धर्मदीक्षा का शिविर समाप्त हुए। सारे भिक्षु अपनी-अपनी रुचि की दिशा में परिव्रज्या के लिए निकल गए। देववर्ध्दन नामक भिक्षु भी गौतम बुद्ध के सामने उपस्थित हुआ और प्रार्थना की— "भगवन ! मेरी इच्छा है कि मैं कलिंग जाकर संघ का प्रचार करूँ।" कलिंग का नाम सुनकर बुद्ध ने आँखें उठाई, देववर्ध्दन को पास बिठाया। स्नेह से शीश पर आशीर्वाद का हाथ फेरते हुए बोले— "वत्स! वहाँ के लोग बड़े अधर्मी और ईर्ष्यालु हैं, वे मिथ्या दोष लगाकर तुम्हें सताएगें, गालियाँ देंगे, इसलिए वहाँ जाने का इरादा बदल डालो।”
भिक्षु ने उसी विनय के साथ कहा— "भगवन गालियाँ देंगे तो क्या हुआ, मारेंगे तो नहीं"। तथागत कहने लगे— "तात! इसमें भी संदेह नहीं। वे आतताई भी हैं। तुम्हें मार भी सकते हैं।” देववर्ध्दन फिर भी दृढ़ रहा। उसने कहा— "देव थोड़ा दंड से इस शरीर का बिगड़ता क्या है, मारेंगे तो भी बुरा नहीं, वे मेरे प्राण तो नहीं लेंगे।"
“पर वे तुम्हें जान से मार देंगे, देववर्ध्दन! मैंने उनकी निर्दयता देखी है", बुद्ध ने कहा— “तो क्या हुआ भगवन आपने ही तो कहा— "यह शरीर 'धर्मकार्य में लग जाए तो पुण्य ही होता है', इस तरह वे लोग मेरे साथ उपकार ही करेंगे।” तथागत भगवान बुद्ध शिष्य के उत्तर से संतुष्ट हुए। उन्होंने आशीर्वाद दिया और विदा करते हुए बोले— “वत्स! समाजसेवी की सच्ची योग्यता है तुम में, तुम निश्चय ही वहाँ धर्म-प्रचार कर सकोगे।"
समाजसेवी की योग्यता है— "सहिष्णुता, क्षमा और निष्ठा।"