अगला समय गिरने का नहीं उठने का है !

July 1987

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इक्कीसवीं सदी कि लिए लोग बड़ी-बड़ी आशाएँ लगाए बैठे हैं, सोचते हैं— वैज्ञानिक सुख-सुविधाएँ अब की तुलना में बहुत अधिक बढ़ जाएगी। कम्प्यूटर मनुष्य के दिमाग का काम कर दिया करेंगे और शरीर को टानिकों के आधार पर स्वस्थ रखा जाएगा। उत्पादन इतना अधिक होगा, वेतन इतना अधिक बँटेगा कि किसी को किसी बात की कठिनाई नहीं रहेगी। सब लोग खुशहाली भोगेंगे।

पर यह सोचने वाले भूल जाते हैं कि बीसवीं सदी के शेष महीनों का जंगल इतना बड़ा पड़ा है कि उसे पार करने में नानी याद आएगी। यदि तृतीय विश्वयुद्ध हुआ तो यह बीसवीं सदी के अंत तक ही निपट लेगा। उसके लिए इक्कीसवीं सदी तक की प्रतीक्षा न करनी पड़ेगी।

वर्तमान और भावी परिस्थितियों का मूल्यांकन करते हुए समय के मूर्धन्य पर्यवेक्षकों ने अपने-अपने ढंग से अनुमान लगाए हैं। इनमें से अधिकांश निराशावादी हैं और वे निकट भविष्य में आने वाले संकटों को ही बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। उनकी आशंकाएँ तर्कों और तथ्यों पर अवलंबित हैं। पर कुछ ऐसे भी हैं, जो विश्वास करते हैं कि समझदार मनुष्य  ऐसी नासमझी न करेगा; जिसे अपने पैरों कुल्हाड़ी मारना कहा जा सके। विपत्ति की बेला आने से पूर्व ही वह अपने कदम वापस लेंगे और उस राह पर चलेंगे, जो उसे किसी लक्ष्य तक पहुँचाती है।

सुखद भविष्य की मान्यता रखने वाले कितने ही व्यक्ति हैं। उनमें से एक हैं— हडसन इन्स्टीट्यूट के निर्देशक, श्री हरमन कान। उनने अपनी पुस्तक “दि नैक्स्ट 200 ईयर्स- 'ए सोनेटरी फॉर अमेरिका एण्ड वर्ल्ड' में यह बताने का प्रयत्न किया है कि बढ़ता हुआ विज्ञान, युद्ध को असम्भव बना देगा। उसे आत्महत्या की सामूहिक नीति अपनाकर ही लड़ा जा सकता है। लेखक विश्वास करते हैं कि ऐसा समय किसी की कल्पना या योजना में भले ही हो, पर वह कठिनाइयों को देखते हुए कभी कार्यांवित, चरितार्थ न हो सकेगा।

इसी मत की पुष्टि विश्व-परिस्थितियों के विश्लेषणकर्त्ता विद्वान विलियम ब्राउन-लियन्मार्टेल आदि ने की है। वे वर्तमान समस्याओं और संकटों की यथार्थता तो स्वीकार करते हैं, पर साथ ही यह भी मानते हैं कि पिछले दो युद्धों का अंत जिस प्रकार संधि के रूप में हुआ, इस बार भी विनाश के निकट पहुँचते-पहुँचते विश्वनेता कोई कामचलाऊ संधि कर लेंगे। जिससे समय भय भी बना रहे और प्रगति के लिए किया जाने वाला कार्य भी न रुके।

अभी तक पृथ्वी का दोहन हुआ है। उसी पर पड़े या गढ़े खनिजों का, दृश्यमान प्रकृतिसंपदा का, दोहन हुआ है। समुद्र 70 प्रतिशत है और समुद्र का आयतन 70 प्रतिशत यह दो तिहाई भाग न तो निरर्थक है और न इस योग्य कि उसे उपेक्षा के गर्त्त में डाले रखा जाए। अब मनुष्य का ध्यान इस ओर मुड़ेगा तो जहाँ-तहाँ उभरे टापुओं की अनगढ़ भूमियों को भी विकसित किया जा सकेगा। जैसा कि जापान का एक छोटा जखीरा प्रगति और परिस्थितियों को तालमेल मिलाकर देखने से अनुपम दीख पड़ता है। धरती पर अभी इतनी जमीन बाकी है, जिन पर सैकड़ों नए जापान बसाए जा सकें और उन्हें हर दृष्टि से समृद्ध किया जा सके। समुद्र में प्राणीसंपदा, रसायन और वनस्पतियाँ इतनी अधिक हैं कि वे हजारोंवर्षों तक मनुष्य की निर्वाह समस्या का समाधान कर सकती हैं। समुद्रतल पर तैरती हुई बस्तियाँ बनने और स्थिर एवं गतिशील बनाए जा सकने की पूरी-पूरी संभावना है। ऐसी दशा में जिस भूमि या व्यवसाय को लेकर इन दिनों जो आपा-धापी चल रही है, उसकी उत्पादन, अभिवर्ध्दन बढ़ जाने की दिशा में कुछ भी आवश्यकता न रहेगी। लोग छीन-झपट की अपेक्षा वैज्ञानिक आधार पर अपने सुविधा साधन बढ़ावेंगे। नएपदार्थ विनिर्मित करेंगे। जैसे कि प्लास्टिक के इतने अधिक विकास की गुंजाइश है कि उसकी मजबूती को देखते हुए मकान, रेल, वायुयान ही नहीं विशालकाय कारखाने भी खड़े किए जा सकें। धातुएँ कम पड़ जाने की स्थिति में उसका स्थान कृत्रिम प्लास्टिक ग्रहण कर लेगा। यही बात अन्य क्षेत्रों में भी होगी। ऊर्जा का दोहन सूर्य से होगा और समुद्र का खारी पानी मीठा बनाकर पेय आवश्यकता की पूर्ति तथा भूमि सिंचाई के निमित्त सहज ही काम में लाया जा सकेगा।

तब मकान ही नहीं खेत भी कई मंजिले बनने लगेंगे। इससे कृषि उत्पादन की भूमि की समस्या का समाधान निकल आवेगा। पर्वत भी निरुपयोगी नहीं रहेंगे। नदियों का पानी समुद्र तक पहुँचने से पूर्व ही रोककर मानवी प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त कर लिया जाया करेगा। कचरे की समस्या, उसे भूमि में दबाकर सड़ाने या खाद बनाने के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहेगा।

इस प्रकार अभी जहाँ गतिरोध दीख पड़ता है, वहाँ ऐसे नये स्रोत हाथ लगेंगे, जिनके सहारे पृथ्वी पर सैकड़ों हजारों वर्षों तक बिना किसी नई खोज से सुखपूर्वक रहा जा सके।

फ्राँसीसी लेखक सेवास्तिया मर्सिये ने अपनी पुस्तक “ला 2800” में अगले 800 वर्षों का खाका खींचा है और कहा है कि जनसंख्या वृद्धि का पूर्ण नियंत्रण न होने पर भी इस पृथ्वी में इतनी गुंजाइश है कि आगत 800 वर्षों तक बिना किसी कठिनाई के अब की अपेक्षा अधिक सुविधा भरा जीवन जीने का अवसर मनुष्य को मिल सके।

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जब जीवित थे तब उन्होंने भी अपनी कल्पना थोड़ी आगे तक दौड़ाई थी और अगले दिनों को अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर बताया था।

अमेरिका की ‘फोवर्स’ पत्रिका में विश्व पर्यवेक्षण संबंधी मसला ही प्रधान रूप में रहता है। उसने बदलते हुए राजनैतिक परिवेश को देखते हुए भविष्यवाणी की है कि अब के मूर्धन्य देश जिस प्रकार अपनी शक्तियों का अपव्यय कर रहे हैं, उसे देखते हुए वे अगले दिनों खोखले हो जाएंगे और नवोदित राष्ट्रों में से कई ऐसे उभरेंगे जो अपनी सुदृढ़ता का लाभ न केवल स्वयं उठायें वरन् उन्हें देशवासियों को देते हुए सार्वभौम प्रगति में अपना कहने लायक योगदान दे सकें। ‘फोवर्स’ के अनुसार 21 वीं सदी में भारत विश्व की मूर्धन्य शक्ति होगा और वह अस्त्रों के बल से नहीं, अपनी नैतिकता और साहसिकता के सहारे उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच चुकेगा। उसके पास प्राकृतिक सम्पदा के इतने स्रोत अगले दिनों भी बने रहेंगे कि वह अपना तथा दूसरों का भला कर सके।

शान्तिवादी ‘एफेयर्स’ का कथन है कि आज की समस्याओं की ओर से हम सतर्क भर रहें। तैयारी पूरी समय की करें। वे तैयारियाँ इतनी मूल्यवान होंगी जिनकी

अपने समय की प्रख्यात लेखिका मेरी स्टोव किशोरावस्था में बहुत सुन्दर लगती थी। इसकी चर्चा और प्रशंसा भी बहुत होती थी। इस पर लड़की को गर्व रहने लगा और वह इतरा कर चलने लगी।

बात पिता को मालूम हुई। तो उन्होंने बेटी को बुलाकर प्यार से कहा- बच्ची किशोरावस्था का सौंदर्य प्रकृति की देन है। इस अनुदान पर उसी की प्रशंसा होनी चाहिए।

तुम्हें गर्व करना हो तो साठ वर्ष की उम्र में शीशा देखकर करना कि तुम उस प्रकृति की देन को लम्बे समय तक अक्षुण्य रख कर अपनी समझदारी का परिचय दे सकीं या नहीं।

तुलना में आज की समस्याओं से जूझना खिलवाड़ प्रतीत होगा। मनुष्य की बुद्धि, प्रतिभा और दक्षता की परीक्षा अगले दिनों होगी, जब वह उलझनों की सुलझाने और प्रगति का नया पथ-प्रशस्त करने के लिए अपने कौशल का श्रेष्ठतम उपयोग करने की परीक्षा में उतरेगा। विश्वास किया जाना चाहिए कि हम पीछे नहीं हट रहे, आगे बढ़ रहे हैं। हम खड्ड में गिरने की अपेक्षा पर्वत शिखर पर चढ़ने की बात सोचेंगे और लगन तथा तत्परता बनाये रख कर हम अभ्युदय के लक्ष्य तक पहुँच कर भी रहेंगे।


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