सेवा, बिना किसी शर्त की

December 1993

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‘यह प्रयाग जाना चाहता है’ उस स्त्री से जो एक साथ महाराज के चरणों में मस्तक रखा। यह कुबड़ा, जो मेरी सहायता के बिना खाट से उठ भी नहीं पाता और मेरे दो छोटे बच्चे हैं। मैं उन्हें किस पर छोड़ जाऊँ ? कौन पालन करेगा उनका ? वह रो रही थी। हिचकियाँ बँध गई थी उसकी।

उस स्त्री का पति एक लाठी के सहारे दूर खड़ा था कमर झुकाए। उसके नेत्रों में जल था और थी अपार श्रद्धा। वह अपनी स्त्री की भाँति धृष्ट नहीं था, जो भक्त मंडली को चीरती महाराज तक चली गयी थी। उसने सबके पीछे बड़े कष्ट से बैठकर पृथ्वी पर सिर रखा था और फिर किसी प्रकार लाठी पर बल देकर खड़ा हो गया था।

उसे कूबड़ है। सीधा खड़े होने में असमर्थ है। पैर के घुटनों और कमर में गठिया का भयंकर दर्द है। प्रातः जब पत्नी उसकी कमर और पैर कुछ देर तक दबाती है, तब कहीं घंटे, डेढ़ घंटे दिन चढ़े किसी प्रकार उठ पाता है। स्त्री जितनी ही वाणी की तेज है, उतनी ही सेवा परायण भी। हृदय स्वच्छ है उसका। जो मुँह में आवे, बड़बड़ाती रहती है, किंतु यदि किसी दिन दर्द बढ़ जाए, वह चीखने लगे तो रात दिन एक कर देती है। गाँव के सारे वैद्यों, वृद्धों, के घर दौड़ आती है। कभी तेल मलती है, कभी सेंकती है और जब कुछ वश नहीं चलता तो उसके पैरों पर सिर रखकर फूट-फूट कर रोती है। वह समझाती है, और उस समय भी खरी, खोटी सुनाने से बाज नहीं आती। ‘तूने ही तो दही खाली, तूने मना करने पर चोरी से मूली खायी होगी। जरूर कुछ खाया होगा। बड़ा चटोरा है तू ! तू मुझे मार डालेगा।’ वह रोती भी जाती है। पति की शपथों पर उसे विश्वास नहीं।

थोड़ी सी उसकी जमीन है। किसी न किसी मजदूर को लेकर स्त्री खेतों में लगी रहती है। मूली-गोभी, कुम्हड़े, लौकी कोई न कोई शाक-भाजी उसके खेत में बारहों महीने मिल जाती है। पति के बदन की मालिश करके चौँक बरतन, रसोई बच्चों की देखभाल और पति को स्नानादि कराके भी वह खेतों के लिए समय निकाल लेती है। मजदूरों को डाँट फटकार बकती है। वही एक ऐसी सब्जी वाली है जो शाम को नगर में सब्जी बेचने जाती है और चिराग जले लौटती है। बिक्री के पैसे उसने कभी अपने पास नहीं रखे। आते ही पति को गिना देती है। माँग लेती है उससे व्यय की आवश्यकता पड़ने पर। हिसाब माँगना उसे नहीं आता, वैसे पति के पास पैसे न होने से वह अस्वीकार करे माँगने पर तो झगड़ भी लेती है। उसे चटोरा कहकर डाँट भी देती है। गाँव में प्रसिद्ध झगड़ालू है। किसी ने उसके खेत में पैर रखा, किसी की गाय या बकरी बाड़ के समीप पहुँची, आसमान सिर पर उठा लेगी।

‘एक बार प्रयाग जी में गंगा-यमुना में गोता लगा लूँ।’ कुबड़े को बहुत दिनों से धुन है। वह जब इसकी चर्चा करती है, पत्नी रोते-रोते आँख लाल कर लेती है। खूब खरी-खोटी सुनाती है उसे ‘जीवन सफल हो जाय। फिर मर भी तो क्या हानि।’ उसने धीरे-धीरे पचास रुपये एकत्र कर लिए हैं। अब वह रुक नहीं सकता। गाँव का लल्लू नाई जा रहा है। झम्मन कहार जा रहा है। अलगू पाँडे जा रहे हैं। वह उनके साथ अवश्य जाएगा। उसने पत्नी को यहाँ तक कह दिया कि वह अपनी कमाई के रुपये न ले जाने देना चाहे तो ये पचास रुपये भी ले ले। वह माँगता चला जायेगा लेकिन इस साल तो वह जाकर रहेगा।

‘मर जायेगा यह रोगी कुबड़ा उसकी सेवा के बिना। वह अपने छोटे बच्चों, खेत-बारी को छोड़कर कैसे जाय ? कौन देखेगा, यह सब ? बच्चे बिलबिलायेंगे। खेत नष्ट हो जायेगा।’ जब कई दिन लगातार रोने और झगड़ने का भी पति पर प्रभाव न हुआ तो किसी प्रकार समझा बुझाकर वह उसे एकनाथ महाराज के पास लायी । ‘महाराज समर्थ योगी हैं। उन्होंने गंगोत्री से रामेश्वर पर चढ़ाने के लिए लाये जाने वाले जल को प्यासे गधे को पिला दिया। वहीं पर भगवान रामेश्वर प्रकट हो गये। हो सकता है वह दया करें तो इसे किसी प्रकार रोक दें। कुछ समझा दें या उसकी बुद्धि बदल दें।

‘एकनाथ महाराज को भी पता नहीं क्या सूझी उस दिन। वे महात्मा हैं, साधु हैं। उन्हें चाहिए तो था कि समझा-बुझाकर पति को तीर्थ भेजने पर इसको राजी कर देते। उन्होंने तो उसे अपने पास रख लिया। भला यह भी कोई आज्ञा है-एक मास तक यहाँ आना मत। उन्होंने सोचा होगा, अच्छा मजदूर मिला। एक महीने तो बिना मजदूरी दिए रोटी पर काम करा लो। वह नहीं मानेगी इस आज्ञा को। पता नहीं उसके रोगी पति को वहाँ क्या-क्या करना पड़ता होगा। कितना कष्ट होगा उसे। वह देख आये तो क्या हानि ? नित्य वह जाने का संकल्प करती है। जा नहीं पाती। ‘कहीं पति का कोई अकल्याण न हो।’

रात दिन सोचा करती है वह पति के विषय में । ‘पता नहीं क्या करता होगा ? कौन सबेरे उसकी टाँग’ और कमर मलता होगा ? कौन देता होगा उसे नहाने का गर्म जल ? पता नहीं उसे भर पेट भोजन भी मिलता होगा या नहीं बड़ा चटोरा है वह । बिना भाजी के रोटी नहीं उतरती उसके गले के नीचे। और से भी ज्यादा लजीला है। मुझसे ही कुछ नहीं माँगता था तो वहाँ किससे माँगेगा। सोने को खाट भी तो नहीं मिलती होगी उसे।’ रात में जब बच्चे सो जाते हैं, वह खाट पर पड़े-पड़े रोया करती है।

पता नहीं उसे क्या सूझा था कि एकनाथ महाराज के पास ले गयी थी उसे। वह प्रयाग ही तो जाना चाहता कोई बुरा काम तो नहीं करना चाहता। उसी के बहाने गोता लगाने को मिल जायेगा गंगा जी में। ठीक ही तो कहता है, वह जीवन का क्या ठिकाना। उसकी एक लालसा को भी पूरी नहीं कर सकती वह। व्यर्थ है उसका पत्नी होना।’ अपने दुःख का पार नहीं पाती वह आजकल।

वह पता लगाती रहती है कि गाँव से कौन कब पैठण जा रहा है। जाने से पहले वह खूब समझा देती है कि दया करके उसके पति का समाचार वह अवश्य लावे। जाने वाले के घर एक टोकरी बैंगन या सेम पहुँचा आती है। उमड़ पड़ती है उसकी उदारता। महाराज के लिए छाँट-छाँट कर फूल गोभी के भेजती है और प्रार्थना करने को बार-बार सचेत करती है जाने वाले को कि महाराज उसके रोगी पति पर दया रखें। ध्यान रखें उसका। बड़ा शर्मीला है उसका पति।

‘वह कहता ही नहीं। कष्ट उसे होगा ही। प्रत्येक लौटने वाले से संदेश-समाचार सुनते जाती है। उसे कभी इस बात पर विश्वास नहीं होता कि उसका पति बहुत प्रसन्न है। महाराज की उस पर बड़ी कृपा है। मोटा हो गया है वह पहले से। उसे लगता है यात्री उसका उपहास करते हैं या उसका पति उसे बहलाने के लिए अथवा संकोचवश झूठे समाचार भेजता है।

एक महीना जैसे एक युग की तरह बीता। एक महीना पूरा होने पर गोभी-मटर का बड़ा सा टोकरा लिए श्री एकनाथ महाराज के चरणों में लायी थी। टोकरा सामने रख महाराज के सामने पृथ्वी पर सिर रखा उसने। अब तू प्रयाग चला जाने दे इसे। आशीष के स्वरों में महाराज ने पास खड़े उसके पति की ओर देखकर हँसते हुए कहा।

मैं भी तो जाऊँगी प्रभु !’ कहने को तो कह दिया। किन्तु पति की ओर दृष्टि पड़ते ही हक्की-बक्की हो गयी। उसका कुबड़ा पति सीधे खड़ा है। कूबड़ का पता नहीं और बड़ा स्वस्थ प्रसन्न लगता है वह। वह मूर्ति की भाँति गुम-सुम देखती रही। नेत्रों के प्रवाह ही कहते थे कि वह आनंद के आवेग में मरी नहीं-जीवित है अभी।

उसके पति ने एकनाथ महाराज के चरणों पर मस्तक रखा और तब उसने भी अपने को सँभाल कर फिर सिर टेका पृथ्वी पर पति के साथ ही।

अच्छा तो है, अब तुम दोनोँ तीर्थ कर आओ ! ‘महाराज ने हँसते हुए आदेश दिया।’

‘मेरा प्रयाग तो गुरु चरणों में है। पुरुष ने दोनों पैर पकड़े संत के। जो सब समय और सब कहीं श्रद्धालु शिष्य को सुलभ हैं। मैं अब इन्हें ले जाकर एक अपने घर को पवित्र किये बिना नहीं मानता।’ बड़ा श्रद्धा भरा था यह निमंत्रण।

‘महाराज अपने घर पधारेंगे।’ वह जैसे आनंद से पागल हो जायेगी । बिना यह देखे कि वहाँ एक भीड़ में खड़ी है वह पति के कान के पास मुँह ले जाकर फुसफुसाने लगी ‘तुम्हारे पचास रुपये मैंने सँभाल कर रखे हैं और एक महीने में पचास और एकत्र कर लिए हैं। संकोच मत करो महाराज से आग्रह करने में।

‘तुमने जिस परिश्रम और आदर के साथ पूरे महीने भर मेरी सेवा की है, उसका पुरस्कार देना मेरी शक्ति के बाहर है। मैं तुम्हारा अनुरोध टाल नहीं सकता। तुम्हारी पत्नी ही बतावेगी कि मैं कब उसके द्वार पहुँचूँ।

जी चाहता था कि कह दे वह ‘महाराज चले ही चलें अभी साथ ! ‘लेकिन वह मूर्ख नहीं। महाराज का क्या, अभी उठकर चल देंगे। क्या करेगी वह। गेहूँ पीसना होगा, घी मँगाना होगा और आस-पास के गाँव में निमंत्रण देना होगा। वह बड़ी धूमधाम से महाराज का स्वागत करेगी। ‘एकादशी प्रभु वहीं करें और द्वादशी की जूठन से कृतार्थ करें हमें ! चतुरता पूर्वक दो दिन का समय माँगा उसने। दुस्साध्य दुस्साहस

कुबड़ा नाई पास खड़ा था वहीं।

ईर्ष्या से जला जा रहा था। ‘यह कुबड़ा महीने भर सेवा करके कूबड़ और गठिया से छुटकारा पा गया और महाराज उसके घर जाना स्वीकार कर चुके, किंतु वह नित्य महाराज के पैर दबाकर अपने कूबड़ से छुट्टी नहीं पा सका। अब कौन उसे बताये कि गुरु की सेवा आदर एवं श्रद्धा से करने से सब कुछ दे देती है। सारे क्लेशों का नाष कर देती है। वह तो उन्हें गुरु भी नहीं स्वीकार करता-पैर दबाता है तो इसलिए कि अन्न पाता है उसके बदले।


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