प्रबंधन-कला का ककहरा

December 1993

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किसी काम के लिए उपयुक्त योग्यता, तद्विषयक दायित्व सँभालने से पहले ही अर्जित कर ली जानी चाहिए। काम करते हुए अनुभव बढ़ाना फिर उसे ठीक तरह सँभालने की तैयारी करना महंगा पड़ता है। अयोग्य व्यक्ति अनुभव के अभाव में कुछ तो करते ही रहते हैं, पर वे अधूरे और अस्त-व्यस्त रहते हैं, फलतः सस्ते दामों के कारण या निजी घनिष्ठता के कारण उसके कंधे पर भारी-भरकम दायित्व लाद देना पीछे पश्चाताप का कारण बनता है।

जिनसे जो कराना है, उसे उसके संबंध में सैद्धाँतिक और व्यावहारिक दोनों ही प्रकार की समग्र जानकारियाँ प्राप्त करना चाहिए। देखना चाहिए कि उतार-चढ़ाव की बदलती परिस्थितियों में वह तद्नुरूप तालमेल बिठा सकने की सूझ-बूझ विकसित कर सका या नहीं। समुचित योग्यता परखे बिना किसी को व्यवस्थापक जैसे संचालन-सूत्र सँभालने वाले व्यक्ति को नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए, अन्यथा सूझबूझ और योग्यता की कमी के कारण वह अपना दायित्व ठीक तरह निभा न सकेगा, प्रगति का तारतम्य बिठाने की अपेक्षा अस्त-व्यस्तता का वातावरण खड़ा करेगा और असफलता का दोष समूचे तंत्र पर लगने देगा। सीखने के लिए छोटे-छोटे कामों के सहारे योग्यता संपादन करने का क्रमिक विकास चलने देना चाहिए। व्यक्ति को महत्व न देते हुए उस कौशल को प्रमुखता देनी चाहिए, जो सामूहिक प्रयत्नों के सहारे चलने वाले तंत्र के हर पक्ष पर समुचित ध्यान रख सके और समस्या उठते ही उसका समाधान कर सके। किसी व्यवसाय, कार्यालय आदि की इमारत, पूँजी, साधन-सुविधा कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो सुयोग्य संचालक के अभाव में उसके द्वारा सराहनीय प्रगति संपादित न की जा सकेगी।

योग्यता का मापदंड किसी डिग्री को मान लेना भूल है। पुस्तकीय ज्ञान एक बात है और घाटे को रोकना तथा अभ्युदय का पथ प्रशस्त करने के लिए ऐसा अनुभव चाहिए, जिसमें सूझबूझ का ही गहरा पुट हो। उपयुक्त प्रबंधक की नियुक्ति किसी तंत्र की आधी सफलता मानना चाहिए। व्यक्ति विशेष के प्रति आग्रह भाव रखकर अयोग्य व्यक्ति के हाथों संचालन सौंप देना, खड़ा किया गया ढाँचा लड़खड़ा देने का प्रमुख कारण होता है। कार्यारंभ करते समय ही इस कसौटी पर खरे उतरने वाले व्यक्ति को ही जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। यदि इसमें कुछ भूल हो गई हो, तो उसे सुधारते हुए उपयुक्त व्यक्ति की तलाश एवं नियुक्ति करनी चाहिए, साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस हेर-फेर में यथा संभव कटुता उत्पन्न न होने पाये।

इन दिनों लोग महत्वाकाँक्षाएँ पूरी करने में अत्यंत उतावली करते देखे जाते हैं। अपनी प्रशंसा के ऐसे पुल बाँधते हैं, मानो वे ही योग्य लोगों में ऊँचा स्थान प्राप्त कर चुके। जबकि बात ऐसी है कि छोटे काम करने के लिए भी संपर्क में आने वाले व्यक्तियों पर अपनी प्रामाणिकता की छाप डालना कम कला-कौशल नहीं, वरन् विकसित व्यक्तित्व का ऐसा प्रमाण है, जिसे कहीं भी चरितार्थ होते देखा जाता है। जिसे बड़े काम, बड़ी सफलता के साथ संपन्न करते हैं, उन्हें व्यक्तित्व विकास के हर पक्ष को परिपक्व करना चाहिए। इसमें देर लगती हो, तो छोटे सरल काम हाथ में लेने भर का साहस करना चाहिए। और अधिक योग्यों के सहायक रहते हुए अपनी अनुभव-संपदा में क्रमिक अभिवृद्धि करनी चाहिए। संस्थापक का भी कर्तृत्व बनता है कि अपने प्रमुख कर्मचारियों में से प्रत्येक का अधिक ज्ञान-संवर्धन के लिए उपाय करता और व्यवस्था बनाता रहे इस प्रतिस्पर्धा की दौड़ में व्युत्पन्न मति वाले लोग ही बाजी जीत पाते हैं। उन्हें खोजना अथवा अपने प्रयास से तैयार करना, यही दो उपाय सुसंचालक के हाथों कारोबार सौंपने के हैं। अयोग्य व्यक्तियों के घटियापन से किसी तंत्र को जितनी हानि और बरबादी सहनी पड़ती है, उतनी और किसी कारण नहीं।

संचालक का अपना स्वभाव ऐसे ढाँचे में ढलना चाहिए कि प्रतिकूलताओं के बीच भी अपना संतुलन बनाये रखे। होठों पर से मंद-मुसकान को किसी भी दशा में न जाने दें। भवें तरेरने, आँखें लाल करने की आदत ओछेपन की निशानी है। गंभीर लोग अपने ऊपर खीज सवार नहीं होने देते। गड़बड़ी बन रही हो, तो भी इतना आत्म-विश्वास बना रहना चाहिए कि वह साधारण बात है और उस पर निश्चय ही जल्दी ही काबू प्राप्त कर लिया जायेगा। आत्म विश्वास एक ऐसा गुण है, जिसे साहस एवं शौर्य, पराक्रम का प्रतीक माना जा सकता है। प्रतिकूलता उत्पन्न होते ही हड़बड़ा जाना और आपे से बाहर होने लगना कठिनाइयों को और दूना बढ़ा लेना है। उत्तेजित मस्तिष्क चढ़े हुए आवेश के कारण समाधान कारक निर्णय कर सकने की स्थिति में नहीं रहता। उस पर क्रोध, प्रतिशोध जैसे बुखार चढ़ बैठते और असमर्थ बनाकर छोड़ते हैं। असमर्थ को असफल होना ही है। आवेश तुरंत प्रतिक्रिया उत्पन्न करने वाला दुर्गुण है। किसी को उलटी होने लगे, तो निकटवर्ती दर्शकों का भी जी मिचलाने लगता है। जिस पर क्रोध किया गया है, वह दोष स्वीकार करने की अपेक्षा अपमान को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेता है और ऐसे उलटे व्यवहार पर उतर आता है, जिस से बात बनने की अपेक्षा और अधिक बिगड़े। पटरी बिठाने के लिए आवश्यक है कि विचार-विमर्श और आदान-प्रदान का रास्ता निकलने वाली मधुरता बनी रहे। जो सौम्य प्रकृति के, सौजन्य भरे स्वभाव के होते हैं, उनके प्रति सहज सहानुभूति उमड़ती है और पराये भी अपनों जैसा समर्थन सहयोग देने लगते हैं। खीज कोई समाधान नहीं ढूँढ़ पाती वह जलती आग में ईंधन डालने का काम देती है। इसलिए दुहरा अनर्थ न होने देने की दृष्टि से बुद्धिमत्ता इसी में है कि गुत्थियाँ उलझ जाने पर भी कम से कम अपना संतुलन तो बनाये ही रहा जाय। प्रबंधक के अन्य गुणों में यह स्वभाव भी बड़ा महत्व रखता है कि प्रसन्नता और आत्मविश्वास प्रगट करने वाली मुख मुद्रा बनाये रखी जाय।

मतभेद अक्सर उठते रहते हैं। स्वार्थ टकराते रहते हैं, अनुचित माँगे, पेश करते रहना अधिकांश लोगों के स्वभाव में सम्मिलित होता है। उस आदत को इच्छा मात्र से ही नहीं हटाया जा सकता। सही उपाय विचार विनिमय ही है। यदि एक पक्ष उत्तेजना ग्रस्त न हो, तो दूसरे उत्तेजित को भी विचार विनिमय के स्तर पर लाया जा सकता, तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करते हुए औचित्य को स्वीकार करने की स्थिति तक नरम बनाया जा सकता है। समझौता न भी हो सके, तो भी कम से कम ऐसी स्थिति तो बन ही सकती है कि अनुकूल स्थिति आने तक धैर्य बना रहे और तत्काल के लिए विग्रह टल जाय। इस स्थिति तक पहुँच जाने पर आधी बला टल जाने के समान है।

कई बार ऐसा भी होता है कि जड़ में कोई और कारण होता है और उसके कारण उत्पन्न हुए आक्रोश को व्यक्ति किसी दूसरे रूप में प्रकट करता है। ऐसी दशा में पत्तों को तोड़ने में समय खराब करने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि मूल कारण को तलाश किया जाय और समस्या जिस केन्द्र में उत्पन्न होती है, वहाँ तक परिवर्तन, प्रयासों को गहराई तक पहुँचाया जाय। कभी-कभी जड़ अन्यत्र होती है और उसके अंकुर कहीं और फूटते हैं। ऐसे छिपाव जहाँ भी अड़ रहे हों, वहाँ किसी विश्वासी मध्यवर्ती से ही उन दोनों क्षेत्रों को सुलझाने में मदद ले सकते हैं।

संक्षेप में काम की बात कर लेना अच्छा गुण है। इससे दोनों पक्षों का अनावश्यक समय बरबाद होने से बच जाता है, पर साथ ही यह भी आवश्यक है कि इतनी चुप्पी भी बुरी है कि अपनी बात को दूसरे के सामने सही ढंग से प्रस्तुत करते भी न बन पड़े, लोगों को संकोची, झेंपू, अबोध-कहने का अवसर मिले। अतिवाद की सीमा तक चलते रहने वाली वाचालता पर तो अंकुश रखा जाय, पर किसी भी सामाजिक व्यक्ति को अपने कहने और दूसरों की सुनने जैसी उत्सुकता तो होनी ही चाहिए अन्यथा उपेक्षा बरती जाने के संदेह में कोई दूसरे अपने मन की बात भी न कह सकेंगे और अपने को कितनी ही महत्वपूर्ण जानकारियों को प्राप्त करने से वंचित रहना पड़ेगा। मध्यवर्ती वार्तालाप कर सकने का गुण तो उस स्तर के लोगों में होना ही चाहिए, जिनका अनेक लोगों से वास्ता पड़ता है और गलतियों को सुधारने से लेकर अच्छाइयाँ बढ़ाते रहने तक के अनेक संदर्भों में वास्ता पड़ता रहता है।

जिन्हें कौशल अर्जित करना है और व्यक्तित्व को अधिक परिष्कृत, प्रभावशाली बनाना अपेक्षित है, उन्हें ऐसे अवसरों की भी प्रतीक्षा करते रहना चाहिए, जिसमें अधिक प्रतिष्ठित और क्रिया कुशल समझे जाने की मान्यता है। यदि उनसे कुछ पाने-सीखने का भाव हो तो उनके अनुकरणीय क्रिया-कलापों को गंभीरतापूर्वक देखते रहना चाहिए और प्रयत्न करना चाहिए कि वैसी ही उत्कृष्टता का अनुकरण करने के लिए अपने में आवश्यक परिवर्तन बन पड़े।

घटिया लोग जगह-जगह आसानी से मिल जाते हैं। उनसे वास्ता भी अकारण ही पड़ जाता है। छाप तो भले-बुरे सभी की पड़ती है। यहाँ सावधानी यही बरतने की है कि श्रेष्ठता का अभिग्रहण और दुर्जनों में पाई जाने वाली दुष्टता से आत्मरक्षा करते रहने की जागरुकता बनी रहे। इस प्रकार हर स्तर का व्यक्ति अपने संपर्क में आते रहने पर भी उनका उपयुक्त प्रभाव ही ग्रहण करते रहने का सुयोग बन जाता है। किसी की चापलूसी या उजड्डता अपने को प्रभावित न करने पाये, यह शालीनता का एक सुरक्षात्मक कवच है।

जीवन की घरेलू समस्याएँ हर किसी के सामने होती हैं। इनमें से कुछ तो प्रसन्नता भी देती हैं, पर अधिकांश ऐसी होती हैं जिनके लिए चिंता करनी पड़ती है और बेचैनी अनुभव होती है। ऐसे प्रसंगों को घर छोड़ते समय ही वापस लौटने पर विचार करने के लिए छोड़ देना चाहिए। दफ्तर की मेज तक उनमें से किसी को भी नहीं पहुँचने देना चाहिए। स्थान परिवर्तन करने से क्रियाकलापों में ही स्थिति के अनुरूप हेर-फेर करना पड़ता है। ऐसा ही परिवर्तन घर के और दफ्तर के वातावरण में क्रियाकलापों में अंतर समझते हुए मानसिक परिवर्तन कर लेना चाहिए। दो जगह की या कई प्रकार की समस्याएँ मस्तिष्क में घूमती रहें, तो उसका दुष्परिणाम यह होगा कि हाथ में लिए काम को पूरी समझ के पूरी दिलचस्पी के साथ न किया जा सकेगा। ऐसी दशा में वह वैसी अच्छी तरह न सध सकेगा, जैसा कि एकाग्रता के साथ ही दिलचस्पी भी बनाये रहने पर संभव हो सकता है। अन्यत्र की समस्या का हल दफ्तर में बैठकर नहीं हो सकता। उसके लिए अन्यों से परामर्श एवं संपर्क बनाना पड़ेगा। जो जिम्मेदारी भरे कार्यालय में बैठकर संभव नहीं हो सकता। ऐसी दशा में अनेक प्रकार की चिंताओं, समस्याओं, इच्छाओं से मस्तिष्क घिरा रखना किसी भी समय उपयुक्त नहीं, पर विशेषतया तब तो और भी अधिक घातक सिद्ध होता है, जब किसी महत्वपूर्ण तंत्र की जिम्मेदारियाँ वहन करने में समूचा मनोयोग लगाने की आवश्यकता पड़ रही हो। अच्छे प्रबंधक अपने को किसी व्यर्थ की खींचतान में नहीं पड़ने देते।

बढ़ी-चढ़ी भावुकता प्रायः अतिवाद की सीमा छूने लगती है। कल्पनाएँ, योजनाएँ भी ऐसी बनने लगती हैं, जो व्यवहार में आसानी से नहीं उतारी जा सकतीं। फिर हर महत्वपूर्ण कार्य में साथियों से, विशेषज्ञों से परामर्श करने की भी आवश्यकता होती है। कल्पना तो आकाश-पाताल की भी की जा सकती है, पर वहाँ तक पहुँचने के न तो साधन होते हैं, न समय न अनुभव। ऐसी दशा में असंभव स्तर की कल्पनाएँ प्रायः निरर्थक बनकर ही रह जाती हैं। इतने पर भी जब भावुकता की उड़ाने विवेक की मर्यादाएँ तोड़कर हवाई-अंधड़ के साथ उड़ने लगती हैं, तो फिर रंगीन चश्मा पहन लेने जैसी स्थिति हो जाती है। जिस रंग का चश्मा हो, उसी प्रकार की सभी वस्तुएँ दीखने लगती हैं। कभी-कभी ऐसी भली-बुरी, संभव-असंभव कल्पनाओं का भी दौर आता है। अपनी सोची हुई बात उचित एवं उपयुक्त लगने लगती है। बात यहाँ तक बढ़ जाती है कि उतावली में मनमर्जी के अनुरूप कदम भी उठा लेते हैं। ऐसी दुर्भावनाएँ युवक युवतियों के प्रेम-प्रसंगों में तो आये दिन होती और पश्चाताप का कारण बनती रहती हैं, पर आश्चर्य तब होता है, जब किसी तंत्र के संचालक में भी ऐसी ही घटनाएँ आये दिन होती देखी जाती हैं। सीमा से अधिक खर्च कर डालना, उधार बाँट देना, चुगली सुनकर अपनी धारणा तद्नुरूप बना लेना, वेतन संबंधी महत्वाकाँक्षाओं की चाहें जिस सीमा तक बढ़ने देना चिंता व बचकानेपन का कारण है। मित्रता, शत्रुता के संबंध में भी ऐसे ही व्यतिरेक होते रहते हैं, जो नहीं होने चाहिए। सामान्य की सीमा में बने रहना ही उचित है। संबंधी को अति घनिष्ठता का या अति उपेक्षा का बना लेना कवि-कलाकारों के लिए उपयुक्त हो सकता है, किंतु प्रबंधकों को तो व्यावहारिकता से ही वास्ता पड़ता है। इसलिए संबंधों में, स्वजनों में अतिवाद का समावेश नहीं होने देना चाहिए। इससे किसी कुचक्र की गंध भी सूँघी जा सकती है और उस असमानता को देखते सामान्य संबंध वालों में ईर्ष्या भी उभर सकती है, जो आगे चलकर अनुपयुक्त झंझट अकारण खड़े करे।

चिंतन, समय, श्रम, मनोयोग सृजन प्रयोजन में लगाना चाहिए और उस पक्ष पर अधिक ध्यान देना चाहिए, जिसमें हाथ में लिए कारोबार को सार्थक-समृद्ध अधिक सफल बनाने के लिए सहभागियों और सत्परामर्शदाताओं के साथ अधिक संपर्क रखना चाहिए। हमें किससे बदला लेना, कौन अपनी क्या क्षति पहुँचाने वाला है, इस विषय पर मोटी दृष्टि रखनी चाहिए, पर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए। हानि की आशंकाएं कभी-कभी ही सामने आती हैं किंतु सृजन संवर्धन के संबंध में किया गया चिंतन ऐसे द्वार खोलता है, जिससे अपना गौरव बढ़े और जो काम हाथ में लिया गया है, उसमें प्रगति होती रहे। चिंतन की धारा विधेयात्मक होनी चाहिए। निषेधात्मक पक्ष में सोचते रहने वाले ओछे व्यक्तियों के साथ संबंध बढ़ाने वाले पाते तो कुछ नहीं, हानि होने के सरंजाम जुटाते रहते हैं।

परिस्थितियाँ तेजी से बदलती रहती हैं। उसके साथ ही अपने चिंतन एवं क्रियाकलापों को भी बदलना पड़ता है। नई ढंग की, नई सुविधा देने वाली मशीनें बाजार में आ जाने से पुराने ढर्रे को अपनाये रहने वाले पिछड़ जाते हैं। इसलिए समय के साथ चलने में ही भलाई समझी जाती है। लोगों की सोच और आवश्यकताएं बदलती रहती हैं। ऐसी दशा में पुराने ढर्रे पर अड़े रहने की अपेक्षा भलाई है कि समय की माँग के अनुरूप आवश्यक परिवर्तन करते रहा जाय। ऐसे परिवर्तनों में तत्काल खर्चीली व्यवस्था करनी पड़ सकती है, पर उस संदर्भ में किया गया श्रम या खर्च अगले ही दिनों अधिक लाभ देने लगता है। प्रबंधक में इतनी प्रत्युत्पन्न मति तो होनी ही चाहिए कि चलने वाली प्रतिस्पर्धा में अपने कार्य को पिछड़ने न दें और जहाँ परिवर्तन आवश्यक है वहाँ उसे करते रहने के लिए साथियों को सहमत करते रहें। किसी भी प्रबंधक, व्यवस्थापक, संगठक में इतने गुण तो होना ही चाहिए।


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