मर जाना पसंद (kahani)

December 1993

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कर्मनिष्ठा में विश्वास रखने वाले आयु के बंधन में नहीं बँधते। वे सतत् उत्साह से भरे रह कर्तव्यपालन में लगे रहते हैं।

अमेरिका के प्रसिद्ध न्यायाधीश होम्स जब सेवा निवृत्त हुए, तो उस अवसर पर एक पार्टी का आयोजन किया गया। इस पार्टी में विभिन्न अधिकार, उनके मित्र, पत्रकार तथा संवाददाता सम्मिलित हुए थे। न्यायाधीश के पद से निवृत्त होने के बावजूद भी उनके चेहरे पर बुढ़ापा नहीं जवानी, झाँक रही थी। पार्टी के दौरान ही एक संवाददाता ने उनसे पूछा-”अब इस वृद्धावस्था में तो आप आराम करेंगे या कुछ और आपने भावी जीवन का क्या कार्यक्रम बनाया है ?”

“वृद्धावस्था” बड़े आश्चर्य से होम्स ने कहा-”क्या मैं वृद्ध दिखाई दे रहा हूँ। वस्तुतः मेरी जवानी तो अब आधी है, क्योंकि लंबे समय से जिन कार्यों को मैं टालता रहा था-उन्हें अब प्रारंभ करूंगा।” कौन से काम टाल रहे थे आप जिन्हें अब पूरे करेंगे ?” पहला काम तो यह कि बहुत समय से मैं बढ़ई का काम सीखना चाह रहा था, लेकिन अब तक इसका समय ही नहीं मिल पाया। अब बढ़ई का काम सीखने के साथ-साथ मैं विज्ञान का अध्ययन करूंगा, नये-नये खेल सीखूँगा और अपने मानसिक क्षितिज का विकास करूंगा। होम्स बोले-”और भले ही मैं बूढ़ा हो भी जाऊँ तो क्या। काम करना छोड़ूँगा थोड़े ही। काम करना छोड़ देने की अपेक्षा मैं मर जाना पसंद करूंगा।

श्रेणिक पुत्र मेघ ने भगवान बुद्ध से मंत्र दीक्षा ली और उनके साथ ही रहकर तपस्या में लग गये। विरक्त मन की उपासना से असीम शाँति मिलती है। कूड़े से जीवन में मणि-मुक्ता की-सी ज्योति झिलमिलाने लगती है, मन-वाणी-चित्त अलौकिक स्फूर्ति से भर जाते हैं। साधक को रस मिलने लगता है। तो मेघ भी अधिकांश समय उसी में लगाते। किंतु भगवान् बुद्ध की दृष्टि अत्यंत तीखी थी। वह जानते थे रस सब एक हैं-चाहे वह भौतिक हों या आध्यात्मिक। रस की आशा चिर नवीनता से बँधी है, इसीलिए जब तक नयापन है, तब तक उपासना में रस स्वाभाविक है,किंतु यदि आत्मोत्कर्ष की निष्ठा न रही, तो मेघ का मन उचट जायेगा, अतएव उसकी निष्ठा को सुदृढ़ कराने वाले तप की आवश्यकता है। सो वे मेघ को बार-बार उधर धकेलने लगे।

मेघ ने कभी रूखा भोजन नहीं किया था। अब उन्हें रूखा भोजन दिया जाने लगा, कोमल शैया के स्थान पर भूमि शयन, आकर्षक वेषभूषा के स्थान पर मोटे बल्कल वस्त्र और सुखद सामाजिक संपर्क के स्थान पर राजगृह आश्रम की स्वच्छता, सेवा-व्यवस्था एक-एक कर इन सबमें जितना अधिक मेघ को लगाया जाता, उनका मन उतना ही उत्तेजित होता, महत्वाकाँक्षाएँ सिर पीटतीं और अहंकार बार-बार आकर खड़ा होकर कहता-”ओ रे मूर्ख मेघ ! कहाँ गया वह रस ? जीवन के सुखोपभोग को छोड़कर कहाँ आ फँसा।” मन और आत्मा का द्वन्द्व निरंतर चलते-चलते एक दिन वह स्थिति आ गई, जब मेघ ने अपनी विरक्ति का अस्त्र उतार फेंका और कहने लगे ! “तात ! मुझे तो साधना कराइए, तप कराइए जिससे मेरा अंतःकरण पवित्र बने।”

तथागत मुसकराये और बोले-”तात ! यही तो तप है। विपरीत परिस्थितियों में भी मानसिक स्थिरता-यह गुण है। जिसमें आ गया, वही सच्चा तपस्वी-वही स्वर्ग विजेता है। उपासना तो उसका एक अंग मात्र है।” मेघ की आँखें खुल गई और वे एक सच्चे योद्धा की भाँति मन से लड़ने को चल पड़े।

वानप्रस्थ बिना मन के मल्लयुद्ध को जीत नहीं लिया जाना चाहिए। वेष वैसा रहे व मन कहीं और, तो वह जीवन तो भौतिक जीवन से भी गया बीता है।


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