धर्म न तो अवैज्ञानिक है और न अनुपयोगी

February 1985

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धर्म की आधारशिला अति सुदृढ़ है। उसे नृतत्व विज्ञान की समस्त दिशा को ध्यान में रखकर तत्व−दर्शियों ने इस प्रकार बनाया है कि उसकी उपयोगिता में कहीं त्रुटि न रह जाय। व्यक्तिगत सुख, शान्ति, प्रगति और समृद्धि का आधार धर्म है। समाज की सुव्यवस्था भी व्यक्तियों की धर्म−परायण कर्त्तव्य बुद्धि पर निर्भर है। धार्मिकता का अवलम्बन लेकर कोई घाटे में नहीं रहता वरन् अपनी सर्वांगीण प्रगति का पथ ही प्रशस्त करता है।

धार्मिक मान्यतायें न तो अवैज्ञानिक है और न काल्पनिक। किन्हीं साम्प्रदायिक रीति−रिवाजों अथवा कथा किंवदंतियों को धर्म का परिवर्तनशील कलेवर कहा जा सकता है। उसमें सुधार और परिष्कार होता रहता है। धर्म की मूल आत्मा द्वारा उच्च मानवीय सद्गुणों का प्रतिपादन होना सनातन एवं शाश्वत है। न तो उसकी उपयोगिता से इन्कार किया जा सकता है और न उसे अदूरदर्शितापूर्ण ठहराया जा सकता है। सच तो यह है कि मनुष्य की सामाजिकता धर्म सिद्धान्तों पर ही टिकी हुई है।

धर्म का तात्पर्य है−सदाचरण, सज्जनता, संयम, न्याय, करुणा और सेवा। मानव प्रकृति में इन सत् तत्वों को समाविष्ट बनाये रहने के लिए धर्म मान्यताओं को मजबूती से पकड़े रहना पड़ता है। मनुष्य जाति की प्रगति उसकी इसी प्रवृत्ति के कारण सम्भव हो सकी है। यदि व्यक्ति अधार्मिक अनैतिक एवं उद्धत मान्यतायें अपना ले तो उसका अपना ही नहीं, समस्त समाज का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा।


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