अपने मन को साधिए— सुसंस्कारी बनाइए

July 1987

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शरीर पर नियंत्रण मन का है। मन की प्रेरणा से ही शरीर के विभिन्न अंग अवयव काम करते हैं। प्रयत्न जिस भी दिशा में चल पड़ते हैं। प्रगति उसी दिशा में होती है; जिन्हें भौतिक समृद्धि चाहिए वे मन की दिशाधारा का सुनियोजन उस दिशा में करते हैं। उद्योग, व्यवसाय, कला-कौशल, शिल्प आदि के माध्यम से उपार्जन करते और सुसंपन्न बनते हैं।

जिन्हें आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग पर बढ़ना है, वे अपने चिंतन, चरित्र और व्यवहार में घुसी हुई त्रुटियों का निराकरण करते हैं और उस स्थान पर शालीन-सुसंस्कारिता का समावेश करते हैं। इतना कर पाने के लिए ईश्वर से शक्ति-सामर्थ्य प्रदान करने की याचना करते हैं। पूजा-प्रक्रिया, उपासना, साधना का मूलभूत प्रयोजन यही है। कांटों में भटकने और सस्ते दाम में बहुमूल्य उपलब्धियां झटकने की फिराक में रहने वालों को ही असफलताजन्य निराशा का सामना करना पड़ता है।

दोनों क्षेत्रों में कोई एक अथवा दोनों के सम्मिश्रण का लक्ष्य लेकर चलने वालों को सर्वप्रथम मन की चंचलता पर अंकुश लगाना पड़ता है, अन्यथा मन अनगढ़ कल्पनाएँ करने और बंदर की तरह अस्थिर उछल-कूद में ही अपना समय गँवा देता है। अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि में उसका योगदान नहीं के बराबर ही लग जाता है। ऐसी दशा में लक्ष्य तक पहुँचना कैसे बन पड़े?

इसलिए प्रगति का ककहरा आरंभ करते हुए सर्वप्रथम मनोनिग्रह की वर्णमाला को अपनाना पड़ता है। तत्परता और तन्मयता इसके बिना नहीं सधती और इन आधारों को अपनाए बिना प्रगति की गाड़ी आगे नहीं बढ़ती। जिस गाड़ी के घोड़े मनमर्जी से दौड़ते हैं, उनका नियत स्थान पर, नियत समय में पहुँच जाना कठिन है।

मनोनिग्रह भी ठीक वैसा ही है, जैसा मदारियों द्वारा रीछ-वानरों को इच्छित खेल-तमाशा दिखने के लिए अभ्यस्त करना। इसके लिए उन्हें दुहरा काम करना पड़ता है। एक अभ्यस्त मनमानी को छुड़ाने का, दूसरा उन क्रियाओं का अभ्यास, जो इच्छित कौतूहल दिखाने के लिए आवश्यक है।

अनगढ़, बेतुकी, अस्त-व्यस्त कल्पनाएँ, शेखचिल्ली स्तर की होती है। जिनका अवसर नहीं, क्षमता नहीं, साधन नहीं, सहयोग नहीं, संभावना नहीं, उनकी कल्पनाएँ बेतुकी उड़ानें कहलाती है। बच्चों को परीलोक की कथाएँ बहुत सुहाती है। बड़ों में से भी कितने ही ऐसे होते हैं, जो आधाररहित कल्पनाएँ करने के आदी होते हैं। उनमें उलझे रहने से निरर्थक समय व्यतीत होता है और विचारों की बहुमूल्य संपदा को निरर्थक खर्च करने की आदत पड़ती है।

इस कुटेव को छुड़ाने के लिए रचनात्मक क्रियाकलापों में खाली मन को लगाने का अभ्यास डालना चाहिए। अपने या दूसरों के सामने उपस्थित समस्याओं का कारण, स्वरूप, समाधान सोचने में मस्तिष्क को रचनात्मक-व्यावहारिक मार्ग अपनाना पड़ता है, उसके लिए जिन साधनों की जरूरत पड़ने वाली है, उन्हें जुटाने का सोच-विचार करना होता है। आर्चीटेक्ट, इंजीनियर, वकील आदि योजनाएँ बनाने वाले पहले मस्तिष्कीय ढाँचा खड़ा करते हैं। वह कल्पना जितनी यथार्थवादी, अनुभवजन्य एवं सार्थक होती है, उसी अनुपात में उसका क्रियान्वयन सरल पड़ता है और सफलता की संभावना भी बढ़ती है। कल्पना की बेतुकी उड़ान उड़ने वाले मन को अपनी-अपने संपर्क-क्षेत्र की समस्याओं का समाधान करने, प्रगति का तारतम्य बिठाने में जुटना चाहिए। इस प्रकार निरर्थकता को सार्थकता की ओर मोड़ सकना संभव बन पड़ता है। यह अभ्यास मन की रचनात्मक क्षमता को जगाता है।

मन का दूसरा दोष है— "निषेधात्मक चिंतन। इस प्रवृत्ति से छोटी-छोटी बात को बढ़ा-चढ़ाकर 'तिल का ताड़' बना लिया जाता है। संभावनाओं में आशंका, निराशा, अविश्वास, हानि, चिंता वाला पक्ष ही मस्तिष्क में घूमता रहता है। शत्रुओं के आक्रमण का, अशुभ अनिष्ट दैवी दुर्विपाक का भय बना रहता है। अपनों द्वारा विश्वासघात किए जाने की कुशंका रहती है। कभी-कभी यह प्रवृत्ति आक्रामक रूप धारण करते भी देखी जाती है। तब ईर्ष्या, द्वेष, आक्रमण, अपराध, व्यभिचार, बलात्कार, अपहरण, षडयंत्र जैसे विचार उठते हैं। उद्देश्य होता है— "प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में दूसरों को हानि पहुँचाना। डरपोक और दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति ऐसे ही चिंतन से घिरे रहते हैं। कुछ कर तो नहीं पाते पर मन को उद्विग्न रखकर अपने शारीरिक, मानसिक क्षेत्र को असीम हानि पहुँचाते हैं। इसके अतिरिक्त मस्तिष्कीय वह कोमलता भी नष्ट कर देती है, जो प्रगति के पथ पर बढ़ चलने का मार्ग सुझाती है। ऐसे व्यक्ति एक प्रकार के मानसिक रोगी हो जाते हैं। उन्हें बौड़म या सनकी समझा जाने लगता है। लोग उनका उपहास उड़ाने और अविश्वास करने लगते हैं। कल्पनाएँ मस्तिष्क की तीक्ष्णता नष्ट करती हैं और संपर्क-क्षेत्र में व्यक्तित्व को गया-गुजरा समझे जाने का माहौल बनाती है।

इस प्रवृत्ति की काट यह है कि विधेयक विचारों का जखीरा मन में जमा किया जाए। असफलता को निश्चित मानने की अपेक्षा सफलता की संभावनाओं का ढाँचा खड़ा करना चाहिए। निराशा के स्थान पर आशा को प्रश्रय देना चाहिए। अविश्वास के स्थान पर विश्वास करने की आदत डालनी चाहिए। मनस्वी और तेजस्वी व्यक्तियों द्वारा किए गए पुरुषार्थों की कथा ज्यादा पढ़नी, सुननी या स्मरण करनी चाहिए। उत्साहवर्दक अभिवचन या कथानक स्मृति पटल पर खुली हवा की तरह आने देना चाहिए। अपना भविष्य सूर्य-किरणों या चंद्रमा की चाँदनी की तरह चमकता हुआ देखना चाहिए।

अपने निज के जीवन में घटित हुई उत्साहवर्दक घटनाओं, सफलताओं का समय-समय पर स्मरण करते रहा जाए। इसके अतिरिक्त परिचित अपरिचित क्षेत्र में भी ऐसा ही कुछ हुआ हो तो उसे नोट रखना चाहिए। इतिहास-पुराणों में कथा-गाथाओं में ऐसे अनेक प्रसंग आते हैं; जिनमें शौर्य-पराक्रम की झाँकी होती है और साहस पुरुषार्थ के उदाहरण मिलते हैं। ऐसी घटनाओं को अपने स्मृति भंडार में भरना चाहिए और उनको संग्रह पूँजी की तरह जमा रखना चाहिए।

इन स्मृतियों को यदि बार-बार स्मरण करते रहा जाय तो उसके प्रभाव से अपना भी मनोबल बढ़ता है और कठिनाइयों से निपटने का शौर्य उभरता है। अनुपयुक्त विचारों को सद्विचारों से टक्कर कराते रहा जाए तो मस्तिष्क पर चढ़ा हुआ हेय चिंतन सहज ही निरस्त होता रह सकता है।

इन स्मृतियों को यदि बार-बार स्मरण करते रहा जाए तो उसके प्रभाव से अपना भी मनोबल बढ़ता है और कठिनाइयों से निपटने का शौर्य उभरता है। अनुपयुक्त विचारों को सद्विचारों से टक्कर कराते रहा जाए तो मस्तिष्क पर चढ़ा हुआ हेय चिंतन सहज ही निरस्त होता रह सकता है।

हमें उज्जवल भविष्य के सपने देखने चाहिए। भविष्य निश्चित नहीं है और बुरा-भला कैसे भी हो सकता है। इस अनिश्चितता का यदि निषेधात्म्क पक्ष लिया जाए तो प्रतीत होगा कि अगले दिनों संकट की घटाएँ टूटने वाली हैं; किंतु यदि विधेयात्मक पक्ष अपनाया जाए तो समझा जा सकता है की हर कठिनाई का हल निकल सकता है और हर प्रतिकूलता से जूझा या उसे सहा जा सकता है। आत्मगौरव और आत्मबल पर विश्वास रखने से मनुष्य अपनी हीनता से, दीनता से पिछा छुड़ा सकता है। सोचा यही  जाना चाहिए कि जब उजाले से भरा दिन नहीं रहता तो अँधेरे भरी रात सदा-सर्वदा बनी रहेगी, ऐसा  क्यों मानना चाहिए ? अपने बल और पराक्रम  को घटाकर क्यों आँकना चाहिए ? कुकल्पनाओं के जंजाल में क्यों  उलझकर अपने मनोबल को  गिराना चाहिए?




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