न बूढ़ों की तरह सोचें, न मरण की बात करें

December 1993

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जल स्रोत जब आगे की मिट्टी भुसभुसी होने के कारण आगे नहीं बढ़ पाते, तो रुका हुआ पानी अपनी परिधि में दलदल मात्र बनकर रह जाता है। दलदल किसी प्रयोजन की पूर्ति नहीं करता, उसमें कुछ पैदा होना तो दूर जो कोई जीव-जंतु वहाँ जा पहुँचता है, फँसकर मर जाता है। कोई चाहे, तो इसे एक प्रकार की अवगति या प्रतिगामिता भी कह सकता है। भीड़ आगे नहीं बढ़ती तो रास्ता जाम कर देती है। इसी बीच यदि पीछे वाले आतुरता दिखाने लगें, तो सैकड़ों पैरों तले कुचल कर बेमौत मर जाते हैं।

इसी प्रकार सभी बूढ़े मरणासन्न नहीं होते। वे चाहें तो वयोवृद्ध स्थिति में भी अपनी स्थिति के अनुरूप कोई सृजन कृत्य ढूँढ़ सकते हैं और उसमें रुचिपूर्वक व्यस्त रहकर प्रसन्न भी रह सकते हैं और कुछ-न-कुछ उपयोगी निर्माण करते रह सकते हैं। इससे उनका समय भी प्रसन्नतापूर्वक कटता रहेगा और कुछ न कुछ ऐसा उत्पादन भी होता रहेगा जो काम आये।

किंतु अनगढ़ बुद्धि ठीक विपरीत तरह की आदतें अपना लेती है लोग अपने बचपन और यौवन के दिनों वाली उत्साहवर्धक परिस्थितियों का स्मरण करते रहते हैं, साथ ही यह तुलना भी करते रहते हैं कि अब कैसी अवगति के दिन आ गये ? दोनों समयों की तुलना करके उन्हें क्षोभ बहुत होता है। भाग्य विधान को कोसते और वर्तमान स्थिति पर असंतोष व्यक्त करते हैं। इस विक्षोभ के कारण उनकी बची-खुची शक्तियाँ भी तेजी से बरबाद होती हैं। दिन बड़ी नीरसता के साथ काटते हैं और क्षुब्ध रहने पर मौत के दिन भी जल्दी आ धमकते हैं। बूढ़ों को असामयिक चिंतन उनके लिए जितना घातक होता है, उतना कदाचित् और कोई विघातक सिद्ध नहीं होता।

युवकों की स्थिति भिन्न होती है। वे अगले दिनों के उज्ज्वल सपने देखते हैं। खेलों में इनाम जीत लाने, बड़े बनकर अफसर बनने, अच्छा जीवन साथी उपलब्ध करने, कमाई करने, घर परिवार को सँभालने, वैज्ञानिक, कलाकार, व्यवसायी आदि बनने और भरे पूरे परिवार के साथ सुख-चैन की लंबी जिंदगी बिताने की बात सोचते हैं। इस उत्साह में मनोबल भी बढ़ता है और उठती आयु के रस-भक्त भी सहायक होकर प्रगति की गति को कई गुना बढ़ा देते हैं। यही कारण है कि बूढ़े जहाँ अपनी मानसिकता के कारण दिन-दिन क्षीण होते जाते हैं, वहीं जवानी की उमंगें नई-नई योजनाएँ चुनती अनुकूलता खींच बुलाती और जोश भरे आनंद को कई गुना अधिक बढ़ा देती है। मनोबल का अपना महत्व है। चिंतन की दिशाधारा मनुष्य के उत्कर्ष या अपकर्ष में महती भूमिका निभाती है। जो शक्तियों के उद्भव को प्रगति की दिशा में आगे नहीं बढ़ने देते, वे सड़े दलदल की तरह बदबू, काई, कीचड़ बन जाते हैं। भारतीयों पर जो अघटित घटित हुआ है। उसके संबंध में भी कुछ ऐसा ही सोचा जा सकता है। चिर पुरातन के सतयुगी वातावरण का अवगाहन करने पर प्रतीत होता है कि आज की तुलना में कहीं अधिक अभावग्रस्त स्थिति रहने पर भी स्वरूप साधनों से काम चलाते हुए लोग हंसी-खुशी के साथ उत्थान-अभ्युदय की ऐसी अवस्था प्राप्त कर लेते थे जिसकी प्रक्रिया देखते हुए उन्हें देवात्मा कहा जाता था, उन दिनों के वातावरण को सतयुगी कहा जाता है। उन प्रगतिशील प्रतिभाओं से भरी-पूरी धरती “स्वर्गादपि गरीयसी” कही जाती रही है।

उन दिनों की परिस्थितियों और अर्वाचीन माहौल में इतना जमीन-आसमान जैसा अंतर कैसे आया है ? यह आश्चर्यजनक लगता है। आज की जो परिस्थितियाँ हैं, उनमें हर व्यक्ति अपने को खिन्न-विपन्न अनुभव करता है। सामाजिक परिस्थितियाँ ऐसी हैं, जिनके पीछे अन्याय, आक्रमण, शोषण, उत्पीड़न ही प्रमुख हैं और छद्म, छल प्रपंच की काली छाया घिरी दीखती है। शरीर और समाज दोनों ही अस्वस्थ दीखते हैं। यूं तो तथाकथित प्रत्यक्षवादी प्रगति के कारण साधनों का उत्पादन बहुत बढ़ा है, पर उनका सही उपयोग कर पाने की क्षमता जिस-तिस में ही दीख पड़ती है।

एक ओर जहाँ जापान, इजराइल, क्यूबा जैसे छोटे-छोटे देश हर दृष्टि से उन्नति करते दीखते हैं, वहाँ अपने देश में प्राकृतिक साधन संपन्नता भरपूर होते हुए भी निर्धनता और पिछड़ेपन से ही घिरा देखा जाता है। प्रगति के नाम पर यत्किंचित् प्रयत्न चलते भी हैं, तो वे गुब्बारे में से हवा निकल जाने की तरह गई गुजरी स्थिति से ऊँचे नहीं उठ पाते।

इस असाधारण परिवर्तन का कारण आखिर हुआ क्या ? यह एक विचारणीय विषय है। पिछले दो हजार वर्षों में हम कहाँ-से-कहाँ आ गये, यह पर्यवेक्षण सुनने-सुनाने पर अविश्वसनीय जैसा लगता है। हम दो हजार वर्षों की लंबी गुलामी अभी-अभी भुगत कर निपटे हैं। उस अवधि में कितना उत्पीड़न कितना शोषण, कितना अपमान सहना पड़ा, इसे देखकर दिल दहल जाता है। रोमाँच हो आता है।

कहाँ तो कभी की इतनी समर्थ जनता जो संसार भर की व्यवस्था बनाने और सत्परंपरा चलाने में चक्रवर्ती शासक, का दायित्व निभाती रही कहाँ इतना ज्ञान भंडार का गौरव, जिसे सीखने-समझने के लिए विश्व भर की प्रतिभाएँ यहाँ के विश्वविद्यालयों में पढ़ने आती थीं और नये ढांचे में ढलकर व्यक्तित्व निखार कर वापस लौटती थीं, वहाँ आज की स्थिति जिसमें अपनी भाषा, अपनी संस्कृति अपनी विचारधारा नाम की कोई गौरवास्पद बात ही शेष नहीं रह गई।

ढूँढ़ने पर अनेक कारणों में से एक समर्थ कारण यह भी दीखता है कि हमने वर्तमान समस्याओं को जन्म देने के अतिरिक्त अगले दिनों उज्ज्वल भविष्य की संरचना करने वाले चिंतन एवं कार्यक्रम बनाने, संगठित प्रयत्नों का ढाँचा खड़ा करने के लिए एक प्रकार से कुछ किया ही नहीं ! जो किया गया वह मात्र बड़े आदमियों के काम का था। उन्हीं की क्षमता-सुविधा बढ़ाने वाला था। सर्व-साधारण की तो आवश्यकता की उपेक्षा ही बन पड़ी। हम सब विडंबनाओं के बीच ही अधर में झूलते रहे।

प्रगतिशील समुदायों का प्रमुख गुण यह होना चाहिए कि उनसे अधिक अच्छी स्थिति जिनकी नहीं है, उनके लिए कुछ कर दिखाने की परिस्थितियों के अनुरूप उमंगें उठनी चाहिए। संकल्प चेतना जगनी चाहिए। योजना बना सकने की समयानुरूप योग्यता होनी चाहिए, साथ ही इतना पुरुषार्थ भी होना चाहिए कि प्रगतिशीलों को संगठित करके उत्थान, प्रयत्नों को कार्य रूप में परिणत कर सकें। इतनी पृष्ठभूमि बन जाने पर ही समझना चाहिए कि संख्या में बड़े और साधनों की दृष्टि से कमजोर होते हुए भी कर्मनिष्ठ व्यक्तियों का समूह बहुत कुछ कर गुजरने में समर्थ हो सकेगा।

योरोप के छोटे-छोटे देशों में रहने वाले तनिक-तनिक सी जनसंख्या वाले राष्ट्र जब अपने विस्तार और उत्कर्ष के लिए आकुल-व्याकुल हुए तो देखते-देखते संसार भर की विशालकाय भूमि पर कब्जा जमा लिया। साथ ही उन पर अपना आधिपत्य जमा लिया। जो कुछ भौतिक और बौद्धिक संपदा हाथ लगी, उसे अपने-अपने देशों के लिए लूट-खसोट लाये। इस सफलता के पीछे और कोई नई बात नहीं थी। रहस्य इतना ही था, कि योजनाबद्ध रूप से उनसे संगठित प्रयत्न किये और वे कार्यरूप में परिणत करके दिखाये।

इस प्रगति पथ पर भारत बहुत पिछड़ गया। पड़ोसी लुटेरे मुट्ठी भर संख्या में होते हुए भी धावा बोलकर चढ़ दौड़ते रहे और लूट खसोट से ही नहीं, लंबी अवधि तक अपना आतंक भरा शासन जमाये रहने में भी सफल हुए। ऐसा क्यों हुआ ? मुट्ठी भर लुटेरों का आतंक इतने विशाल क्षेत्र और इतनी उत्कृष्टता-संपन्न जन समुदाय को पैरों तले रौंद डालने में क्यों कर सफल हुआ। इसका कारण एक ही उभर कर आया है कि आक्रमणकारियों की बलिष्ठता इसका कारण नहीं रहा, वरन् अर्ध प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हुआ जनसमुदाय यह नहीं सोच सका कि संगठित प्रतिरोध का भी प्रयोग हो सकता है क्या ? कोई प्रयत्न बन बन सकता है क्या ? छिटपुट स्थानीय एवं व्यक्तिगत संघर्ष तो हुए, पर बड़ी समस्या के लिए बड़े समर्थन चाहिए यह किसी को भी नहीं सूझ पड़ा कि संगठित होने और मिलजुल कर परिस्थिति के अनुरूप रास्ता निकालने की भी आवश्यकता पड़ेगी, फलस्वरूप दैवी विपत्ति की तरह सिर पर सवार रही। यह स्थिति शरीर के बुढ़ापे से भी गई बीती है। बुढ़ापा शारीरिक असमर्थता का तो प्रतीक है ही पर उससे भी बड़ी बात यह है कि उन दिनों मनोबल भी टूटता है। कोई बड़े प्रयास करने के लिए उत्साह नहीं उभरता। उन दिनों मरने की बात ही सामने रहती है। मौत के दिन गिनते-गिनते आखिर वह सामने ही आ खड़ी होती है। बूढ़ों का मरण किसी को बहुत अखरता नहीं, क्योंकि वह पहले ही अपनी उपयोगिता गँवाकर क्रमशः दूसरों पर भार बनता जा रहा था।

शरीर का बूढ़ा होना तो समय साध्य है, पर मानसिक बुढ़ापा, बचपन, किशोरावस्था या जवानी में मर भी सकता है। ऐसे लोगों की एक ही पहचान है कि वे उज्ज्वल भविष्य के सपने नहीं देखते। मौत ही उन्हें आगे-पीछे घूमती दिखाई पड़ती है। घुना बीज उगता नहीं। जिसके सामने उज्ज्वल भविष्य की संकल्पना नहीं, उसे घुना बीज ही समझना चाहिए। आज का जन साधारण वास्तव में बुड्ढों जैसा मानस बना चुका है। बूढ़े लोग भी अपने भूतकालीन संस्मरण देखने, याद करने सुनने या बताने में रस लेते हैं। भविष्य के लिए मौत के अतिरिक्त और कुछ सोचते नहीं। लगभग अपना लोकमानस इसी प्रकार का हो गया है।

सामयिक उपचार की दृष्टि से हमें इन भ्राँतियों को उखाड़ना चाहिए कि जो कुछ पुराने लोग कर चुके हैं, वही अनुकरणीय है। समय बदलता है और नई समस्याओं के साथ नये समाधान भी साथ लेकर आता है। इसलिए पुराने कथा-कीर्तन कहने-सुनने का कोई तुक नहीं। जो चला गया, वह फिर कभी आने वाला नहीं है। इसलिए देखना यह होगा कि पुरानी कथा-गाथाओं को दुहराते रहने की अपेक्षा यह कहीं अधिक उत्तम है कि देश की न सही विदेश की सही ऐसी कथा-गाथाएँ जन-जन के सम्मुख लेखनी, वाणी, अभिनय आदि के माध्यम से प्रस्तुत की जायँ तो भविष्य निर्माण की दृष्टि से सामयिक एवं उपयोगी बैठती हैं।

दूसरे देवी-देवताओं के वरदान अभिशाप विधाता की पूर्व संरचना, ग्रहदशा, जैसी बेतुकी बातों के अंधविश्वास में फँसने और पौरुष को गँवाने की स्थिति न बने, इसलिए उनको निरस्त किया जाना भी आवश्यक है। कोई समय रहा होगा, जो सामंतों ने अपने अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह न उभरने देने और पीड़ितों को भाग्य का खेल मानकर चुप बैठे रहने के लिए इस प्रकार के मूढ़ मान्यताओं को कथा-कहानियों के सहारे प्रश्रय दिया होगा। पर आज के विचारशीलता वाले युग में भी जहाँ कहीं ऐसे प्रचलनों का बाहुल्य है, वहाँ से उन्हें उखाड़ने की आवश्यकता है।

हम बूढ़ों की तरह न सोचें। मरण को ही अंतिम नियति न कहें। पुरुषार्थ को, संकल्प को, संभावना को और प्रबल प्रयत्न को जिन आधारों पर प्रश्रय मिल सके, उन्हें ही अग्रगामी बनाया जाय।


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