तपश्चर्या द्वारा दिव्य सामर्थ्यों का उन्नयन

December 1993

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अध्यात्म साधना में दिव्य-शक्तियों के उन्नयन के लिए विविध विधि तपश्चर्या को प्रमुखता दी गयी है। लौकिक जीवन हो या आध्यात्मिक-पुरुषार्थ, श्रम, साहस, मनोयोग ही प्रगतिशील बनाते हैं। तप ही संपूर्ण प्रगति का आधार है। देवताओं के वरदान तपस्वियों को ही सुलभ होते हैं। मनुष्य की अंतर्निहित शक्तियाँ तपस्या द्वारा ही प्रकाशित होती हैं। समुद्र में भरे रत्न गोताखोर ही ढूँढ़ पाते हैं। कठोर पुरुषार्थ द्वारा समुद्र मंथन किया गया, तभी अमूल्य चौदह रत्न प्राप्त हो सके। देवताओं को तपस्या द्वारा ही गौरवशाली पद प्राप्त हुए। भौतिक उन्नति के लिए प्रचंड पुरुषार्थ, अखंड मनोयोग, अनवरत श्रम और असीम साहस की आवश्यकता है। आध्यात्मिक प्रगति के लिए तो और भी अधिक मूल्य चुकाना ही पड़ता है। भारतीय धर्मशास्त्र एवं पुराणों में असंख्य आख्यान तप साधना की महत्ता के भरे पड़े हैं। ऐतिहासिक महामानवों, ऋषियों, तत्वदर्शियों, देवदूतों की प्रसिद्धि और सिद्धि का आधार तप का प्रकाश ही रहा है। तप द्वारा ही आध्यात्मिक शक्तियाँ और सिद्धियाँ आज तक उपलब्ध होती आई हैं और भविष्य में भी वही एकमेव मार्ग रहने वाला है।

पार्वती ने शिव को पति रूप में वरण करने के लिए कठोर तप किया था। सौर-मंडलों का केन्द्र बिंदु बनने के लिए ध्रुव द्वारा की गयी तपस्या प्रख्यात है। च्यवन पत्नी सुकन्या ने तप करके अश्विनी कुमारों को प्रसन्न किया था और उनने आकर उन्हें वृद्धावस्था तथा नेत्रान्धता से मुक्ति दिलाई थी। ऋषियों में से प्रत्येक को तपस्यारत रहना पड़ा है और उसी से उपलब्ध सामर्थ्य द्वारा लोकहित के अनेक प्रयोजनों को सफल बना सकना संभव किया है। इसी क्षेत्र में समुन्नत स्तर के लोग देवता बने हैं। इससे पूर्व वे भी सामान्य स्तर के मनुष्य ही थे।

दैत्यों की विकराल शक्तियों का स्रोत भी तप−साधना ही रहा है। वे अपने अंतराल को उत्कृष्ट न बना सके और भौतिक स्तर की महत्वाकांक्षाएं सँजोये रहे। उनके तद्नुरूप ही वरदान पाये और अपने पुरुषार्थों के निमित्त अभीष्ट वरदान पाये। इस वर्ग के रावण, कुँभकरण, हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर, महिषासुर आदि के नाम प्रसिद्ध हैं। शक्तियाँ उनमें भी अकूत थीं, पर चूक दिशा निर्धारण में हुई। फलतः भस्मासुर जैसे दैत्य वरदान देने वाले शिव-पार्वती पर ही अपना जोर आजमाने लगे। दुर्वासा तपस्वियों में अग्रणी थे, परन्तु क्रोध पर संयम न रख पाने के कारण अंबरीष, शकुन्तला आदि को तनिक-तनिक सी बातों पर शाप देते फिर फलतः उनकी तपस्या निरर्थक ही नहीं गयी, किंतु बदनाम भी होती रही।

मानवी सत्ता में बीज रूप से सभी उच्चस्तरीय शक्ति स्रोतों का समावेश है। तपश्चर्या द्वारा उन्हीं को बीज से वृक्ष बनने जैसी सफलतायें उपलब्ध होती हैं। विद्युत उत्पादन के यंत्र-जनरेटर ही शक्ति का उत्पादन करते हैं। उन्हीं के द्वारा अनेक भले-बुरे प्रयोजन सिद्ध होते हैं। बिजली की शक्ति से ही ट्यूबवैल चलते और हजारों हेक्टेयर जमीन सींचते हैं। वहीं बिजली श्मशान घाटों में बने विद्युत शवदाहों द्वारा मुर्दों का भी मिनटों में दाह-संस्कार कर देती है। तार लीक करने लगे तो अग्निकाँड होने तथा छू जाने पर प्राण घातक झटका लगने का भी डर रहता है।

शक्ति स्रोत यों ब्रह्माँडव्यापी भी हैं, पर उनका निकटतम माध्यम अपने भीतर ही है। जिस दैवी या दानवी शक्ति को बलिष्ठ बनाना होता है, उसके लिए अन्यत्र भागने की जरूरत नहीं पड़ती। अपने ही खेत में उसे उगाना पड़ता है। दूरवर्ती कहीं अन्यत्र बीज बोने पर न तो उसकी देखभाल हो पाती है और न उस पर अपना पूर्ण अधिकार ही बनता है। अपने खेत में उगाई और अपने द्वारा सींची फसल ही अपने गोदाम भरती है। तपस्या का सीधा सा अर्थ इतना ही है कि ब्रह्माँडव्यापी महान क्षमताओं में से जिसे विकसित करना हो उसे अपने अंतराल में ढूँढ़ा, कुरेदा, और जगाया जाय। अपने ही अधिकार क्षेत्र को निकालते हैं, उन पर अपना अधिकार होता है। अन्यत्र भी वे खदानें हो सकती हैं, पर उन पर अपना अधिकार कहाँ बनता है ? अपने ही कुएँ के पानी से जिंदगी काटती है। बाहर की प्याऊ पर तो कभी-कभी ही प्यास बुझती है।

देखने में मानवी काया हाड़-माँस का मल मूत्र का पोटला मात्र है। उसके अवयवों का सारतत्व निकाला जाय तो कैल्शियम, पोटैशियम, लोहा, फास्फोरस, चर्बी, पानी आदि का मूल्य इस महंगाई के जमाने में चार-छः रुपये बैठता है। जबकि मरे जानवरों का ढाँचा ही सौ रुपये के लगभग का मसाला दे जाता है। प्रत्यक्षतः मनुष्य कोल्हू के बैल की तरह चलता, गधे की तरह लदता हुआ रोता-रुलाता मौत के दिन पूरे करता है। पेट की भूख और प्रजनन की सनक पूरी करते रहना ही मुश्किल से बन पाता है। इतना होते हुए भी यदि गहराई में उतरा जाय तो गाँधी जी जैसे 96 पौण्ड भारी और पाँच फुट दो इंच ऊँचे दुर्बलकाय व्यक्ति भी लाखों व्यक्ति उत्पन्न कर सकते हैं और ब्रिटिश गवर्नमेंट जैसे शक्तिशाली से टक्कर मारकर उसे पलायन करने के लिए विवश कर सकते हैं। विनोबा जैसा व्यक्ति भूदान से लाखों एकड़ भूमि उपलब्ध कर सकते हैं और सर्वोदय आँदोलन को कहीं से कहीं पहुँचा सकते हैं। यह उनकी अंतरंग क्षमताओं का प्रभाव है। शारीरिक या आर्थिक दृष्टि से तो वे गये-गुजरे लोगों की श्रेणी में ही आते हैं। उनने अंतराल में समाहित अभूत निर्झरों को खीजा और चरम सीमा के प्रभावशाली बन गये।

मानवी सत्ता इतनी रहस्यमयी है कि उसे भली-भाँति समझ पाना अति कठिन है। महाभारत में महर्षि व्यास ने एक अत्यंत गुप्त रहस्य प्रकट करते हुए लिखा है-गुह्यंबूत्यातददं ब्रवीमि। नहि श्रेष्ठतरं हि किंचित। अर्थात् एक गुप्त रहस्य बताता हूँ कि मनुष्य से बढ़कर इस संसार में और कुछ नहीं है। जिन देवताओं से मनुष्य तरह-तरह के वरदान पाने की मनुहार करता है, वे वस्तुतः ईश्वर का अविनाशी अंश होने के कारण उसकी आत्मा के इसी देव मंदिर में बीज रूप में विद्यमान हैं। शिव-संहिता 219-2 में उल्लेख है-’इसी शरीर में सप्त द्वीपों सहित सुमेरु पर्वत, नदियाँ, पर्वत शिखर, क्षेत्र, क्षेत्रपाल, ऋषि-मुनि, समस्त गृह-नक्षत्र, पुण्य तीर्थ, पीठ और उन पीठों के देवता सभी विद्यमान हैं। आत्म सत्ता में सन्निहित-विश्व ब्रह्माँड की इन समस्त विभूतियों को यदि योग और तप साधना द्वारा जगाया जा सके तो जीवात्मा को देवात्मा और परमात्मा बनने का अवसर मिल सकता है।

संसार के महामानवों ने अपने व्यक्तित्व का विज्ञान पक्ष विकसित किया है। प्रामाणिक और मनस्वी बने हैं और ऐसे कामों में हाथ डाला है जिनके साथ लोक मंगल की संभावना सुनिश्चित रूप से जुड़ी हुई रही है। इन्हीं कारणों से उनकी प्रतिभा का उत्कृष्ट स्तर उभरा और अगणित जनों का विश्वास, स्नेह, सहयोग प्राप्त करके इतने महत्वपूर्ण कार्य कर सके जिन्हें अति मानवी कहकर आश्चर्य किया जाता है।

यह जीवन साधना की बहिरंग और दृश्यमान तपश्चर्या हुई। इससे गहरी और अगली दूसरी है। इसमें अंतरंग के शक्ति स्रोतों को अंतर्मुखी होकर खोजना पड़ता है और उस क्षेत्र में दबे हुए देव वैभव को उसी प्रकार ढूँढ़ निकाला जाता है जैसे कोयला खदानों से हीरे, गहरे समुद्र से मोती एवं गहरी बोरिंग करके खनिज तेलों को ऊपर खींच निकाला जाता है। यह अपनी अनोखी वैज्ञानिक प्रक्रिया है। आत्म विज्ञान के इन स्रोतों को कोई बिरले ही जानते हैं कि अपने भीतर कितनी प्रचंड चेतन क्षमता भरी पड़ी है। उनकी चर्चा तो षट्चक्र बेधन, पंचकोश, अनावरण, कुँडलिनी, जागरण सहस्रार-विकिरण एवं ऋषियों के रूप में विवेचन होता रहता है। अतीन्द्रिय क्षमताओं और अलौकिक शाप-वरदान जैसे कृत्यों का ऊहापोह भी उसी संदर्भ में होता रहता है।

तपस्या का प्रसंग इससे भी ऊँचा है। उसमें अदृश्य शक्तियों को प्रत्यक्ष देव रूप में सामने प्रकट होने के लिए बाधित किया जाता है और उनके मुँह से वरदान माँगने के लिए कहलाया जाता है। मनोरथ प्रकट करने पर ‘तथास्तु’ ऐसा ही हो कहने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहता। उन्हें ऐसे वरदान भी देने पड़ते हैं जो उनकी इच्छा पर नहीं, साधक की कामना के अनुरूप होते हैं। तपस्या का यह प्रभाव इतिहास पुराणों के पन्ने-पन्ने पर अंकित देखा जा सकता है।

भगवान सबसे बड़े हैं, पर स्वयंभू मनु और शतरूपा रानी ने तप करके भगवान को अपनी गोदी में खेलने वाला बच्चा देखने की इच्छा की और उसे पूर्ण करने में सफलता पायी। ब्रह्मा जी ने तप करके गायत्री और सावित्री को आत्मिकी और भौतिकी को अपनी सहचरी बनाने में सफलता प्राप्त की और सृष्टि संरचना में समर्थ हुए। सूर्य तपता है और अपनी संपदा से प्राणि समुदाय को सौरमंडल के सदस्यों को चेतना एवं गति प्रदान करता है। शिव कैलाश शिखर पर बैठकर, विष्णु शेष शैय्या पर आसन जमाकर क्या करते रहते हैं ? इसे तत्वज्ञानी एक शब्द में कह सकते हैं कि- ’तप’। इसी आधार पर सृष्टि की उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्धन की कार्यपद्धति अपने क्रम से चलती है।

विश्वामित्र आजीवन तपस्यारत रहे। उनकी तपश्चर्या का एक प्रयोजन नयी दुनिया का निर्माण भी था। हरिश्चंद्र को उन्होंने उसी के लिए साधन जुटाने का आदेश दिया था। भगीरथ की तपस्या धरती की प्यास बुझाने और नरक में जलते पितरों का उद्धार करने के लिए थी। दधीचि ने अपने अस्थियों को वज्र बना सकने योग्य बनाने में समर्थ करने के लिए कठोर तप किया था। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर के आँदोलन परक कार्यक्रम ही नहीं थे, उसे सफल बनाने के लिए उन्होंने व्यक्तिगत जीवन में कठोर तपश्चर्याएं भी की थीं।

तपश्चर्या निजी लाभ और ख्याति के लिए भी हो सकती है और उदात्त दृष्टिकोण को अपनाकर लोककल्याण एवं सामयिक समस्याओं के समाधान के लिए भी। इसका पुरातन इतिहास तो है ही, साथ ही आधुनिक सच्चे योगाभ्यासियों का भी एक बड़ा समुदाय अपनी इन्हीं आँखों के सामने से गुजरा है। पांडिचेरी के अरविंद घोष की तपश्चर्या ऐसी ही थी। वे देश को स्वतंत्र देखना चाहते थे। इसके लिए छात्रावस्था से लेकर राजाओं का दरवाजा खटखटाने और नेशनल कालेज में विद्यार्थी बुलाने से लेकर बम पार्टी गठित करने तक के कार्यों से जब कुछ बात बनती न दीखी तो वे एकाँत साधना में तल्लीन हो गये और वातावरण को इतना गरम कर दिया कि उन्हीं दिनों एक से बढ़कर एक महामानव प्रचंड चक्रवातों की तरह उत्पन्न हुए और उन्होंने वह कर दिखाया जो अद्भुत और अनुपम था। प्रसिद्ध नेताओं में अनेकों नाम हैं, पर वैसे न तो इसके पहले उत्पन्न हुए थे और न पीछे ही विनिर्मित खड़े हो पाये हैं। अरविंद की तरह ही महर्षि रमण की तपश्चर्या भी थी जिसने सारे देश के जन समुदाय को और विदेशी मूर्धन्यों को भी प्रभावित किया। चाणक्य, समर्थ गुरु रामदास, कबीर जैसे महामानवों के शिष्यों की कृतियाँ या उनके जीवन की घटनायें ही लोगों को मालूम हैं। यह बात विरलों को ही ज्ञात है कि देश का कायाकल्प करने के लिए निजी जीवन में उनने क्या-क्या कठिन तपस्यायें की थीं।

निश्चय ही तप की महिमा और महत्ता विलक्षण और अद्वितीय है। यही वह आधार है जिसका आश्रय लेकर मनुष्य नर से नारायण बनता है। पुरुष से पुरुषोत्तम और आत्मा से परमात्मा बनने का यही मार्ग है।


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