शब्दार्थ में ना उलझें— भावार्थ समझें

July 1987

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भगवान को शास्त्रकारों ने समदर्शी कहा है। अध्यात्मवाद के पथिकों को भी समदर्शी बनने का स्वभाव डालने के लिए कहा गया है; किंतु देखा गया है कि इस शब्द का सही अर्थ करने— -सही भावार्थ समझने में प्रायः भूल होती रहती है। इस कारण इस निर्धारण के संबंध में अनेक संदेह उठते रहते हैं। समाधान न होने की स्थिति में कोई प्रयोग ही सही रीति से नहीं बन पड़ता। शंकाशंकित मन रहने पर अभीष्ट सफलता मिल सकने जैसी स्थिति भी हस्तगत नहीं होती।

समझा जाता है कि समदर्शी का अर्थ समान रूप से देखने वाला है। टीकाकार यह नहीं सोच पाते कि इस अर्थ को व्यवहार में लाने पर सारा गुड़-गोबर हो जाएगा। गाय और व्याघ्र को संत और दुर्जन को, पापी और पुण्यात्मा को एक दृष्टि से कैसे देखा जा सकता है? विष और अमृत के प्रति समबुद्धि कैसे हो सकती है? ऐसा तो कोई विवेकशून्य अथवा परमहंसगति तक पहुँचा हुआ ब्रह्मज्ञानी ही सोच सकता है। अन्यथा स्थिति के अनुरूप दृष्टिकोण अपनाना और व्यवहार करना ही समीचीन होता है।

भगवान भी सबको समान दृष्टि से कहाँ देखते हैं। यदि ऐसा होता तो किसी को नरक में धकेलने और किसी को स्वर्ग पहुँचाने की उनकी व्यवस्था क्यों कर कार्यांवित होती? अवतार लेकर भक्तों की रक्षा और दुष्टों का सफाया करने का परस्पर विरोधी कृत्य वे क्यों करते? सभी को एक लाठी से क्यों न हाँकते। सब धान बाईस पसेरी बेचने, अँधेर नगरी बेबूझ राजा के राज्य में टका सेर भाजी और टका सेर खाजा बिकने का प्रचलन कदाचित रहा हो, पर जहाँ व्यवहार बुद्धि काम करती है, वहाँ तो वस्तु का मूल्याँकन उसकी गुणवत्ता के आधार पर ही होता है। यदि ऐसा न होता तो स्वर्ण मुद्राएँ लोहे या मिट्टी से भी बन सकतीं और उन्हें कोई भी निर्माता अपने भंडार में भर कर धन-कुबेर हो सकता था। फिर योग्यता की पात्रता की परीक्षा करने का कोई प्रसंग ही, सभी को एक समान पद एक समान वेतन, मिलने लगता। तब फिर कोई श्रम करने की योग्यता बढ़ाने की आवश्यकता भी न समझता। आलसी और उद्योगी के बीच जब कोई भेद-भाव नहीं होने वाला है तो कोई अधिक तत्परता दिखाने के झंझट में क्यों पड़ेगा? जब पापी और पुण्यात्मा को एक ही दृष्टि से देखा जाने वाला है, तो पाप से डरने और पुण्य करने की आवश्यकता भी क्यों समझी जाएगी?

समदर्शी का मोटा अर्थ समान रूप से देखा जाना जो लोग कहते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि माता, पुत्र, भागिनी और पत्नी को एक जैसा समझकर उनके साथ एक जैसा व्यवहार करने पर मनुष्य की सझदारी कहाँ रह जाएगी? उससे नीतिनिष्ठ बने रहना कैसे संभव होग? मूर्ख और विद्वान के बीच अंतर क्यों किया जाएगा? तब सर्प से बचने और हंस के दर्शन को दौड़ने की भी आवश्यकता न रहेगी। ऐसा विवेकशून्य समदर्शी न व्यवहारकुशल कहा जाएगा और न नीतिवान।

समदर्शी का शब्दार्थ कुछ भी हो पर उसका तात्त्विक अर्थ है— ‘सम्यक्-दर्शन’। सम्यक्-दर्शन अर्थात् भली प्रकार देखना, गहराई में उतरकर वस्तुस्थिति को समझना और तदनुरूप अपनी क्रियापद्धति, व्यवहार-व्यवस्था का निर्धारण करना।

चूँकि अनेक लोग अनेक स्तर के होते हैं। इसलिए उनके साथ व्यवहार करते हुए भी तदनुसार हेर-फेर करना अनिवार्य रूप से आवश्यक हो जाता है। इसी को सम्यक्-दर्शन अथवा ’कर्म-कौशल’ कहते है।

मनुष्य समुदाय को मोटे तौर पर चार भागों में विभक्त किया जाता है। (1) सज्जन (2) दुःखी (3) सुसंपन्न (4) दुर्जन। इनमें से किसके साथ क्या व्यवहार किया जाए। सज्जनों के साथ मैत्री। दुःखहारी के प्रति करुणा का सेवा-सहायता के लिए उदार तत्परता बरती जाए। जो सुखी संपन्न, सुसंस्कारी हैं, उन्हें देखकर प्रसन्नता अनुभव की जाए उनके सद्गुणों को सराहा जाए और जो विशेषताएँ दिख पड़े, उनका अनुकरण किया जाए। दुखियों के प्रति करुणा बरतना उचित है, पर जो संपत्तिवान हैं; उन्हें देखकर प्रसन्न होना, उनकी विशेषताओं से उत्साह भरी प्रेरणा प्राप्त करना भी आवश्यक है।

दुर्जनों के प्रति उपेक्षा बरतने का निर्धारण है। यहाँ उपेक्षा का तात्पर्य ही विचारणीय है। उसका तात्पर्य है— असहयोग। यदि इतने भर से काम न चलता हो तो उसे विरोध और संघर्ष के स्तर तक भी ले जाया जा सकता है। उपेक्षा का अर्थ चुप बैठे रहना नहीं है; वरन यह है कि उनके द्वारा उत्तेजना दिलाए जाने पर अपना संतुलन न गँवाया जाए, पर बात इतने भर से ही पूरी नहीं हो जाती। दुर्जनों के साथ जुड़ी हुई दुष्टता का उपचार भी करना होगा। रोगी को बचाया जाना चाहिए पर रोग को तो मारा ही जाना है। साँप को मारना न हो तो भी उसके विषदंत तो उखाड़ ही देने चाहिए। यदि उपेक्षा का अर्थ—  चुप बैठे रहना—  अनदेखा कर देना किया जाएगा तो इससे दुष्टता समाप्त नहीं होगी; वरन दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ेगी। चिनगारी के दावानल बन जाने पर उसकी रोकथाम भी कठिन हो जाती है। इसलिए फोड़े का ऑपरेशन, उसके नासूर बनने के पूर्व ही करा लेना चाहिए। यहाँ उपेक्षा का अभिप्राय ठीक तरह नहीं समझ पाने पर भी अर्थ का अनर्थ हो सकता है।

इसी प्रकार सज्जनों के साथ मैत्री करने का भावार्थ— उनके साथ दोस्ती गाँठना, गप बाजी करना, साथ-साथ लगे फिरना या चापलूसी करके अपनी ओर आकर्षित करना नहीं है। इससे तो उन्हें भारी परेशानी पड़ेगी, जिनके ऊपर दोस्ती लादी जा रही है। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति अपने कंधे पर महत्त्वपूर्ण दायित्व लादता है। उन्हें पूरे करने के लिए तत्परता, तन्मयता अपनाते हुए व्यस्त रहता है, ऐसी दशा में मैत्री गाँठने के लिए उनके इर्द-गिर्द मंडराना न तो सभ्यता है और न व्यवहार। किसी के मूल्यवान समय को मैत्री के नाम पर बर्बाद करने का अधिकार किसी को कहाँ मिलता है? क्यों मिलना चाहिए?

इसी प्रकार मुदिता और करुणा का भी अपना-अपना विशेष अर्थ-अभिप्राय है। मुदिता का अर्थ—  हर्ष-विभोर होकर नाचने लगना, भावावेश का ढोल बजाते फिरना नहीं है; वरन संतोष अनुभव करना एवं उत्साह ग्रहण करना है। कभी-कभी संसार में बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियों को देखकर निराशा आने लगती है, उसके कारण मन पर अवसाद चढ़ने न पाए, इसलिए सत्प्रवृत्तियों का बढ़ना और उनका सफल होना भी खोजने योग्य है। ऐसे अवसर जितने अधिक देख पड़ते हैं, जानकारी में आते हैं, उतना ही मनोबल देखने-सुनने वालों का बढ़ता है। मुदिता का भावार्थ यहाँ यही है। मैत्री का अर्थ सत्प्रवृत्ति संवर्ध्दन में लगे हुए लोगों का सहयोग करना, हाथ बँटाना और उनकी प्रशंसा करना, प्रतिष्ठा देना है।

करुणा का अर्थ विलाप करना आँसू बहाना या सहानुभूति दिखाना मात्र नहीं है। वरन् पीड़ितों, संत्रस्तों अभावग्रस्तों को सामयिक कठिनाई से निकालकर भविष्य में इस स्थिति तक पहुँचा देना, ताकि वे अपने पैरों खड़े है सकें। जितनी सहायता अभावग्रस्त स्थिति में स्वयं प्राप्त की थी, उसकी ब्याज समेत दूसरों की बढ़ी-चढ़ी सहायता कर सकें। अन्यथा उद्देश्यरहित करुणा, आत्मगौरव गँवा बैठने वाले भिक्षुक ही उत्पन्न करेगी।


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