देव संस्कृति में ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तरह धरित्री जी के भी तीन देवता माने गये हैं— माता, पिता एवं गुरु। इनकी तुलना त्रिवेदों से की गई है। माता— ब्रह्मा है; क्योंकि वह पेट में सबका पालन-पोषण करती है। पिता— विष्णु माने जाते हैं; क्योंकि जन्मोपरांत बालक के शिक्षण, निर्वाह, चिकित्सा, विवाह, आजीविका जैसी व्यवस्था द्वारा वे ही उसे समर्थ बनाते हैं। गुरु की गरिमा इन दोनों से भी ऊँची है। उनको महेश के समतुल्य माना गया है, जिनकी स्तुति विष्णु, प्रजापति सहित सभी देव करते हैं।
माता-पिता शरीर का सृजन-पोषण करते हैं, जबकि गुरु आत्मा में, व्यक्तित्व में सुसंस्कारिता का आरोपण करके उसे इसी जन्म में दूसरा जन्म देते हैं, जिसे द्विजत्व कहा गया है। यज्ञोपवीत दीक्षा के साथ यह प्रतीक-पूजा आरंभ होती है; किंतु यहीं तक सीमित नहीं रहती। इस कृत्य के पीछे गुरुवरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका संपन्न होती है। गुरु की गरिमा से जुड़कर नर-पशु के नगर-नारायण बनने की संभावनाएँ साकार होती देखी जा सकती हैं। आत्मिक क्षेत्र का परिशोधन-परिष्कार कर सकने वाली गुरु-गरिमा की जितनी महिमा गई जाए, कम हैं।
प्राचीनकाल में यह प्रावधान प्रारंभ से ही था कि देव संस्कृति का एक भी अनुयाई ऐसा न हो, जो गुरुकुल रहकर सुसंस्कारिता उभार कर न आया हो। महत्त्व शिक्षा का नहीं, दीक्षा का, प्रतिभा प्रखरता का, अंतः की सामर्थ्य के विकास का, संजीवनी विद्या का रहा करता था। अब वह परंपरा तो नहीं रहीं। सच्चे मार्गदर्शक गुरु मिलते भी बड़ी कठिनाई से हैं। गुरु के बिना व्यक्ति को निगुरा कहकर गाली दी जाती है। इससे पता चलता है कि गुरुतत्त्व जीवन के सर्वांगीण विकास हेतु कितना जरूरी है। शास्त्रों में उपनिषदों में लिखा है यदि कोई गुरु न मिले तो आत्मतत्त्व को गुरु मानकर उसके माध्यम से अपनी समीक्षा करनी व मार्गदर्शन लेना चाहिए। गुरु पूर्णिमा का प्रस्तुत पर्व (11 जुलाई 1987) इसी दिशा में चिंतन करने का अवसर प्रदान करता है।
गुरुतत्त्व के सान्निध्य-अवलंबन से कितने ही सामान्य व्यक्तियों को असामान्य बनने का अवसर मिला है। बुद्ध के अनुग्रह से हर्षवर्ध्दन, अशोक, आनन्द, कुमारजीव जैसे कितने ही महानता के उच्च शिखर पर पहुँच गए। अंगुलिमाल-अम्बपाली, जैसे कितने ही दलित मानव कायाकल्पकर महामानव बन गए। समर्थ एवं शिवाजी की, परमहंस एवं नरेंद्र की, चाणक्य एवं चंद्रगुप्त की, विरजानंद एवं दयानंद की आत्मिक घनिष्ठता यदि न बन पड़ी होती तो यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि कौन-सा पक्ष घाटे में रहता। बेल, वृक्ष से लिपट कर कहाँ-से-कहाँ तक पहुँचा जाती है। नाला, गंगा में मिलकर, बूँद, समुद्र में मिलकर एवं पतंग, डोर से बँधकर क्या से क्या हो जाती हैं, यह आसानी से समझा जा सकता है। शिष्य की गुरु के प्रति श्रद्धा व समर्पण भाव उसे आत्मिक प्रगति के पाथ पर तो प्रशस्त करता ही है, दैवी अनुदानों की अमृत वर्षा होने लगती है। जो गुरुतत्त्व के प्रति जितनी श्रद्धा, जिस मात्रा में जगा सका, समझना चाहिए कि उसके लिए अध्यात्म विभूतियाँ उपलब्ध करने का स्वनिर्मित राजमार्ग मिल गया। गुरुवरण का श्रद्धासिक्त अभ्यास ही अध्यात्म क्षेत्र में आगे बढ़ने का प्रथम सोपान है।
अपना विवेक यदि अनुमति दे, गुरु की गरिमा समझने का माद्दा अंदर हो एवं समर्पणभाव से अपना अहं गुरुचरणों में सौंपने को जो तैयार हों, उन साधकों के लिए व्यास पूर्णिमा का पर्व यही संदेश लेकर आता है कि गुरु बड़ी कठिनाई से मिलते हैं, मिले हैं तो उन्हें छोड़ना मत, प्रगति के पथ पर चल पड़ना। यही अपेक्षा प्रज्ञापरिकर से इस दैवी अभियान की सूत्रसत्ता करती भी है।