सिद्धियों की दिशा में ले जाने वाला राजमार्ग

December 1993

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मन की चंचलता प्रसिद्ध है। वह क्षण-क्षण में अस्त-व्यस्त बना इधर-उधर उड़ता रहता है। एक स्थान पर न टिक पाने से किसी महत्वपूर्ण दिशा में गंभीरतापूर्वक सोच सकना और तन्मयतापूर्वक प्रस्तुत कार्य कर सकना संभव नहीं हो पाता। एकाग्रता और तत्परता बिना किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। जीवन के सभी महत्वपूर्ण कार्य दत्तचित्त होकर करने से ही संपन्न होते हैं। चंचलता प्रगति पथ की सबसे बड़ी बाधा है। इसके रहते हुए सुयोग्य व्यक्ति भी पग-पग पर ठोकरें खाते और असफल रहते देखे जाते हैं। भौतिक क्षेत्र की भाँति आत्मिक क्षेत्र की सफलतायें भी चंचलता के चित्त-वृत्तियों के निरोध-परिष्कार पर निर्भर हैं। योग की परिभाषा करते हुए महर्षि पतंजलि ने उसे चित्त-वृत्तियों का निरोध बताया है। इस चित्तवृत्ति को दो रूपों में देखा जाता है-एक तो अस्थिर चंचलता, दूसरे पाशविक कुसंस्कारों की ओर रुझान। इन दोनों ही अवाँछनीयताओं पर नियंत्रण स्थापित करने से चित्तवृत्ति निरोध की योग साधना संभव होती है। दीर्घकाल से संग्रहित कुसंस्कारों-पशु प्रवृत्तियों को परिवर्तित कर उच्चस्तरीय दिव्य आस्थाओं का स्वरूप दे देने की प्रक्रिया योग है। इसके लिए प्रचंड पुरुषार्थ अपेक्षित है।

शरीर को सक्रिय और मन को संतुलित एवं एकाग्र रखने पर ही इतना प्रबल पुरुषार्थ संभव है। एकाग्रता मन-मस्तिष्क की एक व्यवस्थित चिंतन विधि है जिसके लिए आसन, प्राणायाम आदि की शारीरिक-मानसिक प्रक्रियायें अपनाई जाती हैं। ध्यान-धारणा से मस्तिष्कीय अस्तव्यस्तता और बिखराव पर नियंत्रण पाया जाता है साथ ही साथ अचेतन मन की गहन परतों में दबी पड़ी विभूतियों को उभारा जाता है। इस अभ्यास में तरह-तरह की आकर्षक प्रतिभायें सामने रखकर अथवा उन्हें भावना क्षेत्र में बिठाकर उनके साथ एकाग्रता जोड़ने का अभ्यास किया जाता है। अध्यात्म साधना की यह एकाग्रता संपादन प्रक्रिया मस्तिष्क को साधने की दिशा में एक अत्यंत छोटा सा प्रयास मात्र है। समग्र आध्यात्मिक प्रगति तभी संभव हैं जब अपनी चेतना को विश्व चेतना का घटक मानकर स्वार्थ को परमार्थ में विकसित किया जाय।

योग का लक्ष्य है-आत्मा को परमात्मा से जोड़ना। व्यष्टि सत्ता का समष्टि सत्ता में समर्पण ही योग है। यह भावोत्कर्ष की साधना द्वारा ही संभव है। व्यक्तिवादी अहंता और स्वार्थवादी महत्वाकाँक्षा में परिधिबद्ध मन को सार्वभौम चेतना से जोड़कर अपने चिंतन और कर्तृत्व को उत्कृष्ट बनाना ही आध्यात्मिक प्रगति है। इससे कम कुछ भी नहीं। सही दिशा में चलने पर मनुष्य में देवत्व के उदय की प्रक्रिया का प्रारंभ अनिवार्य है। योग वस्तुतः एक भाव विज्ञान है, जो जीव को ब्रह्म से चिर मिलन की भाव-भूमिका की ओर ले जाता है। लघु को महान बनाने की यह विद्या है। यह मूल लक्ष्य यदि विस्तृत-उपेक्षित रहा, तो फिर आसन, प्राणायाम, ध्यान, बंध मुद्रा आदि का अभ्यास-विस्तार एक सामान्य व संकीर्ण मनः क्रीड़ा के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

योग की अनेकानेक शाखायें हैं। उनमें से किसी एक का आश्रय लेकर अतीन्द्रिय क्षमतायें विकसित की जा सकती हैं, परंतु वे चमत्कारी नहीं कही जा सकती। वस्तुतः वह आत्म विधा का ही एक अंग है। योग का उद्देश्य वस्तुतः अचेतन मन का परिष्कार एवं विकास है। व्यक्तित्व का निर्माण अचेतन मन की गहरी परतें ही संपन्न करती है। मनोविकार बुद्धि क्षेत्र में नहीं, वरन् स्वभाव के अंतर्गत आदतें बनकर घुस बैठते हैं। मनुष्य उनकी बुराइयाँ समझता है और छोड़ना भी चाहता है, किंतु संचित अभ्यासों का दबाव इतना अधिक होता है कि अपने ही निर्णय के विरुद्ध रास्ते पर चलने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इन आदतों के पीछे अचेतन मन ही काम करता है।

शरीर की अनवरत गतिविधियों में सचेतन मन या जाग्रत मस्तिष्क का नगण्य जितना अधिकार होता है। संचालन अचेतन की अभ्यस्त प्रवृत्तियाँ ही करती हैं। मांसपेशियों का आकुंचन-प्रकुँचन, पलकों का निमेष-उन्मेष, भूख-प्यास, फेफड़ों का श्वास-प्रश्वास, निद्रा-जाग्रति आदि असंख्य शारीरिक-क्रिया-प्रक्रियायें अचेतन मन के नियंत्रण में ही चलती हैं। हारमोन ग्रंथियों से लेकर प्राणों के अवधारण तक पर अचेतन का ही प्रभाव है। मनोविकारों के कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य चौपट हो जाना और सद्भावनाओं के आधार पर व्यक्तित्व के सभी पक्षों का समुन्नत होते चलना इसी संस्थान की संरचना के कारण संभव होता रहता है। उत्थान और पतन के बीच इसी क्षेत्र में उगते हैं। व्यक्तित्व की सुविस्तृत जड़ें इसी भूमि में घुसी होती हैं।

अचेतन को ही ‘चित्त’ कहते हैं। योग द्वारा इसी का निरोध और परिष्कार-परिशोधन किया जाता है। मस्तिष्क का प्रेरक केन्द्र यही है। वह गयी-गुजरी स्थिति में पड़ा रहे तो सचेतन की बुद्धिमत्ता का उपयोग धूर्तता-दुष्टता जैसे निकृष्ट प्रयोजनों के अतिरिक्त किसी रचनात्मक कार्य में संभव न हो सकेगा और बुद्धिमान कहलाने वाला मनुष्य भी उज्ज्वल भविष्य का सृजन न कर सकेगा। यों तो सचेतन मन और बुद्धि को विकसित करने के लिए शिक्षा, साहित्यिक संपर्क जन्य, अनुभव संपादन करने जैसी अनेक विधि-व्यवस्थायें प्रचलित हैं। किंतु अचेतन मन की चित्त की चिकित्सा करने में यौगिक उपाय-उपचारों को ही काम में लाया जाता है जिसे अध्यात्म की भाषा में मनोमय कोष की साधना भी कहते हैं। यद्यपि आज परामनोविज्ञान एवं मनोविज्ञान के अंतर्गत भी अचेतन की क्षमता को समझने और उसमें अभीष्ट परिवर्तन करने के उपाय खोजे तथा सोचे जा रहे हैं, किंतु तत्वदर्शियों की अनुभूति पद्धति योग साधना के अतिरिक्त और कोई कारगर मार्ग अभी तक करतलगत हुआ नहीं है।

प्रख्यात मनःशास्त्री सर अलेक्जेन्डर कैनन का कहना है कि मनुष्य इस विश्व की सबसे विलक्षण संरचना है। उसका सारतत्व मन-मस्तिष्क है और उसका नवनीत अचेतन संस्थान है। दुर्भाग्य से इसी केन्द्र की न्यूनतम जानकारी हमें उपलब्ध है। वैज्ञानिक अभी तक यह नहीं जान सके कि इस संस्थान को प्रभावित, परिवर्तित और परिष्कृत करने के लिए क्या किया जा सकता है। शरीर चिकित्सा में काम आने वाले उपचारों की पहुँच वहाँ तक है नहीं। लगता है स्वसंवेदन, स्वसम्मोहन और स्वनिर्देशन जैसे उन्हीं उपायों को काम में लाना पड़ेगा जिन्हें पुरातन योगीजन अपने ढंग से काम में लाते रहे हैं जो हो संसार की सुख-शांति और मानवी प्रगति के मर्म केन्द्र तक हमें पहुँचना ही होगा। किसी उपाय से अचेतन को नियंत्रित करने की विधि-व्यवस्था हस्तगत करनी ही होगी। इसके बिना समुन्नत व्यक्ति और समृद्ध विश्व की संभावना बन न सकेगी।

इस तथ्य को दूरदर्शी अध्यात्मवेत्ता ऋषि-मनीषियों ने चिरकाल पूर्व ही जान लिया था। उनने मानवी व्यक्तित्व का आधार केन्द्र मन के अचेतन भाग-चित्त को माना है और इस बात पर बहुत जोर दिया है कि समृद्धि के अन्याय आधारों पर जितना ध्यान दिया जाता है उससे कम नहीं, वरन् अधिक ही मानसिक परिष्कार पर दिया जाय। इस क्षेत्र के परिष्कार एवं विकास के बिना भौतिक एवं आत्मिक प्रगति की आशा पूरी नहीं हो सकेगी। उनके अनुसार चेतन मस्तिष्क की सक्रियता अचेतन की शक्ति तरंगों को काटती है। इसलिए जब चेतन मन अधिक सक्रिय होगा तो अचेतन स्वतः ही दबा और अविकसित ही पड़ा रहेगा। बौद्धिक संस्थान की सक्रियता को शिथिल करने पर अचेतन केंद्र जाग्रत होता है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि जैसी साधनाओं द्वारा चेतन मन-मस्तिष्क को शिथिल, निष्क्रिय एवं शून्य स्थिति में ले जाया जाता है। तब ही दूरदर्शन दूर-दृष्टि, विचार-प्रेषण, भविष्य ज्ञान, अदृश्य का, परोक्ष का दर्शन, आदि अनेक अतीन्द्रिय क्षमतायें प्राप्त की जा सकती हैं। सचेतन बौद्धिक मस्तिष्क को शिथिल करके इच्छाशक्ति, प्राणशक्ति को अचेतन के विकास में प्रयुक्त करने पर शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन संभव है। अति दीर्घजीवी होना, अति शक्तिशाली होना, अदृश्य जगत का ज्ञान प्राप्त करना आदि उसी स्थिति में संभव है।

छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं से लेकर पशु-पक्षी तक बौद्धिक दृष्टि से मनुष्य से पिछड़े होते हैं। उनका चिंतन और सचेतन क्षेत्र शिथिल रहता है। इसी का लाभ उनके अचेतन को मिलता है। कुत्तों की घ्राण शक्ति अति सूक्ष्म होती है। चमगादड़ के ज्ञानतंतु राडार क्षमता से संपन्न होते हैं। ह्वेल मछली का अचेतन मस्तिष्क भी बहुत क्रियाशील होता है और उसके शरीर में पनडुब्बियों की सभी विशेषतायें पायी जाती हैं। समुद्री झींगे की शरीर प्रणाली जेट-विमान की प्रणाली जैसी होती है। उसका अचेतन मस्तिष्क ही इस तीव्र दौड़ में उसे समर्थ बनाता है। अनेक वन्य पशु एवं जीव-जन्तु मौसम सहित अन्यान्य प्राकृतिक आपदाओं जैसे वर्षा, भूकंप आदि की जानकारी समय पूर्व ही अपने अचेतन मस्तिष्क द्वारा प्राप्त कर लेने में समर्थ होते हैं। वर्षा ऋतु आने से पूर्व ही चींटियां तथा अन्य कीड़े अपना आहार इकट्ठा कर लेते हैं। ये सभी विशेषतायें इनके अचेतन मस्तिष्क का ही परिणाम हैं। मनुष्य के चेतन मस्तिष्क की अति सक्रियता से उत्पन्न ऊष्मा अचेतन को दबा देती है जिससे उसकी अलौकिक क्षमतायें प्रसुप्त ही पड़ी रहती हैं।

इसलिए योग में प्रथम चरण के रूप में मानसिक संतुलन पर बल दिया जाता है। अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में चित्त को अनुद्वेलित रखने का अभ्यास इसीलिए किया जाता है कि उसमें मानसिक ऊष्मा में अनावश्यक वृद्धि नहीं होती और अचेतन भी क्षीणता और बिखराव से बच जाता है। इस तरह मानसिक संतुलन का प्रथम चरण सध-जाने पर अगला चरण उठाया जाता है। चेतन मस्तिष्क की गतिविधियों को कुछ समय के लिए रोककर उस संस्थान में क्रियाशील विद्युत शक्ति को अचेतन क्षेत्र में नियोजित करने पर अतीन्द्रिय सामर्थ्य विकसित होती है।

सुप्रसिद्ध मनोविज्ञानी ड्रमण्ड एवं मैलोन के अनुसार मनुष्य का अचेतन मन एक तिजोरी है-समुद्र है जिसमें सभी तरह के रत्न भण्डार रस एवं विष भरे हैं, हम जिसे उभार लें, वे ही सचेतन पर अधिकार जमाये दीखेंगे। वस्तुतः अचेतन में सब कुछ दिव्य और भला ही नहीं है। पाशविक कुसंस्कार वहाँ भी विराजमान हैं जिनका परिष्कार-परिशोधन आवश्यक है। इसके लिए संतुलन और एकाग्रता को आगे बढ़ाते हुए चित्त को जाग्रत दिशा में ही लय कर देना पड़ता है जिसे अष्टाँग योग की चरमावस्था कहते हैं, जिसके लिए प्रत्याहार, धारणा और ध्यान की भूमिकाएं पार करनी पड़ती हैं। इस साधनाओं के द्वारा सचेतन मस्तिष्क की चिंतन शक्ति एवं संकल्प शक्ति को शिथिल करते हुए वहाँ लगे तेजस् को अचेतन में नियोजित किया जाता है, तभी अनुपम दिव्यताएं प्रकट होना शुरू होती हैं। योग और लय का आश्रय लेकर अचेतन को कुसंस्कारों से मुक्त कराने की दिशा में जो जितनी अधिक प्रगति करता है, वह उतना ही समर्थ सिद्ध पुरुष कहा जाता है। यही योग का उद्देश्य है।


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