सद्वाक्य

July 1987

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यस्तपस्वी जटी मुण्डो नग्नो वा चीवरावृतः।

सोऽप्यसत्यं यदि ब्रूते निन्द्वयः निन्द्यः स्यादन्त्यजादपि॥

जो तपस्वी जटाधारी, सिर मुँडाए हुए, वस्त्रहीन अथवा वस्त्रधारी होते हुए भी असत्य बोलता है, वह चांडाल से भी बुरा है।

तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकाया विषं शिरः।

वृश्चिकस्य विषं पुच्छे वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वांगे दुर्जनो विषम्।

साँप के दाँत में विष होता है और मक्खी के सिर में विष होता है। बिच्छू की पूँछ में विष होता है; किंंतु दुर्जन के तो संपूर्ण अंगों में विष रहता है।

आत्मार्थं जीव लोकेऽस्मिन्को न जीवति मानवः।

परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीविति॥

अपने आपके लिए इस जीवलोक में कौन मनुष्य नहीं जीवित रहता है। पर सच्चा जीवन उसी का है, जो परोपकारार्थ जीता है।


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