असुर, मनुष्य और देवता देखने में एक ही आकृति के होते हैं, अंतर उनकी प्रकृति में होता है। असुर वे हैं जो अपना छोटा स्वार्थ साधने के लिए दूसरों का बड़े सा बड़ा अहित कर सकते हैं। मनुष्य वे हैं जो अपना स्वार्थ तो साधते हैं पर उचित अनुचित का ध्यान रखते हैं। पाप से डरते हैं और नियत मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते। देव वे हैं जो अपने अधिकारों को भूलकर कर्तव्य पालन का ही स्मरण रखते हैं। अपनी शक्तियों को परमार्थ और परोपकार में अधिक व्यय करते हैं और इसी में सच्चा स्वार्थ साधन मानते हैं। असुरों के दृष्टिकोण में दुष्टता, मनुष्यों के में मर्यादा एवं देवताओं में उदारता भरी रहती है। दृष्टिकोण के इस अंतर के कारण ही उनके बुरे भले कार्यों की शृंखला सामने आती और उसी आधार पर वे निंदा प्रशंसा के पात्र बनते हैं। सद्गति और दुर्गति भी इन्हीं आधारों पर होती है।
आज असुरों का साम्राज्य चारों ओर फैला है। सोचने का तरीका यह बनता जाता है कि अपना लाभ बढ़ाने के लिए दूसरों का कितना ही बड़ा अहित क्यों न हो उसकी परवाह न करनी चाहिए और जैसे भी बने वैसे अपना स्वार्थ साध लेना चाहिए, असुर होने का यही लक्षण है। प्रस्तुत समय में जालसाजी और ठगविद्या एक प्रकार से चतुरता और बुद्धिमत्ता का अंग बनती चली जा रही है, व्यापार में धोखेबाजी का समन्वय अब एक आम बात बन रही है। कहना कुछ दिखाना कुछ देना कुछ यह तीन तरह का व्यवहार करना दुकानदार की एक आम नीति है। खाद्य पदार्थों और औषधियों तक में जो घृणित प्रकार की मिलावटें होती हैं उससे उपभोक्ताओं का स्वास्थ्य चौपट होता है तो इसकी परवाह किये बिना व्यापारी निधड़क अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। न्याय की रक्षा के लिए बने हुए न्यायालय के कर्मचारी किस प्रकार रिश्वत में अन्याय को प्रश्रय दिये हुये हैं, यह किससे छिपा है। मित्र-मित्र के बीच स्वार्थ साधन की शतरंजी चाल चली जाती रहती है। शत्रु और उदासीन को ठगना कठिन होता है, मित्र बनकर आसानी से विश्वासघात किया जा सकता है। इस दृष्टि से अब मित्रता विश्वासघात और धूर्तों की एक चाल बनती चली जा रही है। घर परिवार में भी यही नीति बरती जाती है। पिता-माता तभी तक अच्छे लगते हैं जब तक कि वे कमाते और खिलाते हैं जब वे असक्त हो जाते हैं, तो भार रूप लगते हैं उनके मरने की, खर्चे घटने की मनौती मानी जाती है।
दूसरों का धन, दूसरों का शील, सतीत्व हरण करने के लिए घात लगाये बैठे रहते हैं और जब जिसे जहाँ अवसर मिलता है अपना दाव चलाने में चूकता नहीं। दूसरे की कठिनाइयों और परिस्थितियों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने की क्षमता घटती जा रही है। यह सोचना लोग छोड़ते चले जा रहे हैं, कि दूसरों की परिस्थितियों में निष्ठुरता पनपे और मनुष्य पापी अपराधी एवं दुष्ट बनता चला जाय, तो आश्चर्य की क्या बात है।
व्यापक बुराइयों की अधिक चर्चा करने से कुछ लाभ नहीं वस्तु स्थिति को हम सब जानते ही हैं। इस चर्चा से चित्त में क्षोभ और संताप ही उत्पन्न होता है। यों भले मनुष्यों का भी अभाव नहीं है वे प्रत्येक क्षेत्र में बदनाम क्षेत्रों में भी मौजूद रहते हैं पर उनकी संख्या नगण्य है। असुरता का व्यापक विस्तार अपने कैसे कड़ुए और विषैले प्रतिफल उत्पन्न कर रहा है सो सामने प्रस्तुत ही है। सर्वत्र अशांति, असंतोष, विक्षोभ, संताप, द्वेष, क्लेश, रोग, शोक, दैन्य, अभाव एवं संघर्ष का उद्वेग भरा वातावरण मौजूद है। कहीं भी शाँति नहीं, किधर भी चैन नहीं, जो प्रगति हम करते जाते हैं, वही विपत्ति बनकर गले में फाँसी के फंसे की तरह जकड़ती चली जाती है। विज्ञान की उन्नति ने एटम युग में लाकर हमें खड़ा कर दिया है जहाँ मानव सभ्यता सर्वनाश के आधार पर खड़ी-खड़ी त्राहि-त्राहि पुकार रही है।
प्रश्न यह है कि क्या इस बढ़ती हुई असुरता को इसी रूप में बढ़ने दिया जाय, और सर्वनाश की घड़ी के लिए निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा करते रहा जाय ? अथवा स्थिति को सुधारने के लिए कुछ प्रयत्न किया जाय ? विवेक कर्तव्य, धर्म और पुरुषार्थ की चुनौती यह है कि निष्क्रियता उचित नहीं। शाँति का संतुलन बनाये रखने के लिए धर्म और कल्याण की रक्षा के लिए हमें कुछ करना ही चाहिए।
असुरता का व्यापक साम्राज्यवाद अब इतना ही चाहिए। देवत्व की ओर बढ़ने के लिए हमें मानवता को तो अपनाना ही पड़ेगा। दृष्टिकोण में इतना परिवर्तन होना तो आवश्यक ही है कि हमारे स्वार्थों की सीमा अत्यंत संकुचित न रहकर उनका क्षेत्र कुछ बढ़े और विस्तृत हो। हम तृष्णा और वासना के, लोभ और मोह के, काम और क्रोध के ही बंधनों में जकड़े न पड़े रहें वरन् धर्म और कर्तव्य का, आध्यात्मिक स्वतंत्रता का भी कुछ आस्वादन करें। बंधन से मुक्ति की ओर बढ़ने का एक ही मार्ग तो है कि संकुचित स्वार्थों की संकीर्णता की कीचड़ से अपने आपको निकालने का प्रयत्न करें। मानवता की निर्मल सुरसरि में अपने मत आवरण और विक्षेपों को धोवें और उस दिशा में कदम बढ़ायें जिधर देवत्व का मंगलमयी मलय-मारुत प्रवाहित होता है। असुरता से मानवीय चेतना को विमुख करके देवत्व की ओर उन्मुख करना यही युग की आज महती आवश्यकता है, इसी को जीवन विद्या अथवा देवत्व की ओर बढ़ना कह सकते हैं।
दृष्टिकोण का परिवर्तन ही व्यक्ति परिवर्तन कहा जाता है। बाहरी कामों, व्यवस्थाओं, गतिविधियों को, परिस्थितियों को तो बलपूर्वक भी बदला जा सकता है। भय-दंड या प्रलोभन के वशीभूत होकर लोग वह कार्य करते हैं जो वस्तुतः उन्हें करने नहीं होते। दिखावट, ढोंग, लोक लाज या दबाव से कितने ही कार्य संसार में अनिच्छा पूर्वक भी होते रहते हैं पर उनमें कोई स्थायित्व नहीं होता। सरकारी कानून, सामाजिक प्रतिबंधों का, भावुकता को उभार कर जोश आवेश में बुराइयों की रोकथाम की जा सकती है। किंतु होती वह अस्थायी ही है। बाहरी-दबाव जैसे ही कम हुआ वे दुष्प्रवृत्तियाँ उसी या वैसे ही अन्य किसी रूप में पुनः उभर आती हैं। वास्तविक उन्मूलन तो तभी संभव है जब अंतःकरण बदले हुए हृदय परिवर्तन हो और दृष्टिकोण में सुधार हो। इसी में स्थिरता भी सन्निहित है और वास्तविकता भी।
आत्मा शुद्ध स्फटिक मणि के समान है, दर्पण के सामने जो भी वस्तु आती है उसमें वैसी ही छाया दिखने लगती है। स्फटिक मणि के सामने जिस रंग की वस्तुएँ रखी होंगी वह उसी रंग की दीखने लगेंगी। आज असुरता की परिस्थितियाँ फल-फूल रहीं हैं तो मानव का स्वरूप दुष्ट, दुराचारी अज्ञानी और असुर जैसा दीख रहा है। पर जैसे ही स्थिति में परिवर्तन होगा परिस्थितियाँ मानवता, नैतिकता, धार्मिकता एवं सज्जनता के अनुकूल बनती जायेंगी। दुष्कर्म का स्थान सत्कर्म ग्रहण करेंगे, दुर्भावनाओं के स्थान पर सद्भावनाओं की स्थिति दिखाई देगी। इन्हीं परिस्थितियों में वह मानव प्राणी जो आज असुर दिखाई देता है, मानवता के उच्च आदर्शों में ओत-प्रोत होकर देवत्व की ओर तेजी से बढ़ता हुआ दिखाई देगा।
दृष्टिकोण का परिवर्तन ही सबसे बड़ा परिवर्तन है। अपनी सीमा के संकीर्ण दायरे को बढ़ा कर विशाल क्षेत्र तक विकसित करने का नाम ही विकास है। वासना और तृष्णा की क्षुद्रता की मोह-निद्रा की उपेक्षा करते हुए कर्तव्य पालन और परमार्थ की आकाँक्षाएँ जाग्रत करना जागरण है। कुविचारों और दुर्भावनाओं के काम, क्रोध, लोभ, मोह के बंधनों को तोड़ डालना इसी का नाम मुक्ति है। संतोष संयम और सच्चाई सज्जनता और शाँति की संतुलित मनोभूमि बनाये रखना यही स्वर्ग है। यह अपनी धरती स्वर्ग से श्रेष्ठ है, यह अपना मानव शरीर देवताओं से उत्तम है। यह मनुष्य जन्म ईश्वर का हमें सबसे बड़ा अनुग्रह और वरदान है। इस अलभ्य अवसर का, इस परम सौभाग्य का समुचित सदुपयोग करते हुए, वह सोचना चाहिए, जो करने योग्य है, वह सोचना चाहिए, जो सोचने योग्य है, वह चाहना चाहिए, जो चाहने योग्य है, उस मार्ग पर चलना चाहिए, जो चलने योग्य है।
हमें अपनी असुरता को देवत्व में परिणत करने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि नारकीय अंतर्द्वंद्वों और शोक संतापों से छुटकारा पाकर शाँति एवं संतोष का स्वर्गोपम सुख निरंतर उपलब्ध करते रह सकना संभव हो सके। दृष्टिकोण बदलने से जीवन बदल जाता है। असुरता देवत्व में बदल सकती है। नरक को स्वर्ग में परिणत किया जा सकता है, यदि हमारा दृष्टिकोण बदले।