योगशास्त्र में सिद्धियाँ प्राप्त करने के अनेक उपाय-उपचारों का वर्णन है। उनमें से एक औषधि का भी उल्लेख है। औषधि से तात्पर्य वनौषधि से है; क्योंकि वे अविकसित प्राणधारी वर्ग में सम्मिलित की जा सकती हैं। वे संवेदनशील भी होती हैं और संवेदनाओं की संग्राहक भी। उन्हें भाव-चेतना से अभिमंत्रित किया जा सकता है, इस योग्य बनाया जा सकता है कि किसी महाप्राण के प्राण-चेतना को अपने में संधारण कर सके। किसी दूसरे सत्पात्र तक पहुँचा सके, जिन्हें अध्यात्मबल की विशिष्ट उपलब्धि कहे जा सकें।
यज्ञ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। अग्निहोत्र में मात्र औषधियों को जलाकर, उसकी ऊर्जा मात्र से ही चमत्कारी परिणाम नहीं होते; वरन भविष्य को दिव्य मंत्रों से अभिमंत्रित करके, उसे एक ऐसा पदार्थ बनाया जाता है, जिसमें प्राण-चेतना का गहरा संपुट लगा हुआ पाया जा सके।
मंत्रशक्ति मात्र कुछ शब्दों का उच्चारण ही नहीं होता; वरन उसके साथ प्रयोक्ता की विशेष साधना द्वारा विशेष प्रकार की शक्ति उत्पन्न करके शब्दों के साथ संपुटित करना होता है। अभिमंत्रित किया गया पदार्थ ही हविष्य कहलाता है। उसे यज्ञाग्नि में यजन करके सशक्त ऊर्जा के रूप में परिणत किया जाता है। इस ऊर्जा का व्यक्ति पर, वातावरण पर, लक्ष्य पर प्रहार किया जाता है। यज्ञाग्नि भी चूल्हे में जलने वाली अग्नि से भिन्न होती है। उसे भी नियम कर्मकांडों के साथ अभिमंत्रित किया जाता है। इस प्रयोजन में जो काष्ठ होमा जाता है, उसे समिधा कहते हैं। यह रूप तब बनता है जब निर्धारित वृक्षों से, नियत विधि से, उसे उपलब्ध किया जाए और मंत्रों द्वारा विशिष्ट प्रकार के प्राण से विशेष प्रकार की क्षमता से, उसे संपंन किया जाए। वातावरण शुद्धि के लिए अथवा लोक-चेतना जगाने वाले वृहत यज्ञों में भी और व्यक्तिगत प्रयोजनों के लिए किए गए यज्ञों में भी इस विधा का अपने-अपने ढंग से अपने-अपने स्तर पर प्रयोग किया जाता है। अग्निहोत्र में प्रयुक्त होने वाला समस्त सरंजाम मंत्रशक्ति की अवधारणा से अपने को सचेतन स्तर पर विकसित करता है, तभी उसके समुचित लाभ मिलते हैं। यदि भट्टी में आग जलाकर औषधिमात्र को सामान्य रीति से जला दिया जाए तो उसका धूम्र यत्किंचित ही प्रभाव उत्पन्न करेगा। वह लाभ न मिल सकेगा, जो यज्ञ-प्रक्रिया का होना चाहिए।
विचारणा और भावना के परिशोधन के लिए, आत्मबल बढ़ाने के लिए, चमत्कारी सिद्धियाँ उत्पन्न करने के लिए यज्ञों की विशेष महिमा बखानी गई है। पर उसे यथार्थ रूप में तभी देखा-पाया जा सकता है, जब उसमें किसी प्राणवान, प्रवीण, पारंगत द्वारा शाकल्य को अभिमंत्रित किया गया है, उसमें विशेष प्राण भरा गया हो। इस आवश्यकता की उपेक्षा करके अभीष्ट लाभ प्राप्त करना संभव नहीं होता।
कायाकल्प जैसे प्रयोगों में अन्य उपचारों का यत्किंचित ही योगदान होता है। वस्तुतः उस समूची प्रक्रिया का हर पक्ष मंत्रशक्ति से अनुप्राणित किया जाता है। तभी उसकी वह परिणति होती है, जो शास्त्रों में महात्म्य रूप से विस्तार के साथ बताई गई है। सामान्य भोजन और भगवान के प्रसाद में मौलिक अंतर यही है कि खाद्य को प्रसाद बनाते समय उस में भावनाओं का, प्राणशक्ति का, मंत्रविद्या का समुचित विधिवत प्रयोग किया जाता है।
शारीरिक रोगों में आयुर्वेद के अनुसार वनौषधियों का प्रयोग होता है। इसका उपचार विधान प्रस्तुतिकरण में अपनाया जाता है। यदि सही वस्तुओं का सही रीति से प्रयोग किया गया तो उसका लाभ भी वैसा ही मिलता है, जैसा कि शास्त्रकारों ने बताया हैं। इस प्रयोजन में भी यदि उपचार सामग्री अभिमंत्रित की गई हो तो उसका लाभ और भी अधिक मिलता है।
शारीरिक क्षेत्र से आगे चलने पर मानसिक क्षेत्र आता है। उसमें भी अनेकों विकृतियों का परिकर घुसा बैठा होता है। अविकसित मस्तिष्क के कितने ही मंदबुद्धि भी होते हैं। कइयों में कई प्रकार की सनकें पाई जाती हैं। वे अस्त-व्यस्त ढंग से बहकते रहते हैं और अनगढ़ आचरण करते हैं। मनोविकारग्रसितों में आवेशों, आवेगों की बहुलता देखी गई है। उद्धत, उद्दंड, क्रोध, चिड़चिड़े, शंकालु, ईर्ष्यालु, चिंतित, निराश, भयभीत रहने वालों की भी कमी नहीं। उन्हें तिल का ताड़ बनाने की आदत होती है। राई को पर्वत समझ बैठते हैं और स्वयं हैरान रहने के साथ-साथ दूसरों को हैरान करते हैं। विक्षिप्तों, अर्धविक्षिप्तों की बात अलग है। ऐसे लोगों का मानसिक स्तर कभी-कभी यहाँ तक जा पहुँचता है कि उन्हें खुला छोड़ते नही बनता । पागलखानों में पहुँचना पड़ता है। असामान्य, अस्वाभाविक ढंग से सोचने वाले, शिष्टाचार का उल्लंघन करने वाले और अव्यावहारिक समझे जाने वाले लोग प्रायः मानसिक रोगी ही होते हैं। उन्हें समझा बुझाकर भी सही रीति-नीति अपनाने के लिए सहमत नहीं किया जा सकता। डराना-धमकाना भी काम नहीं देता। दवा-दारु से नींद भर लाई जा सकती है या और कुछ सामयिक समाधान किया जा सकता है। इस स्थिति में पड़े हुए लोग एक प्रकार से निरर्थक भारभूत जीवन जीते हैं। संबंधियों की चिंता का ठिकाना नहीं रहता। काम का हर्ज होने के कारण, जो क्षति उठानी पड़ती है, वह भी ऐसी होती है कि उसे कष्टसाध्य रुग्णता की तुलना की जा सके, समता दी जा सके।
इस स्थिति के निराकरण में अभी तक काम में लाए गए उपचारों में से कोई इतना कारगर नहीं हुआ कि उस पर संतोष किया जा सके और सुधार की आशा लगाई जा सके। बात यह है कि इस स्थिति की जड़ें अंतर्मन में बहुत गहरी जमी होती हैं। दवा-दारु से लेकर शल्यक्रिया तक उस मर्मस्थल तक नहीं पहुँच सकतीं। पुरातनकाल में ऐसे आध्यात्मिक उपचार थे, जो मनोविकारों को ही नहीं, कुसंस्कारों तक को बदल सकते थे। स्वभाव एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन ला सकते थे।
यह दिव्यौषधि के साथ सम्मिलित की गई प्राण-चेतना ही है, जो मानसिक विकृतियों का शमन-समाधान करती है। आंतरिक सुधार-परिष्कार की व्यवस्था बनाती है। मनोरोगों का उनसे निराकरण होता है। भस्म, भभूत के माध्यम से कई सिद्ध पुरुष आपत्तिग्रस्तों की सहायता करते देखे गए हैं। यह कार्य अभिमंत्रित दिव्यौषधियों के माध्यम से और भी अधिक सरलता के साथ हो सकता है। जहाँ अन्य उपचार असफल रहते हैं, वहाँ प्राणवानों का प्राण व्याधिग्रस्त के अंतराल तक पहुँचकर उसे संकट से उबारता है। इस मंत्रमार्जन में दिव्य औषधियाँ सशक्त माध्यम का कार्य संपन्न करती हैं।
मनःक्षेत्र से आगे का कार्यस्थल अंतःकरण है। उसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तो अपना-अपना काम करते देखे ही जाते हैं। साथ ही भाव-संवेदनाएँ और आस्थाएँ गहराई तक जड़ें जमाए रहती हैं। कामना आकांक्षा, अभिरुचि एवं संचित संस्कारों की शृंखला का भी गहराई तक जमे होने का यही क्षेत्र है। व्यक्तित्व का स्तर एवं स्वरूप इसी मर्मस्थल में अपनी विशिष्टता का परिचय देता है। मनुष्य में जो भले-बुरे गुण, कर्म स्वभाव पाए जाते हैं। उन्हें अतःकरण की स्थिति का प्रतिबिम्ब ही समझा जा सकता है। आस्था के, अनास्था के बीजांकुर यहीं उगते और समयानुसार पल्लवित, फलित होते हैं। इन्हें सुधारना, सामान्य धर्मोपदेशों-सत्परामर्शों से भी संभव नहीं। यहाँ तक कि सज्जनों का सत्संग-संपर्क भी कारगर परिवर्तन कर सकने में समर्थ नहीं होता। दुष्टों की दुष्टता दुराग्रह बनकर अड़ी रहती हैं। ऐसे व्यक्ति सज्जन किस प्रकार बन पाएँ, यह एक टेढ़ा सवाल है। लंका के असुर अंत तक दुष्ट ही बने रहे। कौरवों की चौकड़ी, दैत्य-दानवों की मंडली अपनी निकृष्टता को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर प्राण जाने तक अपनाए रही।
इस पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि संचित एवं परिपक्व स्तर की हो जाने पर भी पतनोन्मुखी प्रवृत्ति को नहीं ही बदला जा सकता। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे अनाचारियों का भी कायाकल्प जैसा परिवर्तन हुआ है। बिल्व मंगल, अंगुलिमाल, अजामिल, चंड, अशोक आदि के रूप में ऐसे कितने ही उदाहरण हैं, जिनके अपने स्वभाव में आमूलचूल परिवर्तन हो गया। वे भ्रष्ट से श्रेष्ठ बन गये।
यह प्राण-प्रहार की प्रतिक्रिया है। यह एक महाप्राण के व्यक्तित्व से उछालकर विकृत प्राण में प्रवेश कर सकती है और ऐसा चमत्कारी प्रभाव दिखाती है, जिसे महापरिवर्तन कहा जा सके। इस प्रकार के प्रयोगों को अध्यात्मबल की महान मानवी सेवा या समाजसेवा भी कहा जा सकता है।
सर्प-नेवले की लड़ाई में नेवला बीच-बीच में दौड़कर समीपवर्ती विषनिवारण वनस्पति खाता रहता है। उसी आधार पर वह आक्रांता सर्प का विष उतारता है और अपने में इतनी शक्ति उद्भव करता है कि क्लांत होते हुए भी दुर्दांत शत्रु को पछाड़ सके। ठीक यही प्रक्रिया वे महाप्राण भी संपन्न करते हैं; जिन्हें असुरता, अवांछनीयता को निरस्त करना है।
इसके लिए अन्य साधनाओं के अतिरिक्त आहार, मेवे, ऐसे वनस्पतियों को भी सम्मिलित करते हैं, जो शारीरिक-मानसिक ही नहीं आध्यात्मिक-क्षेत्र को भी संभालने-सुधारने में समर्थ होती है। उच्चस्तरीय महाप्राण का संग्रह-संकलन करने में दिव्यौषधियों के सेवन की असाधारण भूमिका होती है। इस प्रयोग का लाभ सहज-सुलभ रीति से ही उठाया जा सकता है। महर्षि पिप्पलाद पीपलवृक्ष के फल ही खाकर निर्वाह करते थे। अन्यान्य ऋषि-तपस्वियों ने अपना आहार आँवला, बिल्व आदि को ही बनाया था।
पूर्ण निर्भरता न सही, वनौषधियों में से जो, जिसके लिए सूक्ष्मदर्शियों द्वारा निर्देशित है, सीमित मात्रा में सेवन करते रहने पर भी वे अलौकिक लाभ से लाभांवित हो सकते हैं। यह व्यवस्था मात्र प्राण-चेतना के अभिवर्ध्दन में ही कारगर नहीं होती, वरन उससे सामान्यजन भी कष्ट-निवारण और शक्तिसंवर्ध्दन का समुचित लाभ उठा सकते हैं।