यहाँ शुभ भी है, अशुभ भी

December 1993

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संसार वस्तुतः है क्या ? मिथ्या ? भ्रम , या सत्य ? यदि इसे सत्य माना जाय, तो वह तो निरपेक्ष और अपरिवर्तनशील है। उसका स्वरूप सदा एक-सा व स्थिर होता है, पर यहाँ जो कुछ दिखाई पड़ता है, वह न स्थिर है, न स्थायी। आज कुछ तो कल कुछ है। सब बदलता रहता है। फिर इसे सत् कैसे माना जाय ? असत् स्वीकारने की जब बारी आती है, तो असमंजस यह उठ खड़ा होता है कि आँखों को प्रत्यक्ष भासने वाला दृश्य मिथ्या कैसे हो सकता है ?

अंतर को अधिक स्पष्टता पूर्वक समझना हो, तो कोशिका-विज्ञान का सहारा लिया जा सकता है। विज्ञान कहता है कि प्राणी और पादप असंख्य कोशिकाओं के मिलने से बनते हैं, किंतु नंगी आँखें उन्हें कहाँ देख पाती हैं ? जो देखती हैं, वह वनस्पतियों में वल्कल और काष्ठ जैसी संरचना होती है एवं जंतुओं में अस्थि, माँस, मज्जा। मूल घटक हर हालत में अदृश्य ही बने रहते हैं, पर इन्हीं को जब सूक्ष्मदर्शी यंत्र के माध्यम से देखा जाता है, तो कोशिकाएं हस्तामलकवत् स्पष्ट हो जाती हैं। न सिर्फ कोशिकाएं, वरन् उसकी भीतरी संरचना भी प्रत्यक्ष दीखने लगती है। अब यदि इन्हें और अधिक शक्तिशाली इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप से देखा जाय, तो बनावट कुछ और ही दिखाई पड़ती है। यहाँ कम्पाउण्ड माइक्रोस्कोप में जो कुछ देखा गया, यहाँ वह सब बदला-बदला दिखाई पड़ता है। यदि इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से भी अधिक अभिवर्धन-सामर्थ्य वाला कोई यंत्र बना लिया जाय तो संभव है कोशिका-रचना संबंधी वह कुछ भिन्न ही रहस्य उद्घाटित करे। इसी प्रकार जैसे-जैसे अधिक शक्तिशाली उपकरण विकसित होते जायेंगे, पिछले तथ्य बदलते जायेंगे। यह क्रम सतत् जारी रहेगा। इसका कोई अंत नहीं। ऐसी स्थिति में सत्य-असत्य का निर्णय कर पाना असंभव है। यदि प्रथम को सत्य माना जाय तो बाद वाले तथ्य के प्रकट होने पर उसे भ्रम कहना पड़ेगा। फिर और आगे के रहस्योद्घाटन होने पर एक समय का स्थापित सत्य भ्राँति सिद्ध हो जाता है। यह शृंखला कभी रुकने वाली नहीं।

वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के अपनी धुरी पर एक संपूर्ण चक्कर के आधार पर रात-दिन को बारह-बारह घंटों में विभक्त किया और इन्हें बताने वाली 12 घंटे की घड़ियों का निर्माण किया, ताकि रात अथवा दिन में समय का अनुमान लगाया जा सके अथवा रात कितनी बाकी है और दिन कितना चढ़ गया, इसका अंदाज मिल सके। अपने यहाँ रात-दिन करीब-करीब बराबर अवधि के होते हैं। गर्मियों के दो-एक घंटे बड़े दिन और सर्दियों की करीब इतनी ही बड़ी रात के न्यून अंतराल को छोड़ दिया जाय, तो अवधि वर्ष भर दोनों की लगभग बराबर ही कही जायेगी, किंतु इंग्लैण्ड में गर्मियों में जब रात के ग्यारह बजते हैं, तब भी सूर्य आकाश में चमकता रहता है। नार्वे ओर फिनलैण्ड जैसे देशों में तो स्थिति और भी विलक्षण है। वहाँ के कुछ हिस्सों में तीन महीने की रात और रात तीन महीने के दिन होते हैं, अर्थात् जब घड़ियाँ दिन बताती हैं, तो भी वहाँ रात होती है और दिन की लंबी अवधि में जब रात आती है, तो भी वहाँ दिन का प्रकाश बना रहता है। अब सत्य किसे माना जाय ? प्रत्यक्ष दृश्य को ? या घड़ी को ? घड़ी को असत्य भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह पृथ्वी की उस विशेषता पर आधारित है, जिसके कारण पृथ्वी 24 घंटे में एक बार पूरी तरह अपनी कील पर घूम जाती है, और जो रात-दिन के लिए जिम्मेदार होती है।

ऐसे ही कितने ही उदाहरण दिये जा सकते हैं, जिसमें सत्य-असत्य का निर्णय कठिन होता है। एक छोटी रेखा सीधी है या कुछ गोलाई लिए हुए यह कहना मुश्किल होता है, क्योंकि वह रेखा एक बड़े वृत्त का छोटा हिस्सा हो सकती है। इस स्थिति में वह गोलाई युक्त होगी, पर आँखों को वह सीधी ही दिखाई पड़ती है। पृथ्वी घूम रही है, किंतु वह हमें स्थिर प्रतीत होती है। जबकि सूर्य स्थिर है, परंतु इंद्रियों को वह घूमता नजर आता है। यह प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हैं। इन्हें असत्य कैसे माना जाय ? ऐसे ही सुख-दुःख, जीवन-मरण, भला-बुरा, धर्म-अधर्म, घृणा-प्रेम जैसे कितने ही प्रसंग हैं, जहाँ शुभ-अशुभ के निर्णय में बुद्धि धोखा खाती है। देखा जाता है कि एक बात या वस्तु किसी को सुख पहुँचाती है, तो दूसरे ही पल किसी दूसरे के लिए वह दुःख का कारण बन जाती है। फिर उसे सुखकारक कहना चाहिए या दुःखकारक बताना दुष्कर है। अग्नि व्यक्ति को जला देती है, पर वही भूख से तड़पते प्राण त्यागते व्यक्ति के लिए भोजन भी पका सकती है। एक स्थान पर वह मृत्युकारक बन जाती है, तो दूसरी जगह जीवन-रक्षक। उसकी वास्तविक सत्ता कैसी है-जीवनदायी ? या प्राणहारी ?

उत्तर वेदाँत देता है। वह कहता है कि यह संसार न तो दुःखदायी है न सुखदायी-न जीवनदायी न प्राणहारी-न शुभ है, न अशुभ, वरन् दोनों का सम्मिश्रण है। यहाँ शुभ भी है, अशुभ भी। दुःख भी है और सुख भी। दोनों के परिमाणों में न्यूनाधिकता हो सकती है, पर पूर्ण शुभ अथवा पूर्ण अशुभ-पूर्ण सत्य या पूर्ण असत्य की कल्पना नहीं की जा सकती। यह वास्तविकता से परे है। वेदाँत ने इसी को ‘माया’ अथवा ‘मिथ्या’ कहा है।

परस्पर विपरीत और विरोधी भाव ही माया है। इससे मुक्ति का एकमात्र मार्ग यही है कि हम अपनी दृष्टि सदा खुली रखें और बदली परिस्थितियों में उत्कृष्टतावादी उपयोगिता के आधार पर श्रेष्ठतम सत्य को अपना कर अपनी रीति-नीति, आचार-विचार में आवश्यक फेर-बदल के लिए तैयार रहें। निरपेक्ष सत्य की ओर अग्रसर होने का यही एक मात्र रास्ता है।


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