निष्काम सेवा ही, सच्ची सेवा

July 1987

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बदले के लिए हर भला-बुरा आदमी अपना काम करता है, पर ऐसे लोग कम हैं, जो निष्काम भाव-से सेवाकार्य कर सकें।

श्रमिक शाम की मजूरी पाने के लिए दिनभर काम करता है। व्यवसायई, शिल्पी, कलाकार, नट आदि सभी अपने-अपने कार्य इसलिए करते हैं कि उन्हें उनके परिश्रम की उजरत मिले। जहाँ इसमें कभी कटौती दिखती है, वहाँ वे अपना काम करना बंद कर देते हैं।

आक्रामक लूट का माल बटोरने के लिए, क्रुद्ध प्रतिशोध लेने के लिए, चोर सेंध मारने के लिए अपना काम सतर्कतापूर्वक करते हैं। लालची अधिक संपन्न बनने के लिए योजनाएँ बनाते हैं और उन्हें क्रियांवित करने का जुगाड़ बिठाते रहते हैं। विलासियों को वासनाएँ तृप्त करने की धुन रहती है। वे भौंरे की तरह एक फूल से दूसरे पर मँडराते देखे गए हैं।

जिन्हें अपने बड़प्पन का बवंडर दिखाकर लोगों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करना है, वे गर्दभ होते हुए भी सिंह की खाल औढ़ते और चापलूसों को लालच देकर उससे झूठे बड़प्पन का यशगान कराते हैं। ऐसा भी देखा गया है कि गधा, ऊँट के रूप की और अन्य, गधे के स्तर की प्रशंसा करें। प्रपंची अपना गिरोह खड़ा करते हैं और एकदूसरे का स्वार्थ साधने के लिए समझौते करते रहते हैं।

कर्म तो सभी को करना पड़ता है, चाहे वह अलाभप्रद ही क्यों न हो? बंदर इस डाली से उस डाली पर उचकते-मचकते रहते हैं। टहनियाँ और पत्ते तोड़कर जमीन पर गिराते रहते हैं। इस निरर्थक श्रम से भी उन्हें मजा आता है। झिंगुरों के बोलते और मेंढ़कों के टर्राते रहने में यों प्रत्यक्षतः कोई प्रयोजन सिद्ध होता नहीं दिखता, फिर भी वे आदत से मजबूर होकर कुछ करते ही रहते हैं। चुप न बैठ सकना उनकी मजबूरी है। ताश, चौपड़, शतरंज आदि के खेलों में मनोविनोद के अतिरिक्त उनमें निरत रहने पर प्रयास का प्रतिफल प्राप्त कर सकते हैं, यह भी नहीं दिखता।

पुण्य-परोपकार में निरत देखे जाने वालों में भी छिपी लालसाएँ काम करती देखी जाती हैं। लोगों की आँखों में धर्मांधपन दिखाने और बदले में उसी उपजी सद्भावना का प्रकारांतर से लाभ उठाने का मन रहता है। सस्ती वाहवाही भी इस प्रयास से सहज ही मिल जाती है। नाम और फोटो छपते हैं तो मन प्रसन्नता से भर जाता है। नेता बनकर कितने ही परोक्ष लाभ उठाने के लिए कितने ही लोग जनसेवा का आडंबर रचते हैं और उसी रूप में अपने को प्रख्यात करने का प्रयत्न करते हैं, ताकि बदले में कहीं अधिक मूल्य का जनसहयोग प्राप्त किया जा सके।

इन प्रपंचों में मनोविनोद भर होता है, वह आत्मसंतोष नहीं मिलता, जो निस्वार्थ सेवा धर्म अपनाने पर हस्तगत होता है। अपने स्वार्थसाधन का परित्याग करते हुए, जो मात्र दूसरों के दुखों को बँटाने और अपने सुखों को बाँटने का आत्मिक और वास्तविक आनंद प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिए एक ही मार्ग है। निस्वार्थ सेवा-साधन, सत्प्रवृत्ति-संवर्ध्दन।

प्रदर्शन के लिए दरिद्रों की सहायता करना आत्मविज्ञापन है। सहायता ऐसी होनी चाहिए; जिसमें अपना अहंकार न बढ़े और प्राप्तकर्त्ता को स्वाभिमान दीन-हीन की पंक्ति में खड़ा न होना पड़े। इसमें आपत्तिग्रस्तों को सामयिक सहायता भी मिल जाती है। यह आवश्यकता तो है, पर पर्याप्त नहीं। होना यह चाहिए कि सामयिक सहायता प्राप्त करके व्यक्ति इतनी सामर्थ्य अर्जित कर ले, जिसके सहारे वह अपना काम अपने बलबूते चला सके।

जो सहायता प्राप्त करें उन्हें यही सोचते रहना चाहिए कि किसी की उदारता का लाभ उठाकर उनने एक प्रकार से ऋण लिया है, जिसे अन्य अभावग्रस्तों की सहायता करते हुए उसे ब्याज समेत चुकाना है।


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