आवश्यकता संपत्ति की उतनी नहीं; जितनी सदाशयता की। सदाशयता हमें हिल-मिलकर रहना और मिल-बाँटकर खाना सिखाती है। आपस में स्नेह और सहयोगपूर्वक कैसे रहा जाता है और जो सामने है, उसे मिल-बाँटकर कैसे खाया जाता है? यह ज्ञान का सार है। सोचने का तंत्र हमें मिला था, पर सोचने की कला से हम अपरिचित हैं। श्रम करने के लिए उपकरण हमें मिले हैं, पर क्या श्रम किया जाए और क्यों किया जाए? इसका भान कदाचित् ही किसी को है।
संपत्ति के साथ सदाशयता का समावेश आवश्यक है, अन्यथा बासी रखा हुआ उपयोगी भोजन भी सड़ेगा और उसे जो कोई काम में लाएगा, वही बीमार पड़ेगा। संपत्ति के अभाव में कितने ही लोग कष्ट पाते हैं, पर उससे अधिक वे लोग हैं, जो संपत्ति का उपयोग न जानने के कारण दुःखी हैं। संपत्तिवानों को दुर्व्यसनों में ग्रस्त देखा जाता है। उपयोग करने पर सुई भी अपने लिए घातक बन जाती है। कुकर्मों की भरमार संपन्नता के बाहुल्य से ही होती है। इसलिए संपत्ति से कहीं अधिक सदाशयता की आवश्यकता है। केवल सदाशयता की सहायता से जिंदगी हँसते-हँसाते कट सकती है; किंतु केवल संपत्ति अपने और दूसरों के लिए संकट खड़े करेगी।