समुद्र के तट पर बसा वह प्रदेश धरती का स्वर्ग कहा जाता था। उस प्रदेश के पूत चरित्र सुचारु नरेश विषय-वासना, भोग-विलास शोषण से सर्वत्र विरत आत्मोपार्जित आजीविका में ही विश्वास करते थे। राजकोष का एक पैसा भी अपने पर खर्च करना पाप मानते थे और महामात्य वह तो सामान्यजन से भी अधिक परिश्रम करते और साधारण स्थिति में रहते थे। प्रजा की सेवा करने का वह कोई पारिश्रमिक न लेते थे। स्वयं खेती करते और संतुष्ट रहते। ऐसे शुभ संस्कार और पूत चरित्र के रक्षक और शिक्षक पाकर क्यों न प्रजाजन वैसे बनते-क्यों न वह प्रदेश स्वर्ग का उपमान बनकर सर्व साधनों से सुसंपन्न होकर सुखी रहता।
एक बाँम झंझावात से विक्षुब्ध वह समुद्र भयंकर हो उठा। ऊँची-ऊँची तरंगों के अंक में फँसकर एक व्यापारी का बहुमूल्य सामग्री से भरा जहाज समुद्र में डूब गया। किसी प्रकार वह व्यापारी एक सहायक नौका के सहारे तट पर आकर लग गया। किंतु उसने उस जीवन को व्यर्थ समझा वह धन कुबेर से भिखारी बन चुका था। उसका सर्वस्व उस समुद्र के जल में समा चुका था। समुद्र तट पर बैठा वह विलाप करता हुआ, भाग्य को कोस रहा था। तभी एक व्यक्ति आया और उसने दुख का कारण पूछा। उस व्यापारी न रोते हुए अपना दुर्भाग्य कह सुनाया, उस व्यक्ति ने उस दुखी व्यापारी को ढाढ़स बँधाया और राजा के पास जाकर सहायता की प्रार्थना करने को कहा ?
व्यापारी को आशा बँध गई और वह नगर की ओर चल दिया।
नागरिकों द्वारा निर्दिष्ट किए संकेतों के अनुसार वह राजा के निवास पर पहुँचा। किंतु उसे विश्वास न हुआ यह भला राज निवास कैसे हो सकता है ? उस निवास और नगर में देखे अन्य निवासों में कोई विशेष अंतर न था। उसने विश्वास न कर पास ही जाते हुए एक व्यक्ति से पूछा-क्या राज निवास यही है ? ‘हाँ भद्र’ उत्तर सुनकर व्यापारी झिझकता हुआ अंदर बढ़ा। उसे कोई द्वारपाल अथवा प्रहरी रोकने नहीं आया और वह आगे बढ़कर एक सुँदर उद्यान से घिरे एक विशाल प्राँगण के द्वार पर आकर रुक गया। तभी सुना-”आइये भद्र !” निस्संकोच चले आइये, व्यापारी ने पास जाकर देखा कि एक स्फटिक वेदिका पर अमराई की सघन छाया में एक अत्यंत सुँदर, स्वस्थ और तेजस्वी युवा बैठा हुआ सनकात रहा है।
उसने क्षण भर अपना काम रोककर आगंतुक को पास ही बनी हुई उपवेदिका पर बैठने को कहकर कहा “यात्री मालूम होते हैं” कहिए कैसे कष्ट किया। युवक का काम पुनः शुरू हो गया था। व्यापारी ने कहा-”भद्र मैं मुसीबत का मारा एक व्यापारी हूँ इस प्रदेश के राजा से मिलकर कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। आप मुझे उनके दर्शन करा दें। बड़ी कृपा होगी।”
युवक ने बड़े सौम्य भाव में बतलाया, मैं ही इस प्रदेश का राजा कहा जाता हूँ। कहिए आपको क्या कहना है। व्यापारी श्रद्धा से आत्म विभोर होकर चरणों में गिरकर रो उठा। राजा ने अपना चरण एक ओर हटाकर व्यापारी को ढाढ़स दिया और अपनी व्यथा बतलाने को कहा।
व्यापारी ने रुँधे हुए कंठ और भरी हुई आँखों से अपनी दुख कथा कह सुनाई। राजा ने उसे विश्वास दिलाया कि उसकी खोई हुई संपत्ति वापस मिलेगी और एक चिट्ठी के साथ महामात्य के पास भेज दिया।
व्यापारी महामात्य के निवास पर पहुँचा और यह देखकर चकित रह गया कि प्रदेश महामात्य बाहर से जल भर कर ला रहे हैं। व्यापारी ने नमस्कार करके पत्र सेवा में प्रस्तुत किया। महामात्य ने पत्र पढ़ा और वे तुरंत व्यापारी को साथ लेकर कार्यालय आये। वहाँ उन्होंने समुद्र के नाम एक पत्र लिखा कि इस व्यापारी का जहाज तुरंत वापस कर दिया जाय। “समुद्र के नाम पत्र” व्यापारी एक पल चौंक उठा वह हतप्रभ था। पर उसने विवशतावश महामात्य के कथनानुसार पत्र समुद्र में फेंक दिया। आश्चर्य ! महा-आश्चर्य !! कुछ ही देर बाद उसका विशाल व्यापार पोत समुद्र के बाहर सकुशल आकर किनारे लग गया।
व्यापारी इस अलौकिकता पर अभिभूत होता हुआ पुनः राजा के पास आया। राजा ने उसका आश्चर्य निवारण करते हुए कहा-”श्रेष्ठी ! इस विराट ब्रह्माँड में कहीं जड़ता नहीं है-अखिल चेतन तत्व ही व्याप्त है। जब मानव प्रकृति एवं परमेश्वर के अनुरूप जीवन जीता है तो इनकी अनंत-अनंत शक्तियों से प्रतिपल उसका संपर्क रहता है। वह देवशक्तियों का आराधक होता है देव शक्तियाँ उसकी सहायक होती हैं।”
शास्त्र वचन आज व्यापारी के समक्ष प्रत्यक्ष थे। उसने एक पल ठिठकते हुए निवेदन किया-”महाराज अब इस जहाज को आप उपहार रूप में स्वीकार करें।” राजा ने मुसकराते हुए पूछा-”श्रेष्ठी ! क्या तुम्हारे देश में किसी आपत्तिग्रस्त की सहायता करने का उपहार भी लिया जाता है ? ऐसा है तब तो निश्चय ही तुम्हारे देश में जल नहीं बरसना चाहिए।” “नहीं महाराज ! पानी खूब बरसता है।” व्यापारी ने उत्तर दिया। ‘तब वह पानी अवश्य ही उन पशु-पक्षियों के पुण्य प्रताप से बरसता है जो अपनी सेवा और उपकार के बदले कोई उपहार नहीं लेते। आपकी विपत्ति निवारण ही मेरा उपहार है जाओ और आनंद पूर्वक अपनी मातृ-भूमि के दर्शन करो।’