समय की पहली माँग-दूरदर्शी विवेकशीलता

December 1993

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आँखों की ज्योति जब अतिशय क्षीण हो जाती है, तो मात्र निकटवर्ती चीजें ही दीख पड़ती हैं। दूर पर तो कुहासा ही छाया प्रतीत होता है। न कुछ सूझ पड़ता है न दीखता है मोतियाबिंद पड़ जाने पर भी यही स्थिति हो जाती है। लाठी के सहारे निकटवर्ती स्थिति का कुछ अनुमान लगाकर ही किसी तरह काम चलाया जाता है। छोटे बच्चों की समझ भी निकटवर्ती चमकीली वस्तुओं पर ही ललचाती और टिकती है। वे जैसे ही रेंगना शुरू करते हैं, सामने पड़ी चमकदार वस्तुओं को ही पकड़ते हैं और उनका उपयोग मुँह में डाल लेना भर समझते हैं। खिलौने, सिक्के मिर्च कीड़ा कुछ भी क्यों न हो, जो भी हाथ आता है, उसे पकड़ते और मुँह में रखते हैं। पीछे चाहे उसका परिणाम कुछ भी क्यों न भुगतना पड़े। भविष्य भी कुछ होता है और उसको ध्यान में रखा जाना चाहिए, इतनी समझ उन्हें होती भी कहाँ है ? मानसिक दृष्टि से अविकसित पगले भी तात्कालिक चंचलता भर से प्रेरित रहते हैं। आगा-पीछा उन्हें भी कुछ नहीं सूझता।

चिड़ीमार के जाल में चिड़िया एक जगह कुछ दाने पड़े देखकर ही दौड़ पड़ती हैं और जान जोखिम उठाती है। मछलियों की भी सामने का चारा देखकर टूट पड़ने पर यही दुर्गति होती है। चासनी के कढ़ाव में कूदकर मक्खियाँ भी कम नहीं पछताती। उस भूल का प्रायश्चित वे जान गँवाकर ही कर पाती हैं। यह सब अबोध स्थिति की चर्चा है। पर उन्हें क्या कहा जाय जो समझदारी का दावा करते हुए भी उसी प्रकार के आचरण करते हैं।

यदि सैनिकों के पास दूरबीन न हो, तो वे छिपे हुए शत्रु, छापामारों के हमले के शिकार बन सकते हैं। जलयानों को दूरबीन के बिना अपनी यात्रा में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। आकाश में ऊँचे उड़ने वाले पक्षी भी तेज दृष्टि होने के कारण ही जमीन पर अपनी खुराक खोज पाते हैं। पैनी दृष्टि जिसे समझदारों की भाषा में दूरदर्शिता भी कहते हैं, मनुष्य के लिए एक वरदान है। यह दूरदर्शिता ही हर मानव के लिए अभीष्ट है।

दूसरी ओर मात्र वर्तमान में ही जीती है। वह न भूतकाल के अनुभवों से कुछ शिक्षा लेती है और न उसमें भविष्य का अनुमान लगा सकने की क्षमता होती है, फलतः उनके लिए कोई उपयोगी लक्ष्य बना पाना संभव नहीं होता कि वे समय और श्रम को सुनियोजित करके कोई बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर सकें, वह तो बन ही कैसे पड़े। हवा के साथ उड़ने वाले पत्तों की तरह वे भली-बुरी परिस्थितियों के साथ उठते-गिरते, उड़ते-बिछुड़ते रहते हैं। इसे संयोग के विदूषक का एक भौंड़ा मजाक ही कहना चाहिए।

किसी जमाने में दूरदर्शिता मनुष्य की समझदारी के साथ अविच्छिन्न रूप से गुँथी हुई थी, फलतः वे सोच पाते थे कि जीवन क्षणों की बहुमूल्य संपदा के बदले कुछ ऐसा खरीदना चाहिए, जिस पर अपने को संतोष और दूसरों को प्रकाश का लाभ मिले। इस स्तर के लोगों को ही दूरदर्शी, प्रज्ञावान कहा जाता है। वे ही कुछ ऐसा कर पाते हैं जिसके लिए उन्हें चिरकाल तक सराहा जा सके।

बहुमूल्य सफलताएँ अर्जित करने वालों में से प्रत्येक को दूरदर्शिता अपनानी पड़ी है। सोचना पड़ा है कि आज के विचार और कृत्य, कल के लिए क्या परिणित-परिस्थिति उत्पन्न करेंगे, यह समझ जिन्हें होती है वे आरंभ में कष्ट सहकर भी भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाला आवश्यक मूल्य चुकाते हैं। विद्यार्थी स्नातकोत्तर कक्षा उत्तीर्ण करने तक सोलह वर्ष की एकाग्र भाव से तप-साधना करते हैं और प्रतियोगिता में बाजी मार कर ऊँचे अफसर का पद पाते हैं। किसान एक वर्ष तक खेत की मिट्टी को पसीने से सींच कर कोठे भर फसल काटता है और साथियों में सिर ऊँचा उठाकर चलता है। व्यवसायी शिल्पी, कलाकार लंबे समय तक साधनारत रहते हैं और उपयुक्त समय पर श्रेयाधिकारी बनते हैं। लंबे समय तक अखाड़े की साधना करने पर ही पहलवान को मिलने वाले पुरस्कार पाने का अवसर हाथ आता है। से प्रकाराँतर से साधना कह सकते हैं। योगीजन इसी मार्ग का अवलंबन करते और सिद्ध पुरुष बनते हैं। आध्यात्मिक अथवा भौतिक स्तर की बड़ी सफलताएँ पाने वाले मनमौजी नहीं रहे हैं, उनने भविष्य पर दृष्टि दौड़ाई है, तद्नुरूप योजना बनाई है और एकनिष्ठ भाव से अनवरत यात्रा करते हुए ऊँचे लक्ष्य तक पहुँचने की सफलता पाई है। जिन्हें सिर्फ आज ही सूझा, कल पर दृष्टि ही नहीं गई, वे घाटे में रहे हैं और उपहासास्पद बने हैं।

स्वाद-स्वाद में चटोरे लोग गरिष्ठ वस्तु अति मात्रा में खा जाते हैं और कुछ ही समय में पेट दर्द, उल्टी, दस्त आदि के शिकार बनते हैं। इन्द्रिय लिप्सा के अनेक प्रसंग सामने आते रहते हैं, उन पर आतुरता-पूर्वक आँखें मीच कर टूट पड़ने वाले शरीर और मस्तिष्क को बुरी तरह खोखला कर लेते हैं और अकाल मृत्यु के मुँह में जा घुसते हैं। चोर, लबार, ठग, अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति तात्कालिक लाभ देखते हैं और यह भूल जाते हैं कि इन कुकर्मों का देर-सबेर में इतना महंगा मूल्य चुकाना पड़ेगा, जिसे वहन करना अतिशय कष्ट साध्य होगा। अनाचारी अपनी आँखों में तो पतित होता ही है, भेद खुलते-खुलते वह हर किसी की आँख में अविश्वस्त और घृणास्पद बन जाता है। दंड व्यवस्था तक पहुँचना पड़े तो प्रताड़ना और भर्त्सना का कहर बरसता है, ऐसे व्यक्ति की योग्यताएँ भी अप्रामाणिक बन जाने पर एक कोने में धरी रह जाती हैं। एक से एक क्रिया कुशल और चतुर लोग प्रायः जेलखानों में बंद पाये जाते हैं उनके लिए भविष्य में कहीं कोई स्थान रह नहीं जाता। किसी प्रकार पेट भर लेने के अतिरिक्त और कोई नियति उनकी रह नहीं जाती। पीछे के लिए अपयश का पिटारा ही छोड़ मरते हैं। चातुर्य, कौशल और साहस भरपूर होते हुए भी दुर्गति का निमित्त कारण एक ही होता है दूरदर्शिता का अभाव। कृत्यों के परिणामों का अनुमान न लगा पाना, प्रकृति के उस नियम को भूल जाना, जिसमें जो बोया है वही काटना पड़े की कर्मफल प्रक्रिया का सुनियोजित विधान है। इस तथ्य को सही रूप में समझकर अपने लिए लक्ष्य का, दिशा का सुनियोजित निर्धारण करने वाले ही सफल जीवन बिताते हैं। भटकने वाले झाड़-झंखाड़ों में उलझते और ठोकरें खाते दिन बिताते हैं। न आत्म संतोष ही मिल पाता है न गर्व गौरव की अनुभूति ही हाथ लगती है। सच्चे मित्रों, प्रशंसकों और सहयोगियों का तो प्रायः अभाव ही बना रहता है। इस क्षति की पूर्ति हो सकना कदाचित ही किसी अन्य उपाय से संभव हो सके।

दुर्व्यसनी, अनाचारी, अंधविश्वासी वर्ग के लोगों का प्रधान दुर्गुण एक ही होता है कि सिर्फ आज की अभी की बात सोचते हैं और यह अनुमान लगा नहीं पाते कि यह विष बीज जब भयंकर विषवृक्षों के रूप में फलित होंगे तो इनकी कितनी भयावह प्रतिक्रिया का वास सहना पड़ेगा।

कर्म का फल यदि तत्काल मिल जाने का विधान ईश्वर ने रखा होता तो संभव है लोग अनाचार पर न उतरते। झूठ बोलने पर मुँह में छाले हो जाते। चोरी करने पर हाथ में लकवा मार जाता, ठगों की आकृति बिगड़ जाती तो कदाचित् कोई भी अनीति अपनाने पर उतारू न होता । पर कर्म फल तो बीज बोने पर वृक्ष बनने में समय लगने की तरह देर में मिलता है। इसी से भ्रम में भूलें हो जाती हैं और लोग ऐसे काम करने लगते हैं जिन्हें दूसरों के द्वारा अपने साथ किये जाने की कल्पना नहीं करते। सामाजिक कुरीतियाँ इसी कारण उपजीं और फैली हैं। धूमधाम की शादियाँ इसका प्रमाण हैं उस खाई को पाटने में दरिद्र और बेईमान बनने के अतिरिक्त और कोई चारा शेष नहीं रहता, फिर भी लोग मूर्खतापूर्ण होने पर भी प्रचलित परंपरा को पत्थर की लकीर मानकर अपनाये रहते हैं और अपने लिए तथा देखा-देखी अनुकरण करने वालों के लिए भारी विपत्ति खड़ी करते हैं। जाति-पाँति के आधार पर चल रही ऊँच-नीच की मनमानी ऐसी है कि जिसके कारण समाज के टुकड़े-टुकड़े होते हैं और हर टुकड़ा हर प्रकार घाटे में रहता है भिक्षा व्यवसाय भी ऐसे हैं जिसमें तथाकथित दानी के मिथ्या अहंकार और ग्रहणकर्ता की आत्महीनता से लेकर प्रपंच रहने तक की विडंबना के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता ।

मनुष्य कभी विचारशील, दूरदर्शी रहा है तब उसने सुख,शांति और प्रगति का सतयुगी वातावरण भी देखा है। अब जबकि वह हर क्षेत्र में अनीति अपनाकर सर्वनाश के बीज बो रहा है और अगणित समस्याओं, विपत्तियों को न्यौता बुला रहा है। इस ना समझी को किस प्रकार प्रगति का नाम दिया जाय। कैसे माना जाय कि पहले की अपेक्षा मनुष्य अधिक संपन्न, शिक्षित, विज्ञानी, कलाकार आदि बनकर उत्कर्ष की दिशा में आगे बढ़ा है।

इन दिनों सबसे बड़ी सामयिक आवश्यकता एक ही है कि दिग्भ्रांत चिंतन को उलट कर सीधा किया जाय। दिशा भूल को एक ने नहीं अपने-अपने ढंग से, अपने-अपने क्षेत्र में अधिकांश ने अपनाया है। इसके लिए व्यापक विचार क्राँति की आवश्यकता है। हर हाथ में यह कसौटी देनी होगी कि वह औचित्य अनौचित्य की कसौटी पर खरा उतरे, उसी को अपनाये। हर मनुष्य को ऐसी टार्च चाहिए ताकि इस घोर अंधियारी की अमावस्या में वह सही वस्तु को सही रूप से देख और अपना सके।

प्रस्तुत अगणित विपत्तियों अवांछनीयताओं के निराकरण का इन दिनों एक ही उपाय है-व्यापक विचार क्राँति का नियोजन यदि इसे संपन्न किया जा सका तो समझना चाहिए कि युग परिवर्तन का सुनिश्चित आधार बना और उज्ज्वल भविष्य निकट आया।


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