धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जीवन के चार प्रतिफल माने गए हैं। इन्हें आरोग्य का उत्तम फल भी कहा गया है; किंतु इस निर्धारण में विसंगतियाँ प्रतीत होती हैं और विचार करने वाले को इनका परस्पर तारतम्य मिलाने में भ्रम होता है। इस भ्रम का निराकरण आवश्यक है, अन्यथा उससे मूल सिद्धांतों एवं प्रतिफल के संबंध में भ्राँति भरा असमंजस हो सकता है। विभ्रांत मनःस्थिति में ही किसी दर्शन को, क्रियाकलाप को, प्रयोजन को ठीक तरह समझना बन नहीं पड़ता।
मोटे प्रचलित अर्थों में यह चारों प्रतिपादन एकदूसरे से असंबद्ध ही नहीं लगते; वरन विपरीत दिशा में भी जाते दिखते हैं। ‘धर्म’ शब्द को मोटे अर्थों में सांप्रदायिक मान्यताओं और पूजा-परक कर्मकांडों के साथ जुड़ा माना जाता है। धार्मिक परंपराओं के निर्वाह में भी इसका बोध होता है। यों धर्म का वास्तविक अर्थ कर्त्तव्यपालन है। पर इन दिनों वह सर्वसाधारण के मस्तिष्क में संप्रदाय विशेष बन कर रह गया है। इसी कारण एक विश्वधर्म या मानव धर्म के रूप में उसे तत्त्वज्ञानी तो समझते हैं। तथाकथित धार्मिक लोग उसे अपने कर्म में प्रचलित परंपराओं के साथ ही जोड़ते हैं और निर्धारित क्रिया-कृत्य कर लेने पर अपने को सच्चा धार्मिक समझने लगते हैं। तीर्थयात्रा अथवा अमुक कथा-कीर्तन करने वालो का धर्मात्मा कहा जाने लगता है। अथवा उसका संबंध वेश और केश के साथ भी जुड़ गया है। दान-पुण्य करने की प्रक्रिया भी धर्म के अंतर्गत आती है। इन विधाओं का निर्वाह अनेक लोग करते भी रहते हैं। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि जीवन को सफल-सार्थक बनाने वाले सूत्र उनके हाथ लग गए हैं। उथली धार्मिकता एक प्रचलन प्रणाली भर है। यदि कर्त्तव्यपालन का अर्थ किया जाए तो उसे अध्यात्म तत्त्वज्ञान या नीतिशास्त्र के आधार पर ही किया जा सकता है। धर्म-परिपाटी उसमें यत्किंचित् ही सहायक होती है। ऐसी दशा में उसे जीवन-फल कैसे माना जाए। आरोग्य का प्रतिफल कैसे कहा जाए? आवश्यक नहीं कि प्रत्येक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति धर्मात्मा ही हो। उनमें से अनेकों उद्दंड, उच्छृंखल, अनाचारी भी होते हैं। इस प्रकार यह कथन संदेहग्रस्त ही रह जाता है।
धर्म के बाद ‘काम’ शब्द आता है और उसके बाद ‘अर्थ’। इन दोनों को ही हेय वर्ग में लिया गया है। उन्हें त्यागने या अंकुश में रखने का निर्धारण है। आमतौर से काम का अर्थ कामुकता— "यौनाचार से लिया जाता है, उसे अश्लील एवं गोपनीय कहा जाता है। ब्रह्मचर्य मर्यादा के अंतर्गत उसके परित्याग की, अधिकाधिक नियंत्रण की बात कही जाती है; जिन्हें परमार्थ-प्रयोजन के महत्त्वपूर्ण कार्य करने हैं, वे संत, महात्मा, ब्रह्मचारी, परिव्राजक, विरक्त जीवन व्यतीत करते हैं; विवाह नहीं करते। ऐसी दशा में जीवन-लाभ या आरोग्य का प्रतिफल काम को कैसे कहा जाए? लोक-व्यवहार में तो ‘काम’ शब्द यौनाचार या अश्लील कर्म, कल्पनाओं के रूप में प्रयुक्त होता है।" इसी दशा में यह असमंजस उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि एक हेय प्रवृत्ति को जिसके रोकथाम के लिए प्रत्येक धर्ममंच से कहा जाता है, उसे जीवन-लाभ या आरोग्य का प्रतिफल कैसे गिन लिया गया, कैसे मान्यता दे दी गई?
तीसरी उपलब्धि 'अर्थ' मानी गई है। यहाँ अनुमान लगता है, बड़ी संपदा एकत्रित करने, धनवान-अमीर, सुसंपन्न, समृद्ध बनने से। यह हविश तो मृगतृष्णा के रूप में हर किसी में होती है। अधर्मी लोग तो इसी के लिए निछावर रहते हैं। वे नीति-अनीति का ध्यान नहीं रखते। पाप अनाचार अपनाकर भी जैसे बने वैसे संपदा बटोरते हैं। धन की अधिकता के कई दुष्परिणाम बताए गए हैं। उससे अहंकार बढ़ता है। विलासिता फूट पड़ती है, दुर्व्यसन पीछे लग जाते हैं। उत्तराधिकारी निकम्मे बनते और परस्पर लड़ते-झगड़ते है। कुछ का अमीर बनना असंख्यों को निर्धन बनाता है। ऊँची दीवार उठाने के लिए कहीं-न-कहीं गड्ढे बनाने पड़ते हैं। एक अमीर की अमीरी रखने के लिए भी यह लागू होता है। फिर अर्थ को सुयोगों में कैसे गिना गया?
अपरिग्रह व्रत है। साधु-ब्राह्मण, वानप्रस्थ, संन्यासी जैसे सम्माननीय और अनुकरणीय व्यक्ति अपने पास संपदा जमा नहीं होने देते। कई तो निर्वाह साधन— "अन्न, वस्त्र जैसे उपकरण ही स्वीकार करते हैं। पैसे को छूते तक नहीं। सामान्यजनों को औसत नागरिक स्तर का जीवनयापन करने के लिए कहा गया है। कुछ अनेकों को पिछड़ेपन की स्थिति में धकेलने के लिए दोषी होते हैं। इन्हीं कारणों को देखते हुए धन को टिकने न देने का प्रावधान है। शास्त्रकार का कथन है कि जैसे नाव में बढ़ते पानी को उलीचने में ही खैर है, उसी प्रकार बढ़ें धन को दान-पुण्य में लगा देना ही श्रेयस्कर है। उसे रोका न जाए; वरन वितरण करते हुए भ्रमणरत रखा जाए। नदी-प्रवाह के उदाहरण की तरह उसे गतिशील रखें। कुछ लोग ठाट-बाट से रहे तो अन्यान्यों को या तो वैसा अनुकरण करने की ललक उठती है या ईर्ष्या का आक्रोश उभरता है। इस आधार पर अनेकों विग्रह उत्पन्न होते और एकता-समता का संतुलन बनाए रखना कठिन हो जाता है। अधिनायकवाद से लेकर साम्यवाद तक सभी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि अगर कुछ व्यक्ति संपन्न बनते हैं तो प्रकारांतर से असंख्यों को निर्धन रहने के लिए पिछड़ेपन का अभिशाप भुगतने के लिए बाधित करते हैं। वस्तुस्थिति को देखते हुए अर्थवान धनवान बनना भी ऐसा श्रेयस्कर नहीं है, जिसे सराहा जाए या सौभाग्यवान होने जैसा कहा जाए।
चौथा निर्धारण है— ‘मोक्ष’। काम और धन के रहते मोक्ष की स्थिति कैसे बन पड़े है? जब चारों ही अनुदान मिलेंगे तो काम और ‘अर्थ’ की भी बहुलता ही रहेंगी। धर्माडंबर भले ही निभता रहे, पर वास्तविक धार्मिकता का निभ सकना भी अशक्य है।
धर्मात्मा दयालु होते हैं। वे अपने समय, श्रम का उपयोग संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति में नहीं करते; वरन सेवा-प्रयोजनों के लिए उनका हाथों-हाथ उपयोग करते रहते हैं। ऐसी दशा में उन्हें काम-कौतुक के लिए, धन-संचय के लिए अवसर ही कैसे मिले? उत्साह भी कैसे उठे? जब एक दूसरे से प्रतिकूल पड़ते हो तो उनका एक साथ निर्वाह कैसे हो? उन्हें देने की कौन उतावली करे? फिर लेने वालो को भी परस्पर विरोधी झंझटों को सिर पर लादने में क्या उत्साह हो?
'मोक्ष' की परिभाषा और भी अधिक विचित्र की जाती है। समझा जाता है कि भगवान किसी कोठी-बँगले में रहते होंगे। वहीं उन्हीं के पास शौक-मौज केवातावरणमें उनके साथ रहने का अवसर मिलता रहेगा। काम-धाम कुछ करता नही पड़ेगा। भगवान जि को शौक-मौज के साधन मिलते हैं। वे हर घड़ी समीप रहने वाले को भी मिलते रहेंगे। मोक्ष की इन दिनों मोटी परिभाषा यही है। इसी का विवरण-निरूपण कथावाचक बताते सुनाते व ललचाते रहते हैं।
विचारपूर्वक सोचने वालों के लिए यह दिवा स्वप्न है। इस बेसिर पैर की कल्पना-जल्पना का वास्तविकता की कसौटी पर किसी भी प्रकार खरापन सिद्ध नहीं होता। भगवान सर्वव्यापी है। जो सर्वव्यापी है उसका न रूप हो सकता है न स्थान। जिसका शरीर ही नहीं उसके साथ सुविधा-साधन जुड़े होने का भी प्रश्न नहीं। फिर मोक्ष के लिए लालायित व्यक्ति को उसकी समीपता में मौज मजा उड़ाते रहने का अवसर कैसे मिलेगा? इस प्रकार जीवन के चार फलों को प्राप्त कर सकने की बात सर्वथा बेतुकी ही रहती है।