बुढ़ापा प्रसन्न रहने का समय है!

July 1987

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अपने-अपने समय पर सभी वस्तुएँ सुंदर लगी हैं। बच्चों का भोलापन, किशोरों का उठना, तरुणों का उत्साह, प्रौढ़ों की परिपक्वता सुंदर लगती हैं। इसी प्रकार बुढ़ापा भी अपने समय में अपनी विशिष्टता का परिचय देता है। इन आयुखंडों की अपनी-अपनी विशेषता तो है, पर तुलना नहीं की जा सकती और न किसी को श्रेष्ठ निकृष्ट ठहराया जा सकता है। बचपन अपनी जगह सुहाता है और तरुणाई की अपनी छटा है। दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। कोपलें उगती हैं, पत्ते बढ़ते हैं, फूल खिलते और फल आते हैं। सभी अपनी-अपनी जगह शोभायमान होते हैं; किंतु परस्पर तुलना करने का कोई अर्थ नही, नमक अच्छा है या मीठा? इस प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं दिया जा सकता। दाल में डालने के लिए नमक की जरूरत पड़ती है और दूध में शक्कर मिलाई जाती है। दोनों की अपनी-अपनी जगह उपयोगिता है और आवश्यकता।

पौधों के टहनियों की लकड़ी गीली होती हैं। उन्हें मोड़ा, मरोड़ा और टोकरी जैसे ढाँचे में ढाला जा सकता है, पर तने की विशेषता अपनी अनोखी ही है। मजबूत शहतीर उसी से बनते हैं। टहनियाँ कितनी ही लचीली एवं सुंदर तो हैं, पर लट्ठे का काम नहीं दे सकतीं।

बुढ़ापा कुरूप या सुंदर? इसे समझने का अपना-अपना दृष्टिकोण है। तरुणाई जैसी अठखेलियाँ, उमंगे और मुस्काने बुढ़ापे में नहीं होतीं और न चेहरे पर ही वैसी गुलाकी लालिमा और चमक रहती हैं, पर उसके स्थान पर जो नया उभरता है, उसे अपनी जगह महिमा और गरिमा से भरा-पूरा समझा जा सकता है। चेहरे की झुर्रियाँ, सफेदी, बेदांती मुख यह बताता है कि इस व्यक्तित्व पर परिपक्वता आ गई। ज्ञान-अनुभव अब ऊँचाई तक पहुँच गया है। यह वरिष्टता की निशानी है। समाज में उनकी प्रतिष्ठा और गरिमा समझी जाती है, इसलिए लोग महत्त्वपूर्ण प्रसंगों में उनके परामर्श लेने पहुँचते हैं। उनके निर्णय-निर्धारणों को महत्त्व देते हैं। उनका नमन-वंदन किया जाता है। देखते ही श्रद्धा के अंकुर उठते हैं और उन्हें सम्मानपूर्वक ऊँचे स्थान पर बिठाया जाता है। यह गरिमा अनायास ही मिली हुई नहीं होती। उसके पीछे बहुमूल्य अनुभूतियाँ और विचारणाएँ होती हैं।

कच्चे आम भारी होते हैं; गोल और खट्टे, महकदार भी। पकने पर वह स्थिति नहीं रहती, पिलपिलापन आ जाता है। मिठास बढ़ जातीं, वजन भी हलका होता है। इतने पर भी पके आम अधिक दाम के बिकते हैं। काले बालों को भौंरे से उपमा दी जाती है; पर सफेद बाल तो हंस जैसे होते हैं, मानों चाँदी के तारों से उन्हें बनाया गया हो। बच्चे का बिना दाँत का मुँह हँसते समय कितना सुंदर लगता है। बूढ़े के पोपले मुँह की भी वही स्थिति होती है। ये कामुकता, विलासिता की दृष्टि से वे फिसड्डी हो जाते हैं, फिर भी युवकों की अपेक्षा, उनकी बातों में वजन होता है। समझदारी की दृष्टि से अनुभवगम्य ज्ञान ऐसे निर्णायक निष्कर्षों तक पहुँचता है कि उस वृद्धावस्था पर जवानी निछावर करने को मन करता है।

जार्ज बर्नार्डशा कहते थे— "बुढ़ापा एक सिद्धि है, पूर्णता की मंजिल है। और समय की धरोहर। व्यक्ति और समाज की स्थिति का अन्वय करने वाली उसे दूरबीन या खुर्दबीन कह सकते हैं। बुढ़ापा श्रद्धा-सम्मान से लदा हुआ वटवृक्ष है, जिसकी छाया में बैठकर नई पीढ़ी बहुत सीख सकती है और सान्त्वना पा सकती है"

बुढ़ापे में खीजते वे हैं, जिनने बुढ़ापे का पूर्वाभास नहीं किया और उसके स्वागत की समुचित तैयारी नहीं कीं। जवानी की उच्छृंखलता बुढ़ापे में लौट नहीं सकती और न उतनी स्फूर्ति रहती है, फिर भी जो कुछ रहता है या बढ़ता है, वह ऐसा होता है, जिस पर संतोष किया जा सके और गर्व भी। जिसने अपने बुढ़ापे को स्वयं सम्माननीय बनाया, उसका अन्यत्र भी अभिनंदन होता है। बुढ़ापा शरमाने की नहीं; वरन प्रफुल्लता बखेरने तथा बटोरने की वय है।


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