बहिर्मुखी ध्यान एवं उसका प्रयोग-व्यवहार

July 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनःक्षेत्र के विकास-परिष्कार के लिए ध्यान-धारणा का उपचार अमोध माना गया है। उसे अध्यात्म क्षेत्र में प्रमुख मान्यता मिली हुई है और उपासना प्रयोगों में सर्वत्र स्थान दिया जाता है। उन अभ्यासों को अनीश्वरवादी भी मानसिक तनाव दूर करने एवं स्फूर्ति प्राप्ति के उद्देश्य से किया करते हैं। ध्यान को यों धर्मधारणा की परिधि में भी गिना जाता है, पर यह यहाँ तक सीमाबद्ध नहीं है। जिन्हें धर्म-प्रसंगों में आस्था नहीं है, वे भी इसे अनुभव के लिए अपनाते हैं और उसके लाभदायक परिणाम देखते हैं।

ध्यान क्या है? इसका स्वरूप क्या है? यह बताते हुए मनीषी करते हैं कि कल्पनाशील मन की निरंतर निरर्थक भगदड़ करते रहने की आदत छुड़ाई जाने, बहुमूल्य मानसिक शक्ति का अपव्यय रोकने के लिए ध्यान अनिवार्य है। अंतः की सामर्थ्य को केंद्रीभूत करके किसी उपयोगी प्रसंग में लगाया जाकर उससे असाधारण लाभ उठाया जा सकता है। इस लाभ में अस्थिर मन वाले वंचित ही बने रहते हैं। उनकी प्रगति में यह एक बड़ी बाधा बन जाती है। एकाग्रताजन्य लाभों का प्रत्यक्ष अनुभव करने का उन्हें अवसर ही नहीं मिलता।

कानवेक्स लैन्स (आतिशी शीशे) की एक छोटी से परिधि पर फैली हुई सूर्य-किरणों, यदि एक केंद्र पर एकत्रित कर दी जाएँ तो देखते-देखते आग जलने लगती है। वाष्प-ऊर्जा बिखरीस्थिति में हवा में उड़ती रहती है, पर जब उसे सीमाबद्ध करके पिस्टन के साथ जोड़ दिया जाता है तो भारी वजन वाले डिब्बों को घसीटना हुआ रेल इंजिन द्रुतगति से दौड़ने लगता है। बंदूक चलने में भी यही होता है। बारूद को बिखरीस्थिति में जला दिया जाए तो उससे साधारण सी ज्वाला भर उठेगी पर कारतूस कलेवर में सीमाबद्ध करके नली की मर्यादा में रहने के लिए उसे अनुबंधित कर दिया जाए तो निशाने पर करारी चोट करती है और लक्ष्य बेधकर रख देती है। वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार, नट, सरकस के पात्र यही प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। कि एकाग्रता के अभ्यास द्वारा साधारण से असाधारण बना जा सकता है। द्रौपदी-स्वयंवर जीतने में अर्जुन इसलिए सफल हुआ था कि उसने अभ्यास द्वारा एकाग्रता संपादित कर ली थी।

ध्यान एकाग्रता-संपादन की अनुभूत प्रक्रिया है। उसकी गुणवत्ता सर्वत्र स्वीकार की जाती है और अभ्यास द्वारा उसमें प्रवीणता प्राप्त करने चेष्टा की जाती है। ध्यान का उद्देश्य आत्मविकास तो है ही, मनःक्षेत्र को शक्ति संपन्न करना भी है।

ध्यान की दो धाराएँ है। एक बहिर्मुखी, दूसरी अंतर्मुख। आमतौर से प्रारंभिक स्तर पर बहिर्मुखी ध्यान किए जाते हैं; क्योंकि वे अपेक्षाकृत सरल पड़ते हैं। मन को बाहरी क्षेत्र में दौड़ लगाते रहने की चित्र-विचित्र दृश्य देखने की आदत होती है, वह रमता भी ऐसे ही प्रसंगों में, इसलिए ध्यान प्रयोग में भी वह उसी अवलंबन को आसानी से ग्रहण करता है, जबकि अंतर्मुखी ध्यान में मन को दबावपूर्वक लगाना होता है, प्रगति भी धीरे-धीरे होती है इतने पर भी अधिक लाभ अंतर्मुखी प्रयोगों का ही होता देखा गया है।

बहिर्मुखी ध्यान में केंद्रबिंदू के रूप में किसी सांसारिक वस्तु को माध्यम बनाया जाता है। सामान्यतया सूर्य, चंद्र, दीपक आदि को माध्यम बनाते हैं। किसी देवी-देवता की छवि भी इसी निमित्त अपनाई जाती है। किसी भी सुरम्य प्राकृतिक दृश्य या निखिल ब्रह्मांड को परब्रह्म के रूप में किसी भी धर्म-मत को मानने वाले प्रतीक मानकर ध्यान संपादन कर संकेत है। प्रत्यक्ष दीखने वाले आकार को प्रथम खुले नेत्रों से निहारकर पीछे आँखें बंद कर ली जाती है और आधार बिंदु का मानसिक चित्र बनाकर उसके साथ तन्मय होने का प्रयास किया जाता है, उसके साथ निकटवर्ती रिश्ता जोड़ा जाता है। मात्र कल्पना करते रहने भर से ध्यान-धारणा पूरी नहीं हो जाती; वरन सघन श्रद्धा-विश्वास अपनाते हुए ध्येय के साथ तन्मय होने का प्रयत्न किया जाता है। अग्नि-ईंधन का, दीपक-पतंगे का उदाहरण ध्येय और ध्याता के बीच पनपना चाहिए। ध्येय के उच्चस्तरीय गुणा के क्षमताओं का पुंज होने की मान्यता का परिपाक करना चाहिए। छवि के साथ अपमिति विशेषताओं से युक्त होने वाली बात को गहरी मान्यता देनी चाहिए। छवि और विशिष्टता के बीच सुदृढ़ एवं सुनिश्चित संबंध बनाना चाहिए। इसके बिना कोई ध्येय मात्र “स्वरूप” बन कर रह जाता है, और यदि वह खुली आँखों से या बंद आँखों से दिवास्वप्नवत् दीखने भी लगे तो इससे कुछ बनेगा नहीं। मात्र दृश्य-दर्शन ही चलता रहेगा। चाहे वह खुले नेत्रों से देखा जाय या बन्द नेत्रों से।

ध्येय को उच्चस्तरीय गुणवत्ता से संपन्न होना चाहिए। ऐसी स्थापना हृदयस्थ हो चले तो इष्ट के साथ तादात्म्य होने की भावना करनी चाहिए। ऐसे समर्पण भाव कहते है; द्वैत को हटाकर अद्वैत क्षेत्र में प्रवेश करना भी। आग और ईंधन के बीच यही संबंध बन पड़ता है। फलतः एक के घटिया और दूसरे के बढ़िया होने पर भी दोनों में एकदूसरे की विशेषता समाहित हो जाती है। ईंधन जलने लगता है।, पर आग भी धुँआ उगलते लगती है, जो ईंधन का ही वायुभूत स्वरूप है। नदी-नाले के मिलन का उदाहरण भी समर्पण की स्थिति का प्रत्यक्ष उदाहरण है। नाला अपनी सत्ता का समापन करके नदी में मिल जाता है। नदी और नाले का मिलना दुर्बल पक्ष के लिए वरदान सिद्ध होता है। सबल पक्ष भी इससे कुछ घाटे में नी रहता। उसका आकार और बहाव अभिवृद्धि करता चला जाता है। महिमा और गरिमा तो बढ़ती ही है। उसे वरिष्ठ की उदारता अनुकंपा भी माना जाता है। पर यह उपलब्धि तब तक संभव नहीं होती, जब तक कि ध्याता-ध्येय के साथ एकीभूत होने के लिए उसकी विशिष्टताओं को अपने अंदर अवधारण करने के लिए तैयार नहीं होता।

बहिर्मुखी ध्यान-धारणा के लिए कोई दृश्य बाह्यावलंबन चाहिए। यह प्रतीक किसी देवी-देवता के आकार वाली प्रतिमा के रूप में भी हो सकता है और किसी दिवंगत महामानव के रूप में भी। यह ध्येय सजीव भी हो सकता है और निर्जीव भी। वस्तुतः साधन की श्रद्धा ही उसमें प्राण भरती है और शब्दबेधी बाण की तरह छवि से टकरा कर रबर की गेंद की तरह वापस लौटती है। गुंबद में अपनी ही प्रतिध्वनि गूँजती है, दर्पण में अपनी ही छाया दीखती है। ध्येय निर्जीव है या सजीव, वास्तविक है या काल्पनिक इसका कोई महत्त्व नहीं; क्योंकि आधार तत्त्व तो साधक की श्रद्धा होती है, जब आस्थामात्र से झाड़ी का भूत और रस्सी का साँप बन सकता है, तब कोई कारण नहीं कि उच्चस्तरीय आध्यात्मिक आस्थाएँ विश्वासपूर्वक आरोपित किए जाने पर फलित न हो। चमत्कारी प्रतिफल न प्रस्तुत करे। एकलव्य का उदाहरण इसका साक्षी है। मिट्टी के बने द्रोणाचार्य उसे बाण-विद्या में कुशल-पारंगत बनाने में असमर्थ हुए थे। यह प्रतिमा का नहीं, आरोपणकर्ता की सघन भाव-श्रद्धा का चमत्कारी परिणाम है। बिना आदर्शवादी स्थापना और ध्याता की एकात्मता स्थापित हुए कोई कल्पित या दृश्यमान छवि उस दृश्य की पूर्ति नहीं कर सकती, जो देवदर्शन या ध्यान-धारणा के माहात्म्य के रूप में बताया गया है।

ध्यान के लिए देवताओं की छवि अपनाए जाने अनिवार्यता नहीं है। उस स्थान पर कोई आकर्षक फूल भी चूना जा सकता है। गुलाब कमल के पुष्पों में अन्यों से अधिक आकर्षण, सौंदर्य एवं सुगंध का बाहुल्य होता है। पक्षियों में हंस, मयूर जैसे को देव-वाहन माना गया है। शंकर का वाहन नंदी, लक्ष्मी का वाहन हाथी है ये सभी अपनी सौम्यता के कारण प्रसिद्ध है। कठिनाई तब आती है, जब आक्रामक, हिंस्र पशु−पक्षियों को ध्यान का माध्यम बनाया जाता है। उनकी प्रकृति ध्याता पर भी अपना प्रभाव छोड़ सकती है।

ध्यान के संदर्भ में एक और भी प्रचलन है। गोल या अंडाकार प्रतिमा के शिवलिंग-शालिग्राम इसी आकार के होते हैं। उन्हें विश्व वसुधा का प्रतीक माना जाता है। पृथ्वी गोल है, ब्रह्मांड भी गोल है। इस प्रतीक को विराट-विश्व का भाव दर्शन कहा जा सकता है। अर्जुन, यशोदा, कौशल्या, काकभुशुंडि आदि को इसी विराट रूप में झाँकी हुई थी। इसे आरंभ करना हो तो गोलाकार, प्रतिमाओं को माध्यम बनाया जा सकता है ‘ग्लोब’ भी प्रतीक का काम दे सकता है।

समझा सिद्धांतों का जाना चाहिए। मात्र परंपरा निर्वाह भर से काम नहीं चलता। चिह्नपूजा आरंभिक अवलंबन है, कलेवर मात्र है। उनमें प्राण भरने के लिए सघन श्रद्धा का समावेश होना चाहिए। ध्येय में उच्चस्तरीय गुणवत्ता का, उत्कृष्ट आदर्शवादिता का आरोपण और साथ ही उसके साथ तादात्म्य होने की उत्कृष्ट भाव-संवेदना होनी चाहिए।

ध्यान के लिए कोलाहल रहित एकांत स्थान की आवश्यकता पड़ती है। उसके अभाव में शब्द कानों से टकराते हैं और अपनी और ध्यान खीचते हैं। इससे अनभ्यासी मन चंचल हो उठता है और अभीष्ट लक्ष्य पर टिक नहीं पाता, इसलिए स्थान को ऐसा चयन किया जाए जहाँ बाहरी कोहराम प्रभावित न कर पाए। शरीर, मन और स्थान की शुद्धि भी आवश्यक है; अन्यथा यह साथ में जुड़ी हुई अशुद्धता अपने प्रभाव से विक्षेप उत्पन्न किए बिना न रहेगी।

बाहरी निस्तब्धता की तरह अंतरंग की शांति भी इस प्रयोजन के लिए आवश्यक है। चिंता भय, ईर्ष्या, उत्कण्ठा जैसे उद्वेग चित्त को किसी केंद्रबिंदु पर स्थित नहीं होने देते। मन में अनेकानेक संकल्प उठते रहें तो उन जाल-जंजालों में मन भटके बिना न रहेगा। इसीलिए अनुभवियों का परामर्श है कि ध्यान के साथ मनःक्षेत्र की निश्चिंतता, निर्द्वंदता बनी रहनी चाहिए। देवता से मनोकामना पूरी कराने की ललक भी मनःक्षेत्र में न हो। संकटों का निवारण, इच्छित वरदान का अनुरोध भी ऐसा है, जो मन को भयभीत भिक्षुक का स्तर प्रदान करता है। दीन-दरिद्री, कायर-कातर कभी शांतचित्त नहीं रह सकते। उनके मनोरथ ही उन्हें हवा में उड़ाते, तिनके की तरह जहाँ-तहाँ भटकाते रहते हैं। स्पष्ट है कि अस्थिर मन कभी निश्चिंत नहीं रह सकता और न उसे एकाग्रता का लाभ ही मिल सकता है।

इन व्यवधानों की संभावना से प्रत्येक ध्यान-साधना के साधक को कदम बढ़ाने से पूर्व ही अवगत रहना चाहिए और उनसे बचने का, उन्हें निरस्त करते रहने का प्रयास शुभारंभ करने से पूर्व ही कर लेना चाहिए। ध्याता को प्रसन्नचित, पुलकित मन और श्रद्धा-विश्वास की भावना से सराबोर होना चाहिए। मन को उच्छृंखल उड़ाने उड़ने से पूरी तरह रोकना चाहिए। मनोनिग्रह ध्यान-धारणा की सफलता का एक अविच्छिन्न अंग है, यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है।  इसे हर साधन को भली-भाँति हृदयंगम कर ही साधना-क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118