाओं में प्रवृत्त करते हैं, तो उनके पारस्परिक संयोग से चित्त की जो अवस्था होती है, उसे भी संतुलित अवस्था कहते हैं। दया मनुष्य को दूसरों का दुःख दूर कराने में प्रवृत्त कराती है, पर निर्मोह या निर्ममत्व मनुष्य को दूसरों के सुख-दुःख से संबंधित होने से पीछे हटाता है। अतएव दया और निर्ममत्व दोनों के एक बराबर होने से चित्त संतुलित होता है। जहाँ दया मनुष्य को अनुरक्त करती है, वहाँ निर्ममरा विरक्त। दया में प्रवृत्तात्मक और निर्ममता में निवृत्तात्मक शक्ति है। उसी तरह संतोष और श्रमशीलता एक-दूसरे को संतुलित करते हैं। परिश्रमशीलता में प्रवृत्तात्मक और संतोष में निवृत्तात्मक शक्ति है। उसी तरह सत्यता और मृदुभाषिता, सरलता और दृढ़ता, विनय और निर्भीकता, नम्रता और तेज, सेवा और अनासक्ति, शुचिता और घृणा, स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व, तितिक्षा और आत्मरक्षा, दीर्घसूत्रता और आलस्यहीनता, अपरिग्रह और परिग्रह, शक्ति परस्पर एक दूसरे को संतुलित करते हैं। इन युग्मों में से यदि केवल एक का ही विकास हो और दूसरे के विकास की ओर ध्यान न दिया जाय, तो मनुष्य का व्यक्तित्व असंतुलित एवं एकाँगी हो जाएगा। श्रद्धालु व्यक्ति में श्रद्धेय के अनुगमन करने तथा उसके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति होती है। स्वतंत्रता प्राप्त व्यक्ति पर अंकुश न होने से उसमें निरंकुशता और उच्छृंखलता बढ़ सकती है। दृढ़ प्रकृति व्यक्ति में हठ करने की प्रवृत्ति हो सकती है। प्रभुत्वशाली व्यक्ति में अभिमान बढ़ सकता है, इत्यादि। अतः जब तक इन व्यक्तियों में क्रमशः आत्म निर्भरता, उत्तरदायित्व, हठहीनता और निरभिमानता का विकास न होगा, तब तक पूर्वोक्त गुण अपनी-अपनी सीमा के भीतर न रहेंगे। अस्तु उपरोक्त युग्मों में से प्रत्येक गुण एक-दूसरे को मर्यादित करते हैं और एक-दूसरे का पूरक है।

इसी बात को कवि दिनकर ने दूसरे ढंग से यों कहा है-

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। किंतु उसे क्या ? जो दंतहीन, विषहीन विनीत सरल हो।

परोक्ष रूप में उनने भी यही स्वीकार है कि दो विपरीत गुण साथ-साथ होने चाहिए। पराक्रम के साथ व्यक्ति में दयालुता, क्षमाशीलता के गुण न हों, तो वह अत्याचार ही बरतेगा। इसके विपरीत शालीन-सज्जनों में सहकारिता का अभाव हो, तो वह कायर कहलायेगा और बलवानों की यंत्रणा का शिकार बनेगा। पराक्रम सदा क्षमाशीलता के कारण शोभा पाता है जबकि साहसिकता की प्रशंसा शालीनता में निहित है।

जब मनुष्य में दंड की सामर्थ्य रहते हुए भी अपमान सहन करने की क्षमता होती है, जब वह अहिंसा व्रत पालते हुए भी अपराधियों को अधिकाधिक उच्छृंखल, उद्धत, अभिमानी और निष्ठुर नहीं बनने देता, जब वह सेवाव्रती होते हुए भी सेव्यजनों को आलसी, परमुखापेक्षी और अकर्मण्य नहीं होने देता, जब वह क्रोध में होते हुए भी अनुशासन और नियंत्रण बनाए रखना जानता है, जब उसमें भक्ति और उत्साह होते हुए भी दास-वृत्ति और उतावलापन नहीं होता, जब वह सफलता में विश्वास रखने हुए भी कार्य करने में लापरवाही नहीं करता, जब वह मान-सम्मान की परवाह न करते हुए भी लोक कल्याण करने वाले शुभ कर्मों के करने में पूर्ण उत्साही होता है, जब वह अपमान से दुखी न होते हुए भी अपमान जनक कार्य न करने का संयमी एवं आत्मनिग्रही होता है, जब वह किसी कार्य में प्रवृत्त होने के साथ-साथ उससे निवृत्त भी हो सकता है, तब उसके चरित्र और गुणावलियों में संतुलन आता है।

जब दो विचारधाराएँ मनुष्य से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कार्य कराती हैं, तब उनके समन्वय से जो स्थिति होती है, उसे संतुलित विचारधारा कहते हैं। आत्म सुख की भावना बहुधा मनुष्य को स्वार्थमय कर्मों में प्रवृत्त करती है और लोक सुख की भावना लोककल्याण के कार्यों में। अतएव आत्म सुख और लोक सुख दो विभिन्न दृष्टिकोण हुए। इनके समन्वय से जो मध्यम स्थिति उत्पन्न होती है, वही संतुलित विचार पद्धति है। उसी प्रकार जिसकी विचारधारा में पूर्व और पश्चिम के आदर्शों का समन्वय, भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का समन्वय, आदर्श और यथार्थ का समन्वय हुआ है और जो मध्यम मार्ग को अपनाये हुए हैं, उसी की विचारधारा संतुलित है।

जब हम किसी एक ही कार्य के पीछे पड़ जाते हैं, अथवा जब हम किसी कार्य में अति करने के कारण दूसरे करणीय कार्यों को भूल जाते हैं, तब हमारी कार्य पद्धति असंतुलित होती हैं। यदि हम एकदम धन कमाने के पीछे पड़ जायँ अथवा यदि हम केवल पढ़ने-पढ़ाने में ही अपना सारा समय बिताने लगें, तो हमारी कार्य पद्धति असंतुलित होगी। यदि कोई विद्यार्थी अपने हस्तलेखन की केवल गति ही बढ़ाने पर ध्यान दे और अक्षरों की सुँदरता पर विचार न करें, तो उसके प्रयास पर तरस ही आयेगी। उसी प्रकार यदि किसी देश में कोई ऐसा आयोजन हो कि केवल शिक्षा की गुणवत्ता या उसकी उत्कृष्टता पर ही एकमात्र लक्ष्य हो और इस बात का ध्यान न हो कि शिक्षा अधिक-से-अधिक संख्या के लोगों को उपलब्ध हो सके, तो उस देश के शिक्षा-शास्त्रियों की कार्यपद्धति असंतुलित ही कही जायेगी। यही बात मानव जीवन पर भी घटित होती है। हमें केवल एक ही दिशा में घुड़दौड़ नहीं मचानी चाहिए, वरन् सब दिशाओं में समुचित विकास करते हुए मानसिक संतुलन को बनाए रखना चाहिए, तभी हम एक संतुलित दृष्टि से विकसित समाज का दिग्दर्शन कर सकेंगे।

हमारी प्राचीन-शास्त्रकारों तथा नीतिकारों ने जगह-जगह इस बात पर जोर दिया है कि किसी भी काम में ‘अति’ नहीं करनी चाहिए। यह नियम बुरी बातों पर ही नहीं अनेक अच्छी बातों पर भी लागू होता है। जैसे कहा गया है कि अति दानवृत्ति के कारण बलि को पाताल में बँधना पड़ा। संभव है कि कुछ विशिष्ट आत्माओं के लिए, जो किसी असाधारण उद्देश्य की पूर्ति के लिए पृथ्वी पर अवतीर्ण होती है, यह नियम आवश्यक न माना जाय, पर सर्वसाधारण के लिए सदैव मध्यम मार्ग-संतुलित जीवन का नियम ही उचित सिद्ध होता है।

भगवान बुद्ध ने “मंझम मग्न” का मध्यम मार्ग का आचरण करने के लिए सर्वसाधारण को उपदेश किया है। बहुत तेज दौड़ने वाले जल्दी थक जाते हैं। और बहुत धीरे चलने वाले अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचने में पिछड़ जाते हैं। जो मध्यम गति से चलता है, वह बिना थके, बिना पिछड़े उचित समय पर अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच जाता है।

मन के संबंध में भी यही बात लागू होती है। उसमें भी मध्यम स्थिति-संतुलित-अवस्था का सदा ध्यान रखना पड़ता है, तभी व्यक्तित्व की साम्यावस्था प्राप्त की जा सकती है। मानसिक क्रियाओं को प्रायः तीन भागों में विभाजित किया गया है-(1) भावना (2) विचार (3) क्रिया। ऐसे बहुत कम व्यक्ति हैं, जिनमें उपरोक्त तीनों क्रियाओं का पूर्ण सामंजस्य, पूर्ण संतुलन हो। किसी में भावना का अंश अधिक है तो वह भावुकता से भरा है, आवेशों का विचार रहता है। उसकी कमजोरी अति संवेदनशीलता है। वह जरासी भावना को तिल का ताड़ बनाकर देखता है।

विचार प्रधान व्यक्ति दर्शन की गूढ़ गुत्थियों में ही डूबते-उतराते रहते हैं। नाना कल्पनाएँ उनके मानस क्षितिज पर उदित और अस्त होती रहती है, योजनाएँ बनाने का काम तो वे खूब करते हैं, पर असली काम के नाम पर वे शून्य हैं।

तीसरे प्रकार के व्यक्ति सोचते कम हैं, भावना में नहीं बहते, पर काम खूब करते रहते हैं। इन कार्यों में कुछ ऐसे भी काम वे कर डालते हैं, जिनकी आवश्यकता नहीं होती तथा जिनके बिना भी उनका काम चल सकता है।

पूर्ण संतुलित वही व्यक्ति है, जिसमें भावना, विचार, तथा कार्य-इन तीनों ही तत्वों का पूर्ण सामंजस्य हो। ऐसा व्यक्ति मानसिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ माना जाता है।

हमें चाहिए कि हम ‘अति’ से अपनी रक्षा करें और इस प्रकार असंतुलन से बचे रहें। तात्पर्य यह कि अति भावुकता में आकार ऐसा कुछ न कह डालें, ऐसे वायदे न कर बैठें, जिन्हें बाद में पूर्ण न कर सकें। इतने विचार प्रधान भी न बन जायँ कि संपूर्ण समय सोचते-विचारते, चिंतन करते-करते ही व्यतीत हो जाय। विचार करना उचित है, किंतु विचारों ही में निरंतर डूबे रहना और कार्य न करना, हमें मानसिक रूप से आलसी बना डालेगा। इसी प्रकार दो विरोधी गुणों में से किसी एक को जीवन में इतना प्रश्रय न दिया जाय कि व्यक्तित्व एकमुखी और एकाँगी बन जाय। यह भी असंतुलन दर्शाता है। संतुलित अवस्था वह है, जिसमें दोनों गुणों का पूर्ण विकास हो।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118