एक यात्री संयोगवश कल्पवृक्ष के नीचे जा पहुँचा। उसके नीचे बैठते ही हर मनोकामनाएँ पूरी होती थीं।
यात्री प्यासा था। पानी चाहा तो सुराही भरकर ठंडा जल आ गया। भूख लगी और भोजन चाहा तो व्यंजनों का थाल सामने था। झपकी आई और सोने का साधन चाहा तो ऊपर से सजी हुई शैया उतर पड़ी। कामना और जगी और सेविका चाही तो पेड़ पर से एक रमणी टपक पड़ी।
एक के बाद एक कामना पूरी होते देखकर भय लगा, कहीं इस पेड़ पर भूतों का डेरा न हो। सोचने भर की देर थी कि भूतों का समुदाय समाने आ गया और डरावने नृत्य करने लगा।
भय बढ़ा। यात्री ने अनुभव किया, अब मौत सामने है। यह लोग मिल-जुलकर खा ही जाएँगे। वैसा ही हुआ। देखते-देखते प्रेतों की मंडली टूट पड़ी और उसे काट-काट कर खा गई। यह संसार कल्पवृक्ष है। अपने संकल्प ही अंकुरित होते और वृक्ष बनकर सामने आते हैं।