सिद्धि के चार आधार-अवलम्बन

July 1987

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सिद्धियों की उपलब्धि के आत्मविशेषज्ञों ने चार निमित्त कारण बताए हैं। (1) जन्म (2) मंत्र (3) तप (4) औषधि। आवश्यक नहीं कि इन चारों का ही संयोग बन पड़े। इनमें से एक भी यदि ठीक प्रकार सध जाए तो कुछ उतने भर से अभीष्ट फल प्राप्त हो सकता है।

जन्म से तात्पर्य है— "जन्मांतरों में किए गए पुण्य-परमार्थों के प्रतिफल। शरीर छूट जाने पर भी शुभ-अशुभ कर्म प्राणी के साथ जाते हैं और वे अगले जन्मों में फलित होते हैं। ताड़ के फल को अंकुरित होने में एक वर्ष लग जाता है। पुण्य कर्मों को फलित होने में यदि एक वर्ष लगता है तो आश्चर्य भी क्या है? कर्मफल तत्काल नहीं मिलते, दूध को दही बनने में कुछ समय लगता है।"

देखा गया है कि कुछ को बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा प्राप्त होती है। शुकदेव ने जन्मते ही वैराग्य ले लिया था। यह संस्कार उनके पूर्वसंचित, योगपरायणता के प्रतिफल थे। मीरा की भक्ति ऐसी थी जो बिना किसी के बताए-समझाए अनायास ही निर्झर की तरह फूट पड़ी थी। यह मानवी विवेक की कसौटी है कि तत्काल फल न मिलने पर अधीर न हो। बुरे का बुरा, अच्छे का अच्छा फल तो मिलता है, पर यह सब तत्काल ही नहीं होता है। वटवृक्ष को पल्लवित होने में मुद्दतों लगती हैं। कर्मफल भी समय साध्य है। देर लगती देखकर कई व्यक्ति अधीर हो जाते हैं और नास्तिकों जैसा मन बना लेते हैं। जिन्हें सृष्टी की सुनिश्चित विधि-व्यवस्था पर विश्वास है, वे जानते और मानते हैं कि जो बोया है उसे काटने का अवसर अवश्य मिलेगा। भले ही उसमें कुछ देर लगे। कई जन्म से ही अपंग होते हैं। कइयों में शिक्षा प्राप्त करने से पूर्व ही कई विलक्षणताएँ दीख पड़ती हैं। इन्हें उनके पूर्व जन्मों का उपार्जन-संचय ही समझना चाहिए। इसे संयोग समझा जा सकता है। चाहने मात्र से ऐसी सुखद परिस्थिति उपलब्ध नहीं की जा सकती।

दूसरा आधार है। मंत्र। मंत्र अर्थात् एकाग्रता, साधना, शब्दशक्ति का उन्नयन, साधना द्वारा प्रसुप्त शक्तियों का जागरण। मंत्र कुछ शब्दों को रटते रहने भर से नहीं सध जाता। उसके लिए वे सभी प्रयास करने पड़ते हैं, जो साधक की पात्रता को विकसित-परिष्कृत करें। उपजाऊ भूमि में ही अनाज की हरी-भरी फसल लहलहाती है। बीज का कितना ही महत्त्व क्यों न हो, उसकी सर्वांगपूर्णता में कोई खोट भले ही न हो, पर अकेले उतने भर से काम नहीं चल जाता है। भूमि में उर्वरता आवश्यक है। साथ ही खाद पानी की व्यवस्था और रखवाली की सतर्कता भी नियोजित रहनी चाहिए। मंत्र की रटन भर से कोई सिद्ध पुरुष नहीं बन जाता है। निर्धारण में अटूटश्रद्धा भी रहती है। चरित्र तो साधकोचित रखना ही पड़ता है। ऐसी दशा में सफलता का एक ही मार्ग है कि साधकोचित चरित्र अपनाया जाए और भाव भरी श्रद्धा का अवलम्बन— "ग्रहण करते हुए सफलता के लक्ष्य तक पहुँचा जाए। इस मार्ग पर चलते हुए कितने ही सफलता के चरम शिखर तक पहुँच भी चुके हैं। मंत्र-विद्या की महत्ता के संबंध में बहुत कुछ कहा जाता रहा है, जो प्रयत्नरत होते हैं वे वैसी सफलताएं प्राप्त भी करते हैं।"

तीसरा सिद्धि मार्ग है— 'तप'। तप का अर्थ है—  "तपाना। तपाना किसको? अपने आप को, शरीर को, मन को, अंतःकरण को। तपाने से बर्फ पिघलती है। ईंधन पाकर ज्वाला भभक उठती है। कच्चा लोहा पक्का बन जाता है। यहाँ तक कि मिट्टी के बरतन भी धातु की तुलना करने लगते हैं। सोने की चमक अग्नि पर पकने से ही उभरती है। कायसत्ता में भी वैश्वानर, प्राणाग्नि, महामेध आदि अनेकानेक शक्तियों का समावेश है।" वे आमतौर से प्रसुप्त स्थिति में रहती हैं। पर जब तपस्वी की ताप-ऊर्जा; उन्हें उत्तेजित करती है तो सभी अपना-अपना काम आश्चर्यजनक रीति से करने लगती हैं। इसका प्रतिफल सिद्धि-चमत्कारों के रूप में सामने आता है।

सिद्धिप्राप्ति का चौथा उपाय उपचार है— 'औषधि'। औषधि से तात्पर्य है— "यहाँ अभिमंत्रित वनौषधि। उनका प्रभाव अपने विशेष ढंग का है। कुछ तो जड़ी-बूटियाँ अपने निजी गुणों के कारण ही मानवी चेतना को असाधारण रूप से प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। कुछ को किसी महाप्राण द्वारा अपनी आत्मशक्ति का वाहन बनाकर उसे असाधारण स्तर का बनाया और सेवन कर्ता का हित साधा जाता है।"

गाँजा, भाँग, चरस, अफीम आदि वस्तुतः वनस्पतियाँ ही हैं, जो अपनी उत्तेजक क्षमता के कारण पीने वाले के होश-हवास गुम कर देती है। शराब भी वनस्पतियों को सड़ाकर निकाला गया अर्क ही है। तंबाकू, चाय आदि के अनेक वनस्पति वर्ग भी ऐसे ही हैं, जो मादक उत्तेजना उत्पन्न करते हैं। यह बुरा पक्ष हुआ, जिसके प्रयोग से मनुष्य उन्मादी जैसा हो जाता है और अनेक प्रकार की हानियाँ उठाता हैं।

इस संदर्भ में दूसरा उजला पक्ष भी है। अश्विनीकुमारों ने वयोवृद्ध च्यवन ऋषि को वनस्पतियों का एक ऐसा योग दिया था। जिसका सेवन करने से उनकी जराजीर्ण स्थिति देखते-देखते नवयौवन में बदल गई थी। लक्ष्मण को मेघनाद द्वारा मारी गई ब्रह्मशक्ति का आघात लगने पर वे मूर्छित मरणासन्न स्थिति में थे। सुषेण वैद्य की बताई संजीवनी बूटी हनुमानजी पर्वत-क्षेत्र से लाए और उसका सेवन करते ही वे पुनः पूर्ववत् सचेतन हो गए। ऐसी अन्यान्य विशेषताओं को देखते हुए चरक, सुश्रुत, वागभट्ट जैसे वनस्पतिविज्ञानियों ने गंभीर अनुसंधान किए थे और उसका सर्वसाधारण के लिए अतीव लोक-कल्याणकारी उपयोग किया था। ऐसे ही प्रयोगों के कारण आयुर्वेदशास्त्र का क्रमशः विकास होता आया और एक सांगोपांग शास्त्र विनिर्मित हुआ।

सोमपान वह विद्या है, जिसमें सोमवल्ली को सोम-सूत्रों में अनुप्रमाणित किया जाता है। देव स्तर के मानव उसका उपयोग करके अपनी श्रद्धायुक्त निष्ठा का विकास-विस्तार करते हैं। यज्ञों में वनस्पतियों को उत्पादन से लेकर समीकरण तक तपशक्ति  के रूप में विनिर्मित किया जाता है। उसी का दिव्य मंत्रों के साथ यजन होता है। अग्निहोत्र द्वारा वनस्पतियाँ ऊर्जा रूप में बदल जाती है और संपर्क में आने वालों पर - संबद्ध वातावरण पर असाधारण प्रभाव छोड़ती है। उसका प्रतिफल शारीरिक-मानसिक रोगों के निवारण में वायुमंडल के संशोधन में, पर्जन्य के अभिवर्षण में महती भूमिका निभाना है।

पंचामृत में, चरणामृत में तुलसीपत्रों का समन्वय रहता है। जिन भावनाओं के साथ पूजा-अर्चना की जाती है, उसका उच्चस्तरीय भावतत्व इस द्रव्य में समाविष्ट हो जाता है। फलतः उसकी प्रकृति भी वैसी ही बन जाती है। जो सेवन करता है, वह भी अपने को श्रद्धासिक्त अनुभव करता है। इसे वनस्पति को माध्यम बनाकर आत्म-शक्ति की क्षमता का वितरण कहा जा सकता है।

उपर्युक्त चारों ही आधार अपनी-अपनी स्थिति के अनुरूप प्रभावोत्पादक परिणाम उत्पन्न करते हैं। इनका लाभ सिद्धि-उपलब्धि तक पहुँचे तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं समझा जाना चाहिए। मात्र एक ही अड़चन शेष रहती है— "प्रयोक्ताओं का स्तर। उनका चिंतन, चरित्र और व्यवहार; इसे उत्कृष्ट बनाने में ही समय, श्रम एवं मनोयोग का नियोजन करना पड़ता है। वह न बन पड़े तो समझना चाहिए कि पथ्य बिगाड़ते रहने पर उपचार कारगर नहीं होता। साधक का व्यक्तित्व गया गुजरा हो तो उसकी समुचित साधना का भी उपयुक्त लाभ न मिल सकेगा।"


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