पाने से पूर्व कुछ करना भी होता है!

July 1987

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यह विश्व-व्यवस्था कर्त्तव्य और अधिकार के आधार पर चली है। यहाँ आदान-प्रदान के सिद्धांत को सर्वोपरि मान्यता प्राप्त है। भगवान ने प्राणियों में सर्वोत्तम शरीर मनुष्य को प्रदान किया है। यह उसकी सर्वोपरि कलाकृति है। इसे देने के उपरांत उसने हाथों-हाथ यह आशा भी रखी है कि वह वरिष्ठता की दृष्टि से उसका युवराज सिद्ध होगा साथ ही उसके इस विश्व-उद्यान को अधिक सुविकसित सुसंस्कृत बनाने में आगे बढ़कर हाथ बँटाएगा। जो इस उत्तरदायित्व को समझते हैं, वे अपने क्रियाकलापों को पेट-प्रजनन तक सीमित न रखकर वह करते हैं; जिससे भगवान के अनुदान का प्रतिदान उसे वापस मिल सके। जो इस दिशा में जितना आगे बढ़ते हैं, वे उसी के अनुसार नए उपहार भी प्राप्त करते हैं। प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है। इससे आगे की मंजिल महामानव, देवात्मा, ऋषि, पार्षद, अवतार आदि आती है। वे भी समयानुसार मिलते-चलते हैं और नर से नारायण बनने का सुयोग हाथ लगता है। उन उठते स्तरों के साथ सिद्धियों और विभूतियों का अनुदान बरसता है। इसी स्थिति में मनुष्य स्वयं इस भवसागर से पार होता है और अपनी पीठ पर असंख्यों को पार कराता है।

व्यवहारिक सिद्धांत है, उचित मूल्य, उचित वस्तु प्राप्त करना। हर समझदार इसी को सही आधार मानता है और जैसी वस्तु खरीदनी होती है, वैसी पूंजी जुटाता है। बाजार में बेचना हो तो भी इसी आधार पर दाम मिलेंगे। भगवान की अनुकंपा भरी विभूतियों को प्राप्त करने में भी यही सिद्धांत काम करता है। कल्मषों से निवृत्ति पाने के लिए संयम की तप-साधना, दृष्टिकोण को परिष्कृत करने के लिए यौगिक तत्त्वज्ञान और जो पास में है, उसे अनेक गुना बनाने के लिए साधनों को परमार्थ के खेत में बो कर सौ गुनी फसल उगाना, यही है— "भक्तजनों की साधना, जिसके मिले हुयेए का ऋण चुकता है और आगे के लिए बहुमूल्य अनुदानों का द्वार खुलता है।"

बलबुद्धि नियम-मर्यादाओं में नहीं बाँधना चाहती। उसकी आतुर महत्त्वाकांक्षाएँ होती है। मूल्य चुकाने की सामर्थ्य नहीं होती। ऐसी दशा में बालविनोद से उसका मन बहलाया जाता है। मोटर, रेल, हवाई जहाज, पाने के लिए मन ललचाता है। यह वस्तुएँ बहुत दाम की है। फिर उनके रखने का स्थान और चलाने का अनुभव चाहिए। बच्चा इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता; मचलता है; तब उसे फुसलाने के लिए अभिभावक यह खिलौने दो-दो रुपए से खरीद कर ला देते हैं। चाबी लगी होने से वे चलते भी हैं। बच्चे का मन बहल जाता है और मचलने पर उत्पन्न होने वाली हैरानी से अभिभावकों का भी पीछा छूट जाता है।

विचारणीय बात है कि किसी को ध्रुव, प्रहलाद, बुद्ध जैसी तपस्याएँ क्यों करनी पड़ती? कोई कष्टसाध्य ऋषि जीवन क्यों अपनाता? एक ओर साँसारिक मौज-मजा उड़ाते रहना और दूसरी ओर भगवान की हजामत बनाने का बाजीगरी खेल देखने से क्यों चूकता? इस प्रश्न का उत्तर धूर्तों और मूर्खों की जोड़ी ही मिलकर दे सकती है और वे ही आपस में एकदूसरे का समाधान भी करते रह सकते हैं। समझदारी की कसौटी पर कसने से तो यह बातें मसखरी जैसी ही प्रतीत हो सकती है।

भगवान का अनुग्रह प्राप्त करने वालों को पूजा-उपचार तक सीमित नहीं रहना पड़ा है; वरन अपना जीवन आदर्शों की आग में तपाकर इस स्तर का ढालना पड़ा है, जो अपने आप में महान हो और उसमें असंख्यों को अनुकरण की प्रेरणा दे सकने की क्षमता विद्यमान हो। ऋषियों में से प्रत्येक का जीवनक्रम इसी ढाँचे में ढला था। वे अपरिग्रह, संयम और परमार्थ की जीती जागती प्रतिमा थे। महामानवों में से प्रत्येक का जीवन ऐसा रहा है, जिसमें निजी विलास और वैभव से उन्हें सर्वथा विमुख रहना पड़ा और जो कुछ सोचते तथा करते रहे उसमें स्वार्थ का रंचमात्र भी समावेश नहीं था। उनकी समूची योजनाएँ सत्प्रवृत्ति संवर्ध्दन और लोक-मंगल का लक्ष्य सामने रखकर ही बनी। संसार से उनने सस्ता निर्वाहमात्र लिया और अपनी बहुमूल्य क्षमताओं को सत्प्रयोजनों के लिए विसर्जित करते रहे। सच्चे भगवतभक्तों को इस एक ही कसौटी पर सब ओर से घिसकर देखा जा सकता है। उत्कृष्टता की आग में तपाने पर वे सब और से खरे सोने जैसे निकलते हैं। भगवान का प्रियवान बनने के लिए इससे कम में कभी किसी का काम चला नहीं है। तिलक-छापा लगाकर अजगर की तरह पड़ा रहने भावुकजनों के सिर पर अपना आर्थिक भार लादे रहने, सेवा धर्म से हजारों कोस दूर रहने वाले आज के तथा कथित सन्त भक्तों के बारे में क्या कहा जाए? कुछ कहते नहीं बन पड़ता।

सच्चे भक्तों की नामावली पर जब दृष्टि उठाकर देखते हैं तो उसमें वास्तविकता झलकती और छलकती देखी जा सकती है। स्मरण हनुमानजी का आता है। ‘राम काज कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम’ का प्रयास उनने जीवन भर किया। एक लंगोटी भर से जीवन गुजारा। राम की इच्छा के अनुरूप कठिन-से-कठिन और जोखिम भरे काम में जुट जाना, यही है उनकी भक्तजनों की उपयुक्त जीवन-साधना। मालूम नहीं इस कार्यक्रम के बीच में उन्हें जप-भजन का समय कभी मिलता भी था या नहीं, उनके साथी सहधर्मी अंगद, नल, नील, जामवन्त आदि इसी प्रकार निरंतर कार्यरत रहे हैं। लंका विजय के उपरांत यह सभी मंडली रामराज्य की स्थापना, सतयुग की वापसी में जुट गई और उसी में खप गई।

भगवान कृष्ण भारत को महाभारत— "विशाल भारत बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने प्राणप्रिय परम भक्त अर्जुन समेत पाँडवों को अगली पंक्ति में खड़ा किया।" उन्हें लौकिक दृष्टि से क्या मिला? पूरे पाँडव परिवार के एकोंएक सदस्य को आजीवन मरते खपते और पिसते हुए भगवान की इच्छा पूरी करने में खपना पड़ा। सबसे प्यारे मित्र और सखा को भगवान श्रेय देते हैं, साथ ही उसका प्रेय पूरी तरह छीन लेते हैं। मालूम नहीं, पाँडवों ने कभी कुछ जप-अनुष्ठान किया या नहीं?

भक्तों में नारद अग्रणी माने जाते हैं वे लोक-मानस के परिष्कार में विश्व की समस्याओं को निपटाने में लगे रहे। उनमें संकल्प था कि ढाई घड़ी से अधिक किसी एक स्थान पर न रुकेंगें, निरंतर परिव्रज्या करते रहेंगे। एक बार नारद का मन विवाह करने को हुआ। उनकी उस कामना पूर्ति को लज्जित करते हुए कुचल दिया। भगवदभक्तों में भागीरथ का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे धरती वालों का जल का अभाव दूर करने के लिए गंगा को ऊपर से नीचे लाने की कठोर तपश्चर्या में अहर्निश निरत रहे और आर्यवर्त्त, मगध, कौशल आदि राज्यों की भूमि से जलसंकट सदा के लिए समाप्त करके संतोष की साँस ले सके। मालूम नहीं, इस बीच में कथा-कीर्तन करते-कराते थे या नहीं।

बुद्ध की एकांत तपश्चर्या का समय बहुत थोड़ा रहा है। बाकी तो वे धर्मचक्र-प्रवर्त्तन की योजना को क्रियांवित करने और उसे विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाने में निरत रहे। जो भी उनके प्रभाव परिचय में आया उन्हें परिव्राजक बनाकर देश-देशांतरों में संव्याप्त अनाचार के उन्मूलन में लगा दिया। उनका-उनके अनन्य सहयोगियों का समूचा समय इसी उच्चस्तरीय प्रयोजन में लगा है। उन्होंने अपने पुत्र तक को इसी प्रयोग के लिए दीक्षित किया था। परिवार तो उनका एक तरह से उजड़ ही गया।

उनके प्रमुख शिष्यों में से प्रत्येक ने एक-से एक बढ़कर आदर्श उपस्थित किए। अंबपाली और अंगुलिमाल का जीवन बदला और उन्हें देश-देशांतरों में भेजा। हर्षववर्ध्दन और अशोक सम्राट होते हुए भी बुद्ध के रंग में ऐसे रंगे कि उनकी अपनी संपत्ति का एक-एक पैसा विहारों, संघारामों और विश्वविद्यालयों को चलाने में लगा दिया। अशोक की बेटी और हर्षवर्ध्दन की बहिन आजीवन कुमारी रहकर धर्म-प्रचार में निरत रही। इस बीच इन सब का पूजा-पाठ नित्यकर्म जैसा ही चल सका होगा?

कुछ समय पूर्व के महात्मा गाँधी और संत विनोबा सच्चे अर्थों में भगवतभक्त हुए है। उनकी पूजा-उपासना तो थोड़ी-सी ही होती थी, पर पीड़ित मानवता को सहारा देने के लिए उन्होंने वृद्धावस्था के अंतिम चरण तक काम किया। विदेशी महिलाओं में सिस्टर निवेदिता, सरला बेन, मीरबेन, मदर टेरेसा को किसी कथा-कीर्तन वाली महिला से कम नहीं माना जा सकता।

स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, रामतीर्थ, स्वामी केशवानंद, रामकृष्ण परमहंस, समर्थ गुरु रामदास, गुरु गोविंद सिंह आदि का कार्यक्रम लोक-मंगल प्रधान रहा। उनकी भक्ति किसी तिलक-छापा वाले से कम नहीं मानी जा सकती।

गृहस्थभक्तों में महर्षि कर्वे, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, शिवाजी, प्रताप आदि के जीवन में भगवान पूरी तरह घुले हुए है। राजाराममोहनराय जिनके प्रयास से असंख्य विधवाओं का आग में झोंका जाना रुका किसी संत से कम सराहनीय नहीं है। बापा जलाराम वीरपुर गुजरात के एक किसान थे। बापा दिन भर खेती करते उनकी स्त्री का चौका हर समय दीन-दुखियों के लिए चलता रहता। अंत में उनकी झोली सिद्ध पुरुष की झोली हो गई, जिसका अन्न कभी समाप्त ही नहीं होता। अब तक हजारों व्यक्ति उसी के अन्न से प्रसाद पाते रहे हैं।

चैतन्य महाप्रभु अपने संकीर्तन आंदोलन के सहारे उन आतंक के दिनों में जागृति पैदा करते रहे और अछूतों के साथ बरते जाने वाले भेदभाव को मिटाते रहे। कबीर ने अपने समय के भ्रम-जंजालों और कुप्रचलनों पर ऐसे तीखे प्रहार किए कि मठाधीशों के दिल दहलने लगे।

यह थोड़े से उदाहरण है। स्मरण करने पर ऐसे सच्चे संतों के नाम याद आ सकते हैं, जिनने अपना जीवन कथा-कीर्तन, पूजा-पत्री, भजन-सत्संग तक सीमित नहीं रखा; वरन आहत मानवी गरिमा के घाव भरने में अपने समय और श्रम को पूरी तरह लगा दिया। भजन नित्यकर्म है। स्नान भोजन की तरह नित्यकर्म में उसका भी स्थान होना चाहिए। पर इसका अर्थ यहाँ किसी भी प्रकार नहीं होता कि भजन का बहाना लेकर समूचा समय ऐसे ही निठल्ले रहकर बिता दिया जाए और अपने निर्वाह का व्ययभार भोलेभावुकजनों से वसूल किया जाए। देश में 7 लाख गवि है और 60 लाख संत बाबा। हर गाँव पीछे उनका औसत साढ़े आठ आता है, यह लोग भजन के अतिरिक्त शेष समय शिक्षा-प्रसार, नशा-निवारण, कुरीति उन्मूलन जैसे कामों में लगाने लगे तो समूचे देश का कायाकल्प हो सकता है। सेवा धर्म को साथ में जोड़ लेने से भक्ति भी सार्थक हो सकती है और भगवान की उपासना का स्वरूप भी जनमानस में श्रद्धा का संचार कर सकता है।

उपासना का अर्थ है—  "पास बैठकर संगति करना। जो सच्चे मन से संगति करेगा, उसमें उसके गुण भी अवश्य प्रकट होंगे। चंदन के पेड़ के पास उगने वाले झाड़-झंखाड़ भी सुगंधित हो उठते हैं। पारस छूकर लोहा सोना हो जाता है। भगवान के पास बैठने का तात्पर्य है उसके गुणों को अपने में भर लेना। स्वाति की बूँद पड़ने से सीप में मोती, केले में कपूर, बाँस में वंशलोचन उत्पन्न होता है, फिर कोई कारण नहीं कि उपासना करने वाले ईश्वर के समान पवित्र, निस्पृह, न्यायपरायण, निरंतर व्यस्त परमार्थरत जैसे सद्गुणों से संपन्न न हो।"


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