शब्दशक्ति से होगी, अब रोगों की चिकित्सा

July 1987

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ध्वनि अपने आप में एक बहुत महत्त्वपूर्ण शक्ति है। जहाँ प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर यह एक ओर नादब्रह्म-शब्दब्रह्म संगीत का रूप लेकर मनुष्य की आत्मिक प्रगति का पथ-प्रशस्त करती है, वहाँ दूसरी ओर प्रकृति के विरुद्ध होने पर यह मनुष्य को पागल बना सकती है, प्रलय ला सकती है, ध्वनि-प्रदूषण द्वारा समष्टिगत हानि पहुँचा सकती है। शब्दशक्ति को, ध्वनि को चेतना की ऊर्जा— ईंधन माना गया है। कभी इससे मात्र जानकारी प्राप्त करने व आदान-प्रदान का प्रयोजन भर पूरा होता था; किंतु अब विज्ञान के विकास ने उसे एक उच्चस्तरीय शक्ति के रूप में ला खड़ा कर दिया है। शब्दशक्ति को लेसर से भी अधिक सामर्थ्य भरा शक्तिपुंज कहा गया है एवं इसी के आधार पर विज्ञान ने खगोल जगत में ब्रह्मांडीय आदान-प्रदान की तथा काय जगत में सूक्ष्मतत्त्वों की जानकारी एवं चिकित्सा की शोध उपलब्धि अर्जित की है।

वर्त्तालाप-परामर्श में प्रयुक्त बैखरीवाणी का प्रसंग छोड़ हम ऊँचे सोपान पर चढ़ मध्यमा, परा, पश्यंती का साधना-क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में विवेचन करें, तो पाते हैं कि इंद्रियातीत अनाहत बिंदु रूप में— शब्दब्रह्म-नादब्रह्म के रूप में शास्त्रकारों ने इसकी महिमा को बड़ी गंभीरता से प्रस्तुत किया है। उनका यह विवेचन, पूर्णतः विज्ञानसम्मत भी है। शब्दब्रह्म अर्थात गद्य उच्चारण, नादब्रह्म अर्थात संगीत के रूप में तालबध्द वादन-गायन। मंत्र विज्ञान इसी क्षेत्र से उद्भूत विधा है, जिसका अवलम्बन लेकर आत्मिक प्रगति का पथ-प्रशस्त किया जाता है। यही शक्ति, शाप व वरदान के रूप में परिलक्षित होती देखी जा सकती है। प्राचीनकाल में जिन दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होता था, उनमें शब्दशक्ति की ऊर्जा से चालित उपचारों के प्रयोगों का उल्लेख होता है कि यह कितनी सूक्ष्म; किंतु सामर्थ्यवान शक्ति है।

'ओम' शब्द आर्ष वाँग्मय में महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'ओम्' शब्द के उच्चारण से सूक्ष्म; किंतु शक्तिशाली तरंगों की उत्पत्ति होती है, जिसे मौलिक ध्वनि माना गया है। अ, उ एवं म, से मिलकर बना ओम् शब्द इस घटाकाश, निखिल ब्रह्मांड का बोध कराता है। यह अविनाशी परब्रह्म सत, रज, तम रूपी तीन गुणों, तीन गुणों, तीनों कालों एवं ब्रह्मा, विष्णु, महेश त्रिदेवों का परिचायक भी है। प्रत्येक मंत्रोच्चार ॐकार के बिना अपूर्ण है। इसके बिना शब्दशक्ति की चर्चा ही अपूर्ण है।

मंत्रशक्ति एवं संगीतशक्ति इन दोनों का ही विशिष्ट माहात्म्य के साथ विज्ञानसम्मत विवेचन हमारे आर्ष ग्रंथों में हुआ है। वस्तुतः शब्द विज्ञान की इन दो महत्वपूर्ण विधाओं को इस मंत्र युग में जाना एवं महत्त्व नहीं दिया गया है। यदि चेतना के इस अनुसंधान की गहराई में जाना संभव हुआ तो मनुष्य को इतने महत्त्वपूर्ण रत्न हस्तगत हुए होते, जिनकी तुलना भौतिक वैभव से कभी भी नहीं की जा सकती। ऋग्वेद और सामवेद के साथ-साथ आयुर्वेद एवं गांर्धर्ववेद का उल्लेख इस प्रसंग में किया जाता है। आयुर्वेद, ऋग्वेद का उपवेद है, एवं गांर्धर्ववेद, सामवेद का। आयुर्वेद के पितामह माने जाने वाले अश्विनी कुमार विरचित भैषजतंत्र में इस संबंध में महत्त्वपूर्ण संकेत दिए गए हैं।

भैषजतंत्र में चार प्रकार के भैषज बताए गए हैं—  पवनौकष, जलौकष, वनौकष और शाब्दिक। इसमें अंतिम शाब्दिक भैषज से द्विदेवों का आशय है— मंत्रोच्चारण एवं लयबद्ध गायन। जहाँ आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ चरक संहिता, सुश्रुत संहिता आदि में सन्निपात, ज्वर, दमा, मधुमेह, हृदयरोग, ट्यूबरकुलोसिस, पीलिया, अल्पमंदता आदि रोगों में मंत्रों से उपचार का उल्लेख हुआ है, वहाँ सामवेद में ऋचाओं के गायन द्वारा रोगमुक्ति का माहात्म्य बताया गया है। मंत्रोच्चार से उत्पन्न ध्वनि-प्रवाह व्यक्ति की समग्र चेतना को प्रभावित करता है और उसके कंपन अंतरिक्ष में बिखर कर समष्टि चेतन-सत्ता को प्रभावितकर परिस्थितियों में अनुकूलन लाते हैं। कंठ, जिव्हा, तालू आदि मुख्य अवयवों को सोद्देश्य विरचित, सुगठित शब्द-समुच्चय के उच्चारण में भिन्न-भिन्न प्रकार की हलचलें करनी पड़ती हैं, जिनका प्रभाव स्थूलशरीर के अंग-प्रत्यंग पर तो पड़ता ही है, सूक्ष्मशरीर स्थित उपत्यिकाओं, नाडी़-गुच्छकों, विद्युत-प्रवाहों पर भी इनका प्रभाव पड़ता है। कोई भी शक्ति सबसे पहले अपनी उत्पादन स्थली को प्रभावित करती है, आग जहाँ जंमती है, गरमी पहले वहीं जंमती है। उसका विस्तार पूरे क्षेत्र में बाद में होता है। इसी प्रकार मंत्रोच्चारण से उद्भूत ऊर्जा से साधक का व्यक्तित्व सबसे पहले एवं सर्वाधिक प्रभावित होता है। मंत्रशक्ति को शब्दबेधी बाण की तरह माना जा सकता है, जो कायसत्ता के सूक्ष्म अवयवों से टकराते व उन्हें प्रभावित करते हैं। किस अवयव को किस सीमा तक प्रभावित किया जाए, यही ध्यान रखते हुए मंत्रों का गठन एवं उच्चारण द्वारा सुनियोजन किया जाता है।

वैज्ञानिकों ने पाया है कि समवेत स्वर में उच्चरित मंत्र पृथ्वी के आयनमंडल को घेरे विशाल भूचुंबकीय प्रवाह शूमेन्स-रेजोनेन्स से टकराते व लौटकर समग्र पृथ्वी के वायुमंडल को प्रभावित करते हैं। यह एक विचित्र साम्य है कि शूमेन्स-रेजोनेन्स के अंतर्गत जो गति तरंगों की रहती है, वही गति मंत्रोच्चारण करने वाले साधकों की एकाग्रता-तन्मयता की स्थिति में मस्तिष्क से रिकार्ड की जाने वाली अल्फा तरंगों की (7 से 13 सायकल प्रति सेकेंड) होती है। व्यक्ति चेतना व समष्टि चेतना में कितना सघन तादात्म्य है, इसकी साक्षी यह वैज्ञानिक उपलब्धि देती है। यही नहीं, अध्यात्म विज्ञान के प्रवक्ता मंत्र द्वारा शाप, वरदान, रोगमुक्ति, मारण, मोहन, उच्चाटन, अभिचार, कृत्याघात आदि प्रयोगों का दावा करते हैं एवं कर भी दिखाते हैं।

लय-तालबद्ध गायन, संगीत के रूप में दूसरी शब्दशक्ति की महत्त्वपूर्ण विधा है, जिसका यदि सुनियोजन किया जा सके तो प्रकृति में वाँछित परिवर्तन एवं कायसत्ता को रोगमुक्त करना संभव है। संगीत न केवल तनाव शैथिल्य लाता है, अनेकानेक मनोविकारों के उपचार की एक विज्ञानसम्मत विधा भी है। ताल और लय के समुच्चय को ही स्वर विज्ञान कहते हैं। थपकी ताल कहलाती है और आलाप को स्वर कहते हैं। दोनों के मिलन के समग्र संगीत बनता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की घराना परंपरा के अंतर्गत विभिन्न राग-रागनियों का आलाप एवं वीणा, सितार, तबला, तानपूरा, मृदंग आदि यंत्रों के माध्यम से गायन-वादन का क्रम काफी समय से चलती आया है। इसका मध्यकाल में प्रायः मनोरंजन हेतु प्रयोग होता था, नहीं तो इसमें अपरिमित सामर्थ्य विद्यमान हैं। संगीत के सुनियोजन से रोग-निवारण, भावनात्मक अभ्युदय, स्फूर्तिवर्ध्दन, वनस्पति उन्नयन एवं प्राणियों की कार्यक्षमता में विकास जैसे महत्त्वपूर्ण लाभ संभव हैं। इस माध्यम से आनंद भरी परिस्थितियाँ उत्पन्नकर संवेदनाओं को भाव-तरंगों से जोड़कर मनःस्थिति में वांछित परिवर्तन भी लाया जा सकता है। जड़-चेतन सभी पर संगीतशक्ति का प्रभाव पड़ता है, यह अब प्रमाणित किया जा चुका है।

गायन-वादन के अंतर्गत संगीत के छः प्रमुख राग हैं, जिनका गांर्धर्ववेद में उल्लेख आता है। ये हैं— श्री राग, भैरवराग, हिंडोल राग, मालकौंस राग, विहार राग एवं मेघ राग। इन्हीं की पाँच से छः तक भिन्न विद्वानों ने समय-समय पर भिन्न रागों के सम्मिश्रण से नए राग तैयार किये हैं। इन्हें कब, किस समय, किस ऋतु में बजाया जाए, इसका शास्त्रोक्त विधान है। वाँछित प्रतिफल तभी मिलता है, जब इन नियम-उपनियमों का पालन किया जाए। यही नहीं, गायक की पात्रता एवं पवित्रता भी उतनी की अनिवार्य है। गांर्धर्ववेद में कहा गया है—

जपादि अष्टगुणम् ध्यानः, ध्यानादि अष्टगुणं तपः।

तपसा अष्टगुणम् गानम् गानात् परत्परम्॥

वक्ता और श्रोता दोनों के ही चेतना के स्तर का विकसित होना गायन की सफलता के लिए अनिवार्य माना गया है। यही सब शर्तें पूरी होने पर प्राचीनकाल में संगीतशास्त्र के ध्वनि-प्रवाहों के प्रभाव भी देखे जाते थे। दीपक राग से बुझे दीपक जल जाते थे, मेघमल्हार राग बादलों को बरसने के लिए विवश कर देता था, मोहन राग साँपों को लहराता व हिरनों को स्तब्ध कर देता था, राग शंकर मदोंमत्त हाथियों को वशवर्त्ती करने में समर्थ था, श्री राग सूखे वृक्षों को हरा बनाने की सामर्थ्य रखता था। यह सब लोकोक्ति नहीं, वास्तविकता है। अब तो रोगोपचार में गांर्धर्ववेद के विभिन्न प्रयोगों का अनुसंधान भी किया जाने लगा है। इससे लगता है आने वाले वर्षों में संभवतः डिस्क आडियो कैसेट बनाने वाली कंपनियाँ भिन्न-भिन्न रोगों के लिए वैदिक सूक्तों को रागों में लयबद्धकर प्रस्तुत करने लगें एवं सैनिटेरियमों में उनका उपयोग होने लगे। यह प्रयोग ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान द्वारा तो किए ही जा रहे हैं, भारत में महर्षि गांर्धर्ववेद विश्वविद्यापीठ तथा विदेश में भी विभिन्न विश्वविद्यालयों में संपन्न हो रहे हैं।

रोग-निवारण में संगीतशक्ति किस प्रकार अपनी भूमिका निभाती है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए विद्वान बताते हैं कि जिस प्रकार आयुर्वेद में बात, पित्त, कफ की मान्यता द्वारा निदान किया जाता है, उसी प्रकार गांर्धर्ववेद में वात की 'सम्यक् माधुर्य', पित्त की 'सम्यक् तीव्रता' एवं कफ के 'सम्यक् तारता' का प्रावधान है। जिस प्रकार कायगत वायु, अग्नि एवं जल में असंतुलन से भिन्न रोग उत्पन्न होते बताए जाते हैं, उसी प्रकार विभिन्न रागों का सुनियोजनकर मानव की प्रकृति का सही निदान एवं उपचार किया जाना संभव है। यही नहीं वैद्यक एवं संगीत की जानकारी रखने वाला विशेषज्ञ आयुर्वेद एवं गांर्धर्ववेद का पर्याप्त संतुलन बनाए रख, मात्र वनौषधिसेवन एवं संगीतशक्ति से असाध्य-से-असाध्य रोगों की चिकित्सा कर सकता है। संभवतः इसीलिए शास्त्रों में वैद्यों के लिए संगीत का ज्ञान अनिवार्य बताया गया है।

विद्वान बताते हैं कि कफ के कुपित होने से संभावित रोगों में, राग भैरवी, मानसिक चंचलता एवं क्रोध की स्थिति में राग मल्हार, सौरत एवं जैजैवंती तथा रक्त की अशुद्धि की स्थिति में राग आस्सावरी का प्रयोग होना चाहिए। श्वाससंबंधी असह्यकष्ट, तपेदिक, खाँसी, दमा आदि में राग भैरवी के प्रयोग का तथा मेदावृद्धि, यकृत-प्लीहावृद्धि में राग हिंडोल का प्रावधान है। जठराशयसंबंधी रोगों से मुक्ति हेतु पंचम राग गाए जाने का उल्लेख है। कहा जाता है कि तानसेन के गुरुभाई बैजू बावरा ने राग पूरिया सुनाकर राजा राजसिंह को अनिंद्रा रोग से मुक्ति दिलाई थी। भारत के प्रसिद्ध संगीतज्ञ ओंकार नाथ ठाकुर ने इटली के तानाशाह मुसोलिनी, जिसे अनिंद्रा रोग था; को अपने गायन से ही सुला दिया था। यही बात पंडित पलुस्कर एवं डागरबंधु के बारे में भी कही जाती है।

एलोपैथी ने अल्ट्रासाउण्ड को मान्यता देकर शब्दशक्ति की महत्ता तो मान ली है; किंतु वे उसकी उतनी गहराई तक नहीं पहुँच पाए हैं, जहाँ तक हमारे ऋषिगण मंत्रविद्या एवं संगीतशक्ति के माध्यम से पहुँचने में सफल हुए थे। अमेरिका के पिट्सवर्ग शहर के समीप डॉ0 राल्फ लाॅरेन्स ने भी संगीत से रोग-निवारण की आर्षपद्धति के आधार पर एक आश्रम की स्थापनाकर अनेक रोगियों को कष्टों से मुक्ति दिलाई है। डॉ0 पोडोलेस्की एवं डॉ0 बर्नर मैकफेडेन भीं इस विधा में सक्रिय हैं एवं वे सारा उपचार सोनोथेरेपी के माध्यम से ही करते हैं।

वस्तुतः शब्दतत्त्व में असाधारण जीवनदात्री क्षमता है। मंत्रोच्चारण एवं संगीत द्वारा इनका सही उपयोग यदि किया जा सके, तो विज्ञान की प्रगति की दिशा में अग्रसर मानव को चेतना को मथ देने वाली एक महत्त्वपूर्ण शक्ति का स्रोत हाथ लग सकता है। हम इस चिरपुरातन; किंतु विज्ञानसम्मत पद्धति को अपनाकर निश्चित ही उज्ज्वल भविष्य की नई संभावनाएँ विनिर्मित कर सकते हैं।


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