सद् चिंतन (कहानी)

July 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

काँच के दर्पण में अपना मुख दिखा तो काया की दिव्य शोभा देखकर मनुष्य फूला न समाया, पर जब अपने आचरण को देखा तो घृणा और लज्जा से सिर नीचे झुक गया। शरीर इतना सुंदर और मन इतना कुरूप। विश्व के दर्पण में अपना मुख देखा तो अहंकार गल गया। कहाँ इस जगत की चिंतन से परे विशालता और कहाँ मैं नगण्य-सा तुच्छ राजकण।

और भी गहराई में प्रवेशकर जब अपने अंतरात्मा, जीवन सौभाग्य और उमंगें हाथ बाँधे खड़े हुए उज्ज्वल भविष्य को देखा तो हृदय के कपाट खुल गए। लगा, ईश्वर की पवित्रता का प्रतीक-प्रतिनिधि मैॆ ही हूँ। अपने को जाना तो धन्य हो गया। तब न काया का अहंकार शेष था, न मन की जिज्ञासा।

अन्नातोले


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles