प्रज्ञायोग की सरलतम साधना

December 1993

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प्रज्ञायोग साधना उपक्रम में नित्य सवेरे आँख खुलते ही बिस्तर पर पड़े-पड़े यह चिंतन करना चाहिए कि आज हमारा नया जन्म हुआ है। यह एक दिन के लिए ही है। इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करना चाहिए। इसके लिए सोते समय तक की ऐसी दिनचर्या बना लेनी चाहिए कि आवश्यक विश्राम को छोड़ कर सारा दिन व्यस्तता में बीते और उसमें शरीर यात्रा के साँसारिक कार्य ही नहीं आत्मोत्कर्ष के निमित्त परमार्थ प्रयोजनों के लिए भी स्थान रहे।

रात को बिस्तर पर जाते समय दूसरा मनन करना चाहिए कि आज की निर्धारित दिनचर्या पूरी हुई या नहीं ? यदि उसमें कुछ त्रुटियाँ रहीं हों तो भविष्य में कड़ाई के साथ ऐसी भूलों के परिमार्जन की बात सोचनी चाहिए।

“हर प्रभात नया जन्म और हर रात नयी मौत” का सिद्धाँत अपने चिंतन का प्रमुख विषय रहना चाहिए। हम मौत को भूले रहते हैं और बहुमूल्य जीवन संपदा को अनुपयुक्त ढंग से गँवा कर चलते समय पश्चाताप करते हैं और पापों का पोटला सिर पर बाँधकर उनका दुष्परिणाम भुगतने के लिए विवश होते हैं। यदि मृत्यु का ध्यान बना रहे तो मनुष्य नारकीय यंत्रणाएँ देने वाली दुष्प्रवृत्तियों से बचा रह सकता है। यह दो कृत्य नियमित रूप से चलें और उनमें गंभीरता रहे तो मनुष्य की जीवनचर्या ऐसी सुँदर और शानदार ढंग से चलती रह सकती है। जिसे सुँदर और शानदार बनाया जा सके। यह कार्य एक दिन का नहीं नित्य विचारने का है। उठते और सोते समय इसे किया ही जाना चाहिए।

इसके अतिरिक्त प्रज्ञायोग के उपक्रम में कम से कम आधा घंटा एकाँत समय ऐसा निकालना चाहिए जिसे आत्म-निरीक्षण कहा जा सके। इसके लिए कोई अतिरिक्त नियम नहीं।

भीड़ कोलाहल के कारण चित्त न बटे इतनी व्यवस्था बना लेना ही पर्याप्त है।

स्थूल जीवन का सूक्ष्म सत्ता द्वारा निरीक्षण-पर्यवेक्षण, यही है इस साधना का उद्देश्य। दूसरे लोगों की, किसी के भीतर की-अविज्ञात कर्मों की-मनःस्थिति की जानकारी नहीं रहती, पर अपने आप से तो अपनी कोई बात छिपी नहीं होती। इसलिए वहाँ के अपने असली-नंगे स्वरूप में ही प्रकट होना चाहिए।

इस पर्यवेक्षण के चार भाग है

(1) आत्म समीक्षा (2) आत्म सुधार (3) आत्म निर्माण (4) आत्म विकास

(1) आत्म समीक्षा में देखा यह जाना चाहिए कि कितनी सत्प्रवृत्तियाँ और कितनी दुष्प्रवृत्तियाँ अपनायी गयीं। गुण-कर्म-स्वभाव में कितनी श्रेष्ठता और कितनी निकृष्टता का समावेश रहा। इस तथ्य को अपने साथ पक्षपात बरतते हुए नहीं वरन् निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह परखना चाहिए।

(2) आत्म सुधार दूसरा चरण है। जो दुष्प्रवृत्तियाँ अपने ऊपर लदी हों उन्हें मिटाने या घटाने की योजना बनाकर कार्यान्वित करनी चाहिए। अंतःक्षेत्र में एवं व्यावहारिक जीवन में जो कषाय-कल्मष पनपते हों। उनके दुष्परिणामों का आकलन करना चाहिए। उनके विरोधी तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण इतने एकत्रित करने चाहिए कि उनकी टक्कर खाकर कुसंस्कारों को पलायन ही करना पड़े।

(3) आत्म निरीक्षण का तीसरा चरण है-आत्म सुधार। इतना ही पर्याप्त नहीं कि मात्र दोष दुर्गुणों से ही बचे रहा जाय। ऐसा तो वृक्ष भी कर लेते हैं और गाय बैल भी। देखना यह चाहिए कि मानवोचित सद्गुणों की कितनी कमी है और उसकी क्षति पूर्ति करने के लिए किस प्रकार का दैनिक कार्यक्रम बनाया गया।

(4) चौथा चरण है आत्म विस्तार आम

(4) चौथा चरण है आत्म विस्तार आम

वर्तमान हेय या सामान्य स्थिति को किस प्रकार श्रेष्ठजनों के अनुरूप अभिनंदनीय, अनुकरणीय बनाया जाय। इसकी समग्र रूपरेखा बनाना और उसे कार्यान्वित करने में जुट पड़ना यही है आत्म पर्यवेक्षण का उद्देश्य। प्रज्ञायोग का यह साधना उपचार निश्चित ही मनुष्य को महानता के पथ पर ले जाने वाला है।


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