धर्मधारणा का प्रथम लक्षण— धृति

July 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

धर्म शब्द का अत्यन्त संक्षिप्त सारगर्भित अर्थ तो “अभ्युदय और निःश्रेयस” के रूप में लिया जाता है। जिसका अर्थ होता है— "लौकिक और परलौकिक उन्नति अथवा ऊँचे उठना, नीचे न गिरना। इतने भर सूत्र संकेत की यदि विस्तृत विवेचना की जाए तो उसके अंतर्गत उन सभी श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभावों का समावेश हो जाता है, जिनका जीवन को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने से सीधा संबंध है। उन सभी दुर्गुणों का सुधार-निष्कासन भी इसी सूत्र में समाविष्ट है, जो पतन-पराभव का निमित्त कारण होते हैं।"

किंतु इस अभ्युदय, निःश्रेयस सूत्र से जिनका काम नहीं चलता और जो अधिक विस्तृत विवेचना के साथ वस्तुस्थिति को समझना चाहते हैं, उनके लिए धर्म के सुप्रसिद्ध दश लक्षणों की भावना, प्रेरणा और व्यवहार संहिता समझने की आवश्यकता पड़ेगी।

धर्मानुशासन के प्रथम प्रवक्ता भगवान मनु ने धर्म के जिन दस लक्षणों की व्याख्या विवेचना की है, उनके नाम है (1) धृति (2) क्षमा (3) दया (4) अस्तेय (5) शौच (6) इंद्रिय निग्रह (7) धी (8) विद्या (9) सत्य (10) अक्रोध। यही दस धर्म के प्रधान लक्षण है, इनकी सहयोगी सत्प्रवृत्तियाँ तो और भी हैं और उनका वर्णन गीता में दैवी संपत्ति के नाम से किया गया है और उनका संख्या विस्तार 26 की  तक किया गया है। हमें इन व्याख्या-विवेचनों के विस्तार विवाद में न जाकर जितने से काम चल सकता है उतने से ही काम चला लेना चाहिए। इस दृष्टि से मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म के दश लक्षण प्रख्यात भी है और क्रम की दृष्टि से उनके बीच तारतम्य भी है।

धर्म लक्षणों में जिसे प्रमुख प्रश्रय मिला है वह है— ’धृति’, जिसका मोटा अर्थ ‘धैर्य’ समझा जाता है। धैर्य का अर्थ—  है, जो कार्य जितने समय में होने वाला है उसके लिए उपयुक्त समय दिया जाए। अधीर न हुआ जाए, हथेली पर सरसों जमाने जैसी जल्दबाजी न की जाए। शेखचिल्ली घड़ा ढोने की मजदूरी मिलने से पूर्व ही मुर्गी, बकरी, भैंस, घर, बीबी, और संतान मिलने की उतावली में इतना व्यग्र हो गया था कि उसमें समय साध्य योजना पलक झपकते ही पूरी होती दिखाई पड़ने लगी थी। इसीलिए उस घटना या कथा की चर्चा, मुद्दतों बीत जाने पर भी मूर्खता का प्रतिनिधित्व करते हुए भी होती रहती है।

घास वर्षा होते ही उग आती है; किंतु बरगद अथवा ताड़ व खजूर को अपने यौवन के आगमन की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लंबे समय तक इनकी सेवा-सुरक्षा के साथ प्रतिफल की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। जो उतावली करते हैं, वे हथेली पर सरसों जमाने की बाजीगरी न कर पाने पर निराश हो जाते हैं और भाग्य को दोष देकर जो काम हाथ में लिया था, उसे छोड़ बैठते हैं। इससे किया हुआ परिश्रम भी व्यर्थ चला जाता है और  मनोबल भी इस प्रकार टूट जाता है; जिससे भविष्य में और कोई साहस भरे कदम उठाने से डर लगने लगे।

उपर्युक्त प्रतिपादन किसान-व्यापारी से लेकर लोकसेवी और योगी-तपस्वी तक पर समान रूप से लागू होता है। क्षमता दक्षता एवं अभीष्ट साधन-सहयोग उपलब्ध कर सकना इतना सरल नहीं है कि वे तत्काल ही तैयार किए हुए तैयार मिलें। इन्हें ठोक-पीटकर काट-छाँट के उपरांत ही इस योग्य बनाया जा सकता है, जिसमें से उनके सहारे निर्धारित योजना भली प्रकार चल सके। इस प्रयास में अड़ंगे भी लगते और अनुपयुक्त-साधन बरतते भी रहने पड़ते हैं। इसमें विलम्ब लगते देखकर अपनी आस्था डगमगाने नहीं देना चाहिए। धैर्यपूर्वक लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अटूट संकल्प और साहस अपनाए रहना चाहिए, यही है धृति का व्यावहारिक स्वरूप।

इसका अर्थ यह नहीं है कि जिस काम में जितना समय लगना चाहिए, उससे अधिक लगाया जाए। आलस्यवश कार्यों को आधे-अधूरे छोड़ते हुए उन्हें अस्त-व्यस्त रहने दिया जाए और अपने उस प्रमाद को धैर्य बताया जाए। कर्त्तव्यपालन के संबंध में तो समय का एक-एक क्षण को हीरे मोतियों से तोलना चाहिए और तत्परता के साथ तन्मयता को जोड़ते हुए बिना ध्यान बखेरे, मन को उदास किए, संयम-श्रमशीलता के साथ निर्धारण में संलग्न रहा जाए। तभी उसका कुछ कहने लायक प्रतिफल हस्तगत होता है।

धैर्य को शिथिलता का आलस्य-प्रमाद का प्रतीक नहीं माना जाना चाहिए और न इस उच्चआदर्श की आड़ में जो हो रहा है, समय पर होकर रहेगा। भाग्यवादियों जैसा बोल न बोलना चाहिए। धृति का तात्पर्य इतना ही है कि अभीष्ट प्रयोजनों के सधाने में समय से अधिक विलम्ब लग सकता है। इस बीच जो आतुरता-अकुलाहट होती है। उसे काबू में रखा जाए, ताकि विलम्ब लगने पर भी कठिनाइयों से लड़ने का हौसला तथा कर्मठता का प्रयास शिथिल होने न पाए।

ब्रूसो की कथा प्रसिद्ध है। वह लड़ाइयों में बार-बार हारता रहा। अंतिम हार के समय जान बचाकर किसी खाई में पड़ा छिपा हुआ था। पड़े-पड़े छत पर निगाह डाली तो एक मकड़ी जाला बुनते दिखाई पड़ी। तेरह बार असफल रहने के बाद भी वह निराश नहीं हुई और चौदहवीं बार सफल हुई। ब्रूसो की निराशा को इस घटना ने अभिनव उत्साह में बदल दिया। उसने नए सिरे से लड़ाई की योजना बनाई और दूने उत्साह से उसे पूरी करने में लग गया। इस बार सफलता उसी के हाथ रही।

अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन चुनावों में चौदह बार हारे। इसके बाद उन्हें विजय मिली। हारते रहने पर भी उत्साह ठंडा न हुआ तो लोगों ने जान लिया कि यह आस्थावान है और विश्वास योग्य है। इस दृढ़ता ने एक साहसी व्यक्तित्व का प्रमाण-परिचय दिया और जनसमुदाय उनके साथ हो गया। साधनहीन परिस्थितियों में भी वे राष्ट्रपति का चुनाव जीते।

शिव-पार्वती के विवाह का प्रसंग भी ऐसा ही है। पार्वती शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तप कर रही थी, सो तो ठीक था, पर शिवजी जानना चाहते थे कि अध्यात्म का प्रथम गुण— धैर्य, उनमें है या नहीं। अन्यथा मेरे साथ रहते हुए कठिनाइयों के बीच वे अधीर हो उठा करेगी और मुझे व्यर्थ का झंझट उठाना पड़ेगा। उन्होंने पार्वती की परीक्षा करने के लिए सप्तऋषियों को भेजा। वे पार्वती जी के पास पहुँचे और बोले— "शिव हजार वर्ष की समाधि लगाने जा रहे है। इतनी लंबी अवधि तक विवाह की प्रतीक्षा कैसे करती रहेंगी। स्वर्ग में कोई सुयोग्य देवकुमार विवाह के इच्छुक भी है। तुम्हारा विवाह उनके साथ हम तत्काल करा देंगे। इस प्रकार तुम्हें विवाह सुख भी अधिक अच्छी तरह एवं अधिक जल्दी मिलने लगेगा और तप का झंझट भी लंबे समय तक न उठाना पड़ेगा। यह विकल्प आकर्षक तो था, पर पार्वती के गले न उतरा।" उनने ऋषियों से दृढ़ता भरी वाणी में कहा—

कोटि जन्म लगि रगरि हमारी।

वरों शंभु न तु रहों कुमारी॥

करोड़ जन्म तक कुमारी रहना स्वीकार है, सदा-सर्वदा कुमारी रहना स्वीकार है; पर प्रयत्न शंभु के वरण का ही करूँगी। यह अभिमत शिवजी को सुनाया और उन्होंने व्यक्ति की निष्ठा को सर्वोपरि महत्त्व देते हुए विवाह स्वीकार कर लिया।

कोई व्यक्ति बुढ़ापे में पढ़ाने या और कोई महत्त्वपूर्ण कार्य आरंभ करते हैं तो उनसे यह भी सुना जाता है कि आत्मा अमर होने से शेष कार्य को अगले जन्म में भी पूरा कर लिया जाएगा। इस जन्म में उसका जितना भाग पूरा करना और अनुभव संपादित करना संभव है, उससे क्यों चुका जाए? ऐसे मनस्वी, धैर्यवान व्यक्ति निश्चित रूप से अपने संकल्पों को पूरा करके रहते हैं। भले ही इसमें कुछ देर कारणवश लग जाए। यही है— ‘धृति’, जिसे भौतिक और आत्मिक सफलता के लिए मूलभूत आधार माना गया है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118