तनाव जन्य व्यथा से कैसे छूटें?

February 1985

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कोई दृष्टि दोष ऐसा भी होता है, जिसमें बड़ी वस्तु छोटी अथवा छोटी−बड़ी दिखाई पड़ती है। कहते हैं कि हाथी की आँखें आकार की तुलना में छोटी होती हैं इसलिए सामने से गुजरने वाले छोटे जीव−जन्तु भी बड़े लगते हैं। इसलिए सामने से गुजरने वाले छोटे जीव-जन्तु भी बड़े लगते हैं। आदमी को भी अपने बराबर मानता है इसलिए डरकर उसके वशवर्ती हो जाता है।

मनुष्यों की आँखों में तो उतनी गड़बड़ नहीं होती पर उसके सोचने समझने के तरीके में−दृष्टिकोण में−ऐसा मतिभ्रम पाया जाता है कि सामने प्रस्तुत समस्याओं और कठिनाइयों को उनकी वास्तविकता से कहीं अधिक समझ बैठता है। साथ ही दूसरी गलती यह करता है कि प्रतिकूलताओं से निपटने की अपनी सामर्थ्य को भूल जाता है या नगण्य मान बैठता है। ऐसी दशा में जो भी कठिनाइयाँ−प्रतिकूलताएँ सामने होती हैं उन्हें वह बढ़ा−चढ़ा कर देखता है और समाधान के बारे में अविश्वस्त, अनिश्चित एवं आतंकित रहने के कारण भीतर ही भीतर घुटने लगता है। वास्तविक कठिनाइयाँ जितनी होती हैं, उससे भी अधिक काल्पनिक चित्र गढ़ने में भी दिमाग दौड़ता है और अच्छा−खासा कल्पना लोक सामने ला खड़ा करता है।

शेख−चिल्ली ने तेल को यथास्थान पहुँचाने के एक घण्टे की अवधि में शाही सम्भावनाएँ गढ़कर खड़ी कर ली थीं और दिवा स्वप्न देखने वालों में प्रख्यात हो गया था। डरावनी कल्पनाएँ करवाना और भी सरल है। रस्सी का साँप−झाड़ी का भूत−बनने की निरर्थक आशंकाएँ, उनकी मनगढ़न्त करने वाले को कितना त्रास देती है यह सभी जानते हैं, ज्योतिषी लोग हाथ देखकर या कुण्डली देखकर अशुभ अनिष्टों को सिर पर मंडराता हुआ बताते हैं और भोले विश्वासी की नींद हराम कर देते हैं। इसी धंधे में वे लोग गुलछर्रे उड़ाते हैं और संपर्क में आने वाले किसी भी व्यक्ति को भयभीत कर देते हैं। यह कल्पनाओं का ही चमत्कार है, जिनके पीछे वास्तविकताएँ नहीं के बराबर होती हैं। फिर जहाँ थोड़े बहुत तथ्य भी हों, वहाँ तिल का ताड़ बनना क्या मुश्किल है। शनि या राहु केतु की दशा होने पर विश्वास करने वाले सामने प्रस्तुत काम में असफलता मिलने और कहीं से संकट टूट पड़ने की ही आशंका करते रहते हैं। फलतः दिल में दिन में बेचैनी छाई रहती है और रात को नींद नहीं आती। इन परिस्थितियों में मानसिक तन्त्र उत्तेजित उद्विग्न रहने लगता है। धीरे−धीरे निषेधात्मक चिन्तन की आदत परिपक्व हो जाती है और अपने लिए−परिवार के लिए−व्यवसाय के लिए संकट की सम्भावना चारों ओर दिखाई पड़ती है और लगता है कि मित्र सम्बन्धी दगा देने जा रहे हैं या अफसर द्वेष मानते हैं और नीचा दिखाने वाले हैं। कल्पना को अशुभ चिन्तन के साथ जोड़ भर दिया जाय तो इसे राई का पर्वत बनाने में कितनी देर लगती है।

ऐसे लोग सदा शंका से शंकित रहते हैं। मन उद्विग्न रहता है और उस उद्विग्नता का परिणाम फिर शरीर को भुगतना पड़ता है। शरीर का नियामक मन है। उसकी स्थिति डाँवाडोल हो तो ऐसे लक्षण उभरने लगते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि भयानक रोगों ने आ घेरा और मौत का शिकंजा अब नजदीक आया, अब आया। रक्तचाप, दिल की धड़कन, बहुमूत्र, सिर का भारीपन, अनिद्रा, अपच आदि रोगों को तनावजन्य माना जाता है। उद्वेग ग्रस्त लोगों को तनावग्रस्त माना जाता है। डाक्टरों के पास इसका कोई स्थायी इलाज नहीं है। सामयिक समाधान के लिए वे तत्काल तो कोई नशीली गोलियाँ दे देते हैं जिससे रोगी की चिन्तन धारा में व्यतिरेक उत्पन्न हो जाय। इससे तात्कालिक राहत भी मिलती है। पर जैसे ही नशा उतरता है, विस्मृति दूर हो जाती है और आदत के अनुसार विपत्ति भरी कल्पनाएँ शिर के इर्द−गिर्द नाचने लगती हैं और उनका प्रभाव शरीर को अस्त−व्यस्त करने वाली रोग श्रृंखला के रूप में अपना त्रास दिखाने लगता है।

उद्विग्नता देखने में छोटा किन्तु परिणाम में भयानकता की दृष्टि से बड़ा रोग है। यह कुछ दिन लगातार बनी रहे तो उत्तेजना के दबाव से भीतरी अवयवों को अशक्त बना जाते हैं और वे अपना काम ठीक तरह कर नहीं पाते। इस व्यतिक्रम के कारण रोगों की घुड़−दौड़ चल पड़ती है। जब तक एक को समेटते हैं तब तक दूसरे का प्रकोप सामने आ धमकता है। शरीरगत आहार-बिहार की गड़बड़ी से उत्पन्न होने वाले रोग, पथ्य परिचर्या और चिकित्सा के द्वारा आसानी से काबू में आ जाते हैं। पर जिनकी जड़ मस्तिष्क में हैं, जो अशुभ चिन्तन और भय आशंका के कारण उत्पन्न हुए हैं, उनकी जड़ मनःक्षेत्र में होती है और उनके अंकुर शरीर में फूटते ही रहते हैं। एक से निपटने नहीं पाते कि दूसरे की उत्पत्ति एवं अभिवृद्धि अपना कमाल दिखाने लगती है। जड़ हरी रहने पर पत्तों को तोड़ते रहने से कोई काम नहीं चलता। मस्तिष्कीय विकृति शारीरिक रुग्णता से मिलकर एक−एक मिलकर ग्यारह होने का उदाहरण बनता है। संक्षेप में यही है तनाव की महाव्याधि जिससे एक तिहाई लोग ग्रसित पाये जाते हैं। चिकित्सा काम देती नहीं। कभी किसी अंग में−कभी किसी में उपजने−उभारने वाली रुग्णता डाकिन की तरह पीछे लग लेती है तो रक्त माँस को चूसकर मनुष्यों को हड्डियों का ढाँचा बना देती है और अन्ततः उसे अकाल मृत्यु के मुँह में घसीट ले जाती है।

तनाव यों चिकित्सकों के रजिस्टरों में दर्ज होने वाले रोगियों में से अधिकाँश में पाया जाता है और वे इसी मर्ज की चित्र विचित्र औषधियाँ देकर धन्धा चलाते रहे हैं। ज्योतिषियों के लिए ग्रह दशा की प्रतिकूलता का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। शान्ति के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों के नाम पर वे मोटी दक्षिणाएँ इसी आधार पर बटोरते हैं। घर भर चिन्तित रहता है और मित्र हितैषियों में से हर कोई इस दुर्भाग्य पर आँसू बहाता है।

किन्तु यह रोग कुकल्पनाओं का उत्पादन है। उसका उद्गम छिद्र बन्द न किया जाय तो पानी रिसता, फैलता और बहता ही रहेगा। सही सोचने का तरीका यह है कि मनुष्य के पुरुषार्थ, साधन एवं सहयोगी समुदाय की सम्मिलित क्षमता ऐसी है जो किसी भी आपत्ति का सामना कर सकती है। आपत्तियों में आधी से अधिक कुकल्पनाओं की डरपोक स्वभाव की उत्पत्ति हैं। उन्हें अपनी विधेयात्मक क्षमताओं को स्मरण करते हुए बात भी बात में बुहार भगाया जा सकता है। जो शेष रह जाती हैं उनके साथ लड़ने की रणनीति बनाकर निरस्त किया और मार भगाया जा सकता है। इसके बाद जो बचती हैं, वे बहुत स्वल्प मात्रा में रहती हैं। वे बनी भी रहें तो भी मनुष्य इतनी मजबूत धातुओं का बना हुआ है कि उनका वजन ढोने से वह न चरमरा सकता है और न टूट सकता है। मनुष्य जिस प्रकार सुविधाओं, लाभों और सफलताओं को पाकर यथावत् बना रहता है, उसी प्रकार थोड़ी बहुत छोटी−मोटी कठिनाइयों को सहन एवं वहन करने से उसका कुछ बिगड़ता नहीं। वरन् सच तो यह है कि उसकी क्षमता बढ़ती है। संकल्प बल और मनोबल बढ़ाने का लाभ कठिनाइयों से जूझने में ही मिलता है। लड़ाकू जुझारू सैनिक ही अपनी प्रतिभा का परिचय देकर पदोन्नति प्राप्त करते और सेनापति बनते हैं। मुसीबतें एक प्रकार की अग्नि परीक्षा है जो हर किसी के व्यक्तित्व को निखारती और परिपक्व बनाती है। चतुरता बढ़ाने और कौशल निखारने के लिए संकटों से लौह लेने के अतिरिक्त और कोई सुनिश्चित उपाय है नहीं।

तनाव की स्थिति सामने आने पर अपनी चिकित्सा आप करनी चाहिए। देखना चाहिए कि किन चिन्ताओं का भार सिर पर लदा है। जो दिखाई पड़े उनके बारे में नया परीक्षण यह करना चाहिए कि यह काल्पनिक भी तो हो सकती है। ऐसा क्या सुनिश्चित प्रमाण है कि जो अनुमान लगाया गया है, वह सही ही हो। बरसात में कई बार काली घटाएँ उठती हैं और तेज हवा के आ धमकने पर ऐसे ही बिना बरसे उड़ जाती हैं। ऐसा क्यों न माना जाय कि जिन कुकल्पनाओं से अपना मन भयभीत है, वे अवास्तविक ही सिद्ध होंगी। फिर यह भी सोचना चाहिए कि कुछ अपनी भी तो क्षमताएँ हैं। भगवान ने हमें भी तो सामर्थ्य दी है। सामर्थ्यवानों का इतिहास है कि उनने विपन्न परिस्थितियों में भी टक्कर मारी और उलटे को उलटकर सीधा कर दिया। हम क्यों वैसा नहीं कर सकते हैं। अपनी क्षमताओं को भूले रहने के कारण ही लोग आपत्तियों में पिस जाने और उनका सामना न कर पाने की बात सोचते हैं। किन्तु जब सीना तानकर−कमर कसकर जूझने का निश्चय किया गया तो प्रतीत होगा कि मनुष्य की सामर्थ्य संसार की हर कठिनाई से बड़ी है। हनुमान सोचते थे कि समुद्र पार करना कठिन है। पर जब जामवन्त ने उनकी क्षमता का स्मरण दिलाया तो वे लंका तक छलाँग लगाकर या तैरकर जा पहुँचने में सफल हो गये। इतना ही नहीं, रास्ते में बैठी दृष्टांत सुरक्षा के मुँह में ग्रास बन जाने पर भी उसमें से निकल भागे। समूची लंका में भरे हुए दुष्ट दानवों के गढ़ में अकेले ही पुरुषार्थ दिखाते और चमत्कार बताते रहे। यदि आत्म−गौरव का स्मरण न हुआ होता तो वही स्थिति बनी रहती, जिसमें भगोड़े सुग्रीव के यहाँ नौकरी करके वे किसी प्रकार अपने दिन गुजार रहे थे।

मनुष्य की सामर्थ्य असीम है। वह कोलम्बस की तरह सुदूर देश तक नौका लेकर अमेरिका की तलाश कर सका और फिर असंख्यों को वहाँ पहुँचकर बसने और सुसम्पन्न बनने का द्वार खुल गया। साधनों में सबसे बड़ा साधन मनुष्य का मनोबल है। उसे प्रसुप्ति से जागृति की स्थिति में यदि लाया जा सके तो वह दूसरा कुम्भकरण सिद्ध हो सकता है। संसार के शूरवीरों की सफलताएँ उनके साधनों पर नहीं साहस पर निर्भर रही हैं। इसकी साक्षी में नैपोलियन जैसों की जीवन गाथाएँ प्रस्तुत की जा सकती हैं। गान्धी और बुद्ध जैसे दुर्बलकाय मनुष्यों ने अपने समय की विपन्न परिस्थितियों का एक प्रकार से काया−कल्प ही कर दिखाया था।

यह भली−भांति समझ लिया जाना चाहिए कि रोग शरीरगत दिखाई पड़ता हो एवं यदि तनाव के लक्षण शरीर में दिखाई पड़ रहे हों तो उसके लिए चिंतन पद्धति एवं आहार−विहार में सुधार परिवर्तन कर लेने से बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। भोजन भी सौम्य सात्विक वस्तुएँ भूख के साथ तालमेल बिठाते हुए खाया जाय। स्वच्छता और नियमितता को सतर्कता पूर्वक अपनाया जाय। और हँसते−हँसाते, हलका−फुलका जीवन जीने का अभ्यास किया जाय, तो तनावजन्य व्यथाओं से निश्चयपूर्वक छुटकारा पाया जा सकता है।


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