मरणकाल की व्यथा

July 1987

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आत्मीयता जिनके साथ भी जुड़ जाती है, वही मधुर, प्रिय, सुखद एवं सुंदर लगने लगता है। विराने अपने हो जाते हैं। जिन वस्तुओं पर अपना अधिकार मान लिया जाता है, उन पर कोई दूसरा अपना दावा जताए तो सहन नहीं होता और लड़ने-मरने की नौबत आ जाती है। अपनी वस्तु खो जाने, छिन जाने या नष्ट हो जाने पर भी दुःख होता है। अपनी संपदा की क्षति किसी को भी भली नहीं लगती। आत्मीयता को सुखस्वरूप माना गया है। उसकी चमक जिस पर भी पड़ती है, उसी का सौंदर्य निखर आता है। घनिष्ठता के अनुपात से ही प्रिय लगने की स्थिति बन जाती है।

शरीर जन्म से लेकर मरण पर्यंत निरंतर साथ रहता है। उसी की सहायता से इच्छानुकूल कार्य बन पड़ते हैं। उसी की इंद्रियाँ हैं; जिनके माध्यम से विविध प्रकार के रसास्वादन करने का अवसर मिलता है। उसका एक अवयव मस्तिष्क, बुद्धिमता के भांडागार की भूमिका निभाता है। सौंदर्य, आकर्षण, स्वभाव आदि शरीर की ही विशेषताएँ है; जिनसे अनेक लोग प्रभावित होते और मित्र-सहयोगी बनते हैं। शरीर की सेवा-साधना, वफादारी और स्वामिभक्ति को देखते हुए उसके साथ अत्यधिक घनिष्ठतम भाव रखना स्वाभाविक है। इस शरीर को जो कोई मान-सहयोग देता है, वह भी प्रिय लगने लगता है।

ऐसी दशा में उसकी शोभा, सज्जा, सुविधा बढ़ाने के लिए भी हर व्यक्ति सामर्थ्य भर प्रयत्न करता है। शरीर को कभी क्षति पहुँचती है, व्यथा होती है, तो अंतस भी तिलमिला जाता है। जो संभव है वह उपचार करता है। शरीर के सुखों से समझौता करने के लिए मानस सदा ताना-बाना बुनता रहता है। यह घनिष्ठता— आत्मीयता बढ़कर एकात्मभाव तक इतनी विकसित हो जाती है कि “स्व” की कल्पना करने पर शरीर की ही कल्पना सामने आती है। आमतौर से मनुष्य अपनी मूल सत्ता शरीर को ही मानता है और उसी के सुख-दुःखों से प्रभावित खिन्न या प्रसन्न रहता है।

आत्मा का अस्तित्व शरीर से भिन्न मानने की चर्चा जब तक जानकारी क्षेत्र तक ही सीमित रहती है। उसकी सघन अनुभूति कदाचित् ही किसी को भी होती होगी। यदि हुई होती तो आत्मज्ञान, गौरव, स्वरूप और लक्ष्य भी उभरा होता और इस प्रयोजन के लिए कुछ न कुछ ऐसा किया होता, जिसे देखकर उसकी आंतरिक बोधगम्यता का पता चलता। आत्मानुभूति का अर्थ ही शरीर के लिए लगाव में कमी आना है। शरीर जब बिराना लगने लगता है तब यह सूझ भी सूझती है कि वह किसका है और क्यों है? इन प्रश्नों का उत्तर धर्मशास्त्र और तत्त्व दर्शन एक ही देते हैं कि काया माया भगवान की है। उसे जीवात्मा के पास इसलिए छोड़ा गया है कि वह लक्ष्य प्राप्ति की लंबी यात्रा को इस वाहन पर बैठकर सरलतापूर्वक पूरी कर सके। यह एक धरोहर है जिसे ब्याजसहित वापस किया जाना है। कोषाध्यक्ष की तिजोरी में धन भरा रहता है, पर वह उसके निजी प्रयोग के लिए नहीं होता। उसे तो गिने गाँठें वेतन से ही गुजारा करना पड़ता है। जमा राशि तो सरकारी प्रयोजन के लिए अथवा शासकीय कर्मचारियों के वेतन भत्ते आदि के लिए होती है। मनुष्य शरीर की क्षमता गुजारे की परिधि से बाहर है। पशु-पक्षी, कीट-पतंग अपने शरीर से निजी गुजारा भर कर ही कर पाते हैं। पर मनुष्य तो विशालकाय जलयान की तरह है, जिस पर ढेरों यात्री बिठाए जा सकते हैं और टनों माल असबाब ढोया जा सकता है। इसका तात्पर्य इतना ही है कि निजी चरित्रचर्या का समावेश हो। अपूर्णता के जितने छिद्र बाकी है, उन्हें भरा जाए। इसके अतिरिक्त विश्व-उद्यान को सुविकसित सुरम्य बनाने के लिए अपने समूचे कौशल का नियोजन किया जाए।

उद्देश्य का ध्यान आते ही आत्मा का स्वरूप और हित सूझ पड़ता है, तब व्यक्ति के लिए आत्मपरिष्कार और लोक-कल्याण का आधार हेतु सत्प्रवृत्ति संवर्ध्दन ध्यान में आन लगता है। तराजू के जिस पलड़े में वजन ज्यादा होता है, वह नीचा हो जाता है और हलके को ऊपर उठा रहना पड़ता है। जब आत्मा की सत्ता गरिमापूर्ण हो तो उसी के हित-साधन को प्राथमिकता देनी होगी। उच्चस्तरीय जीवनचर्या का ताना-बाना बुनना पड़ेगा। ऐसी दशा में शरीर की उतनी ही उपयोगिता समझ में आती है जितनी की वस्तुतः वह है। तब आत्मा को वरीयता देनी पड़ती है और यह प्रयत्न करना होता कि इस प्रतिद्वंद्विता में आत्मा के कलेवरों को अपना न जान पाएँ। साथ ही शरीर की निर्वाह-प्रक्रिया में भी कमी न पड़े। उचित आवश्यकता का पैमाना यही है कि औसत नागरिक जिन साधनों में गुजारा चलाता है उतने में ही अपना काम चलाया जाए। इसका तात्पर्य यह होता है कि पुण्य-परमार्थ के लिए पर्याप्त अवसर-अवकाश निकल आता है। तब मनुष्य देखने में सामान्य होते हुए भी असामान्य स्तर का देवोपम जीवन जीने लगता है। परमार्थ का पलड़ा भारी पड़ता है और स्वार्थ उसकी तुलना में अधर टँगा हुआ रहने लगता है।

जब जीवनचर्या में इस प्रकार का हेर-फेर हो तो समझना चाहिए कि तत्त्व दर्शन मात्र जानकारी का, कथा-प्रवचन का विषय न रहकर यथार्थ भरी अनुभूति बन गया। तब आत्मा के अपने कर्त्तव्य और उत्तरदायित्त्व ही प्रधान दिखते हैं। उन्हीं में आसक्ति केंद्रीभूत हो जाती है। शरीर के लिए अनासक्ति होती है। उसे भगवान का उद्यान— देवालय समझकर उसी सीमा तक सद्व्यवहार किया जाता है, जितना कि माली बगीचे के प्रति और खजांची तिजोरी भरी राशि के प्रति जागरुक और कर्त्तव्यपरायण रहता है। उन्हें अपनी निज की संपत्ति नहीं मानता।

पुजारी का एक मंदिर से दूसरे मंदिर में, माली का एक बगीचे से दूसरे बगीचे में स्थानांतरण कर दिया जाए तो इससे उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती। सैनिक को इस मोर्चे से हटाकर दूसरे मोर्चे पर बदल दिया जाए तो उसे इसमें क्या आपत्ति हो सकती है?

शरीर परिवर्तन को भी ऐसा ही एक प्रसंग जो लोग मानते हैं; उन्हें मरणकाल का न तो भय लगता है और न शरीर त्यागते समय कष्ट होता है। मृत्यु प्रायः यकायक नहीं आती। दुर्घटना से तो कभी-कभी ही कोई मरते हैं। आमतौर से बीमारियाँ बुढ़ापे के रूप में शक्तियों की कमी बनकर आती है। जब आत्मा का बोझ धारण किए रहना शरीर के लिए कठिन पड़ता है तो ही टूटा मकान बदलने जैसी स्थिति आती है और वह कार्य बिना झंझट या असुविधा के पूरा हो जाता है। शरीर और आत्मा दोनों ही एकदूसरे की समुचित सेवा करने योग्य नहीं रह जाने तो झंझट मिटाने के लिए दोनों का प्रथकता के लिए समझौता हो जाता है। यही मृत्यु है। साँसारिक दृष्टि में इसे पति पत्नी के बीच आए दिन झंझट होने का निपटारा-तलाक के रूप में संपन्न हुआ समझा जा सकता है। इससे दोनों पक्षों को स्वतंत्रता भी मिलती है और राहत भी।

कष्टकर मृत्यु उन्हीं की होती है, जो शरीर को परिवार को अपनी ममता से इस प्रकार जकड़ लेते हैं, जिसका पृथककारण कठिन बन पड़ता है। मरने के समय धड़कन बंद होना उतना कष्टकर नहीं होता। जितना कि मजबूत कसे हुए भवबंधन का तोड़ना। जो मेरा है, उसे मेरे साथ चलना चाहिए और नहीं तो मुझे उसके साथ सदा-सर्वदा के लिए जुड़ा रहना चाहिए। इस मान्यता को, अभिलाषा को सृष्टि क्रम का समर्थन नहीं मिलना। परंपरा यही है कि जंग लगे लोहे को भट्टी में तपाकर गलाया जाए। पीछे उसका नया उपकरण ढाला जाए। इस सतत् परंपरा को अमान्य करने वाले ही प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष छेड़ते हैं और उससे हारते हैं। यही है मरणकाल की व्यथा जिसमें कष्टकर कारण एक ही होता है— दृष्टिकोण का अवांछनीय ढाँचे में ढला होना। भगवान की धरोहर को अपनी संपदा मानना और कायर माने जाने पर झंझट खड़ा करना। यदि वस्तुस्थिति की जानकारीमात्र न रहने देकर यथार्थता की अनुभूति तक उतार लिया जाए तो मरण रंगमंच की पर्दा बदलने जैसा लगे और उस कौतूहल को देखते हुए किसी को भी त्रास न सहना पड़े।


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