आस्तिकता-विवेकवानों को फलती है!

July 1987

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आस्तिकता— "मानव जीवन में समाहित उत्कृष्टता का मापदंड।" सर्वव्यापी परमेश्वर हमारे गुप्त-प्रकट सभी कृत्यों को जानता है और तदनुसार भला-बुरा कर्मफल प्रदान करता है। इस मान्यता के आधार पर ही हमारी नीतिमत्ता सुरक्षित रहती है। नास्तिक निरंकुश होता है। उसे उद्दंडता अपनाने में दैवी-अनुशासन का भय नहीं रहता। तत्काल फल न मिलने पर वह इतनी दूरदर्शिता नहीं अपना पाता कि यहाँ देर है, अँधेर नहीं। जिसे कर्मफल पर विश्वास होगा, वह पाप की अपेक्षा और पुण्य-परमार्थ के संचय में निरत रहेगा। यही है सर्वतोमुखी प्रगति और सुनिश्चित सुख-शांति का मार्ग।

परब्रह्म को सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय भी कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में उत्कृष्ट आदर्शवादिता भी है। ईश्वर-।उपासना का तात्पर्य है उसी के ढाँचे में अपने गुण-कर्म-स्वभाव को ढालना— "मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखना"— "सज्जनोचित सदाशयता में अपने आपको ओत-प्रोत करना। आस्तिकता की यही अवधारणा वास्तविक है और श्रेयस्कर भी। जहाँ वह रहेगी वहाँ आध्यात्मिकता भी आत्मावलंबन के रूप में रहेगी और व्यवहार में धार्मिकता, कर्त्तव्यपरायणता के रूप में दृष्टिगोचर होती रहेगी।"

सच्ची आस्तिकता में साधक परमेश्वर को आत्मसमर्पण करता है। उसके अनुशासन में चलता है। अपनी रीति-नीति ऐसी बनाता है, जो ईश्वर भक्त को शोभा देती है। नाला अपने आपको जब नदी में मिलाता है तो उसी के प्रवाह में उसी के अनुरूप बहता है। ईंधन जब अग्नि को समर्पित होता है तो अपने में आग के सारे गुण समाहित कर लेता है। समर्पण ही ईश्वरभक्ति है। उसमें कामना के लिए कोई गुँजाइश नहीं रहती। केवल उसी की इच्छा को समझने, अपनाने के लिए मानस तैयार करना पड़ता है। दृष्टिकोण में ऐसा बदलाव लाना पड़ता है कि कामनाएँ, लिप्साएँ, तृष्णाएँ, महत्वकांक्षाएँ शेष ना रहे, केवल प्रभु की इच्छा को अपनी इच्छा बना लेने का कायाकल्प जैसा सर्वतोमुखी परिष्कृत प्रयास चल पड़े। इसकी सीधी परिणति होती है। चिंतन में, चरित्र में, व्यवहार में, आदर्शवादी-उत्कृष्टता का समावेश। जिसके जीवनक्रम में जितनी शालीनता भर चले, समझना चाहिए कि उससे उतनी ही सार्थक भक्तिभावना सध रही है।

देखा जाता है कि तथाकथित भक्तजन तथ्यों के सर्वथा विपरीत मानस बनाए रहते हैं और प्रतिकूल आचरण से व्यक्तित्व को भरे रहते हैं। देवताओं को जिस-तिस कर्मकांड के सहारे अपना गुलाम बनाने की चेष्टा करते हैं, और उनसे उचित-अनुचित मनौती मनाते रहते हैं। इसी प्रयोजन के लिए छुट-पुट भेंट-पूजा चढ़ाते और स्तवन के रूप में प्रशंसा के पुल बाँधते हैं। यह समूचा आडंबर एक ही प्रयोजन के लिए होता है कि मनोकामनाएँ पूरी होने लगे। संकट टलते रहें और प्रतिकूलताओं का अनुकूलता के रूप में परिवर्तन बन पड़े। वातावरण बदले। परिस्थितियाँ अनुरूप, अनुकूल ढले।

इसे कहते हैं— "थोड़ा देकर बहुत पाने का व्यवसाय। समझना चाहिए कि चिड़ियों और मछलियों को जरा से चारे का लोभ दिखाकर जाल में फंसाया और उनका मलीदा बनाया जा सकता है। देवताओं की पूजा-पत्री करते समय भी यही रीति-नीति अपनाई जाती है। उनसे मनचाहा माँगने और हठपूर्वक पूरा कराने का आग्रह रहता है। जिसकी पात्रता नहीं है, उसके लिए भी अनुग्रह माँगा जाता है।" जो न्यायोचित नहीं है, उसे भी देने के लिए कहा जाता है। यह विचार नहीं किया जाता कि देवता को भी उचित-अनुचित का न्याय-अन्याय का विचार करने के लिए अवसर मिलना चाहिए। वे तनिक सी पूजा-सामग्री के लोभ में औचित्य को तिलाँजलि देते रहे, और जो माँगा गया है, उसे देते रहे तो फिर पात्रता विकसित करने की किसी को भी क्या आवश्यकता रहेगी? फिर “सब धान बाइस पसेरी’ के भाव बिकेगा।” जो भी पूजा का प्रलोभन दिखाएगा, जो भी प्रशंसा के पुल बाँधेगा, वह भक्त कहलाएगा। जो माँगे सो पाए की रीति चल पड़ी तो फिर पात्र-कुपात्र का, खरे-खोटे का विचार करने की क्या आवश्यकता रह जाएगी? कर्म फल का सिद्धांत कहाँ जीवित रहेगा? परिश्रम के प्रयास पात्रता के अनुरूप पाने का सिद्धांत तो समाप्त ही हो जाएगा। रिश्वत का ही बोलबाला चल पड़ेगा। लोक-व्यवहार में तो लाभाँश का एक बड़ा भाग रिश्वत में देना पड़ता है, पर देवताओं को तो थोड़े में से ही फुसलाया जा सकता है। उनके लिए तो अक्षत-पुष्प जैसी पाई-पैसे की रिश्वत ही पर्याप्त समझी जाती है। चापलूस— "झूठी प्रशंसा के पुल बाँधते और भोले लोगों को मूर्ख बनाकर उनकी जेब काटते हैं। देवताओं को ऐसी ही बालबुद्धि का समझा जाए और उन्हें झुनझुना, गुब्बारा देकर फुसलाने का जुगाड़ बिठाया जाए तो इसे अनहोनी को होनी बनाकर दिखाने की बाजीगरी ही समझा जाएगा। तथाकथित भक्त लोग ऐसी ही तिकड़म-भिड़ाते हैं। और देवताओं को रिश्वती, खुशामदखोर, अविवेकी, के रूप में बदनाम करते हैं।"

विचारणीय है कि क्या “अंधेर नगरी बेबूझ राजा” की लोकोक्ति भक्त और भगवान के प्रसंग में चरितार्थ होती रह सकती है? क्या पात्रता का सिद्धांत सर्वथा उपेक्षित हो सकता है? क्या प्रयास-पुरुषार्थ का कर्मफल वाला - अनुशासन निरस्त किया जा सकता है? क्या पूजा-पाठ का अर्थ योग्यता और प्रयत्नशीलता की आवश्यकता को समाप्त करना है? क्या याचक और दाता की औचित्य की सीमा लाँघना है। क्या ऐसा करके वे दोनों ही अपनी गरिमा गिराते नहीं?

ऐसी पूजा-पत्री फलदायक सिद्ध नहीं हो सकती, जिसमें मुफ्त ही मनोकामना पूर्ण करने की रीति-नीति जुड़ी हुई है। पर चाहने पर भी ऐसा होता नहीं है। मुफ्तखोरों की झोली मणि-माणिकों से भरती नहीं है। असंभव को संभव बनाने के प्रयास में कहाँ किसे कब कितनी सफलता मिलती है? यदि पूजामात्र से मनोरथ सिद्ध हुए होते तो पुजारियों के पौ बारह रहते। उनके घर सोने-चाँदी से बने होते। कर्मकांडी पंडितों को कुबेर जैसा धनी और इंद्र जैसा समर्थ देखा जाता, उन्हें तो सभी देवताओं के जंत्र-मंत्र आते हैं। भगवान को रिझाने के लिए विविध विधि कीर्तन-कौतुक करने वालों की एक भी मनोकामना अधूरी न रहती।

भक्ति का उद्देश्य अपने आपको देवता के प्रति, देवत्त्व के प्रति समर्पित करना है। मनुष्य में देवत्त्व का उत्पादन-अभिवर्ध्दन प्रत्यक्षीकरण करना है। इसी प्रकार भजन-पूजन बन पड़ता है और उसका प्रयोजन पूरा होता है। प्रामाणिकता, पवित्रता, प्रखरता और उदार सेवा-भावना के आधार पर ही देवता प्रसन्न होते, अनुग्रह करते और वरदान देते देखे जाते हैं। यही यथार्थता है। पर जो लोग वास्तविकता से आंखें मूँद लेते हैं और चतुरता भरी तिकड़म-भिड़ाकर सस्ते प्रलोभन के बदले बहुमूल्य वरदान पाना चाहते हैं, उन्हें निराश ही रहना पड़ता है। पूजा के छद्म में जो समय-श्रम लगता है, वह बेकार चला जाता है। उपचारों में नियोजित किए गए साधन भी निरर्थक चले जाते हैं।

आस्तिकता कृषि कर्म जैसी उद्यान आरोपण जैसी प्रत्यक्ष फलदायिनी पुण्य-प्रक्रिया है। उस हेतु जो बोया जाता है, वह सहस्र गुना फलता है। किंतु आवश्यकता इस बात की है कि उसमें खाद-पानी की कमी न रहने दी जाए। आध्यात्मिकता, आत्मपरिष्कृति खाद है और धार्मिकता-कर्त्तव्यपरायणता पानी। जो इन दोनों की व्यवस्था नहीं करते और देव अनुग्रह का प्रतिफल पाना चाहते हैं; उन्हें अविवेकी ही कहा जाऐगा, बुद्धिहीन भी।


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