आत्मिकी का परिष्कार एवं उसकी चमत्कारी परिणतियाँ

February 1985

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आदिम काल के मनुष्य के पास हाथ पैर भर थे। पेट भरने के लायक समझ। इतने में ही उसे गुजारा करना पड़ता था। आज की तुलना में उस स्थिति को दयनीय और दुर्दशाग्रस्त उपहासास्पद ही कहा जा सकता है। दैवी अनुग्रह से आग जलाने से लेकर धातु गलाने तक के अनेकानेक वैज्ञानिक रहस्य उसके हाथ लगते गये और तद्नुरूप प्रगति और सम्पन्नता के मार्ग पर वह बढ़ता चला आया। विज्ञान उसके हाथ न लगा होता तो पिछले लाखों वर्षों में प्रकृति के जो उतार−चढ़ाव हुए हैं उनसे मनुष्य जैसा दुर्बल काय प्राणी कब का अपना अस्तित्व गँवा बैठा होता। भौतिक विधान ही है जिसने मनुष्य शरीर से प्रत्यक्ष सम्बन्ध न रखने वाले पदार्थों को तोड़-मरोड़कर इस योग्य बनाया ताकि वे जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करने में महत्वपूर्ण योगदान देने लगे।

मानवी सत्ता दो हिस्सों में बँटी हुई है। एक शरीर कार्या−पदार्थ। दूसरी चेतना, मन, बुद्धि, अन्तस्। इनका भी एक विज्ञान है। इनका सही दिशा में विकास करने और सदुपयोग करने की प्रथम भूमिका है। इस भूमिका को सम्पन्न करने वाली विद्या का नाम है- अध्यात्म-विज्ञान। पुरातन सतयुग की बेला में अध्यात्म विज्ञान पर मनीषियों ने अधिक जोर दिया था ताकि उपलब्ध सामग्री का श्रेष्ठतम उपयोग करके न केवल आन्तरिक दृष्टि से बलिष्ठ रहा जाय वरन् उपलब्ध भौतिक सामग्री का भी श्रेष्ठतम सदुपयोग सम्भव हो सके। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता और बलिष्ठता इसी पर निर्भर रहती रही है।

समय का फेर ही कहना चाहिए कि भौतिक विज्ञान अपनी गति से चलता रहा और उस तक जा पहुँचा जहाँ मनुष्य अपने आपको सृष्टि का मुकुट मणि और सृष्टि का अधिष्ठाता बनने का दावा करता है। दूसरे क्षेत्र में खेदजनक स्थिति उत्पन्न हुई। अध्यात्म के सम्बन्ध में जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण रहना चाहिए था वह एक प्रकार से विस्मृत ही हो गया। बदले हुए समय के अनुरूप पुरातन प्रतिपादनों में जो हेर−फेर होना चाहिए था वह न हो सका फिर निर्धारणों की जो निरन्तर परीक्षा होती रहनी चाहिए थी उसका भी कोई आधार न रहा। ऐसी प्रयोगशालाएँ भी मिट गईं, जिनमें असाध्य विज्ञान को युग की आवश्यकताएँ पूरी कर सकने वाली विधाओं का प्रस्तुतीकरण सम्भव हो सकता। गाड़ी के दो पहियों में से एक टूट जाय तो उसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा? भौतिक विज्ञान की दिशा में परिपूर्ण दिलचस्पी ली जाती रहे और अध्यात्म−विज्ञान उपेक्षा के ही नहीं भ्रान्तियों के अन्ध कूप में गिरा दिया जाय तो उसे भाग्य की क्रूर विडम्बना ही कहा जायेगा।

इन दिनों अध्यात्म का एक ही भौंड़ा स्वरूप जहाँ−तहाँ दिख पड़ता है कि अमुक देवी−देवता की औंधी−सीधी पूजा−पत्री की जाय और बेबात की बात में प्रसन्न होकर दर्शन दें और पूछें “वर माँग, वर माँग।” तथाकथित भक्त उनके सामने अपनी मनोकामनाओं की लम्बी लिस्ट रखें। देवता तथास्तु कहकर, अंतर्ध्यान हो जाय। इसमें कर्मकाण्ड ही मुख्य माना गया है। साधक के व्यक्तित्व को परिष्कृत करने की आवश्यकता नहीं समझी गई जबकि उसी की चुम्बकीय शक्ति से अदृश्य लोक से कुछ कहने लायक उपलब्धियाँ हस्तगत होती हैं।

यदि आध्यात्म सनकी लोगों की परिकल्पना मात्र है तो उसका अन्त होना चाहिए ताकि उस जंजाल में उलझे हुए लाखों व्यक्तियों का चिन्तन, समय और श्रम बर्बादी से बचाया जा सके। यदि वह सही है तो उसकी प्रामाणिकता इस तरह निखर कर आनी चाहिए जिसे कोई चुनौती न दे सके। बिजली को, आग को, बर्फ को, विष को कोई चुनौती नहीं दे सकता। क्योंकि उनके लाभ और हानि प्रत्यक्ष हैं। अध्यात्म विज्ञान भी ठीक इसी तरह है उसका कोई भी पक्ष ऐसा नहीं है जिसे झुठलाया जा सके। पर यह सम्भव तभी है जब उसके उपकरण और प्रयोग विधान सही हों।

प्रयोगशाला को सही एवं आवश्यक उपकरणों से सुसज्जित करना भौतिक विज्ञान की प्रथम आवश्यकता है। अध्यात्म विज्ञान के प्रयोगों में साधक को अपना शरीर और मनःसंस्थान इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए उपयुक्त बनाना पड़ता है। भगवान ने मनुष्य को इतना सुसम्पन्न बनाकर भेजा है कि उसमें ब्रह्माण्ड की न केवल झाँकी की जा सकती है वरन् उसकी ज्ञात अविज्ञात क्षमताएँ भी उसमें प्रसुप्त रूप से विद्यमान पाई जाती हैं। बरगद का बीज राई जितना होता है पर उसे विधिवत् अंकुरित करने और पोषण करने से कुछ ही समय में इतना बड़ा विशाल वृक्ष हो जाता है कि उसकी छाया में सैकड़ों पशु−पक्षी और मनुष्य गुजारा कर सकें। मनुष्य के बारे में भी यही समझा जाना चाहिए कि पेट प्रजनन के कोल्हू में पिलता हुआ हाड़−माँस का पुतला मात्र है पर उसकी पाँचों परतें उखाड़ कर देखा जाय तो उन तिजोरियों में एक से एक बहुमूल्य रत्न राशि भरी पाई जा सकती है। इन्हीं सब सम्भावनाओं और यथार्थताओं का प्रत्यक्षीकरण अध्यात्म विज्ञान है।

भौतिक विज्ञान की शाखा प्रशाखाओं से सम्बन्धित फलश्रुतियाँ स्कूल के विद्यार्थियों को भी विदित हैं किन्तु अध्यात्म विज्ञान की दिशाधारा एवं विद्या से अपरिचित होने के कारण समझदारों के लिए भी उसका सही स्वरूप समझना और समझाना कठिन है। उसका स्वरूप बिगड़ते−बिगड़ते बाजीगरों के कौतुक जैसा बन गया है। जिनकी नकल कोई भी चतुर व्यक्ति उतार कर लोगों को आश्चर्यचकित कर सकता है। सिद्धियाँ इतनी ही रह गई हैं। एक ओर लम्बी और अनिश्चित मंजिल है कि देवी देवताओं की मनुहार उपहार करके मनोकामनाएँ पूर्ण करा लेने के दिवा स्वप्न देखे और दिखाये जाँय। इसमें देवताओं का मूल्य घटता है कि वे पूजा पत्री के लिए इतने अधिक ललचाते रहते हैं कि उसका प्रलोभन दिखाकर उनसे कुछ भी उचित अनुचित कराया जा सके।

प्रचलित मान्यताओं से वास्तविकता बिलकुल भिन्न है। उस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले हर साधक को अपना शरीर और मन ऐसा परिष्कृत बनाना पड़ता है जिससे जीव विद्युत का अतिरिक्त उत्पादन सम्भव हो सके। मनुष्य शक्तियों का भण्डार है। उसके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में इतनी अद्भुत विभूतियाँ भरी पड़ी हैं कि उनके जागरण मात्र से वह असाधारण दृष्टिगोचर हो सके। अपने आपके लिए भी− दूसरों के लिए भी और समस्त संसार के लिए भी। यह दिव्य क्षमताएँ वह अपने भीतर से भी उगाता है और इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र संव्याप्त होने के कारण उसमें से भी अभीष्ट मात्रा में खींचता है। पुरातन काल में ऋषियों को अपनी आध्यात्मिक प्रयोगशाला में कार्य के अनुरूप उपयुक्त वातावरण भी बनाना पड़ता रहा है। साथ ही अपने व्यक्तित्व को भी इस योग्य बनाना पड़ा है जिसमें दिव्य क्षमताओं के उगने एवं उतरने में कठिनाई न हो। यह प्राथमिक आवश्यकता है इसे जो पूरा कर सके हैं उन्हें दिव्य मानव, देव मानव, ऋषि, कल्प तपस्वी आदि नामों से जाना जाता रहा है। वे अपने उपार्जन को निज के और दूसरों के काम में भरपूर मात्रा में लाते रहे हैं। मल्लाह बाढ़ वाली नदी को स्वयं भी पार करता है और दूसरों को भी बिना हिचक इधर से उधर पार करता रहता है। आत्म विज्ञानियों में से प्रत्येक की स्थिति ऐसी ही होती है।

आत्म विज्ञान के आधार पर कुछ लाभ स्वयं को मिलते हैं? इसके मिलने से उसकी प्रामाणिकता का पता चलता है कि वह वस्तुतः गहरा गोता लगाकर मोती बीन लाने की स्थिति में हुआ या नहीं। इसके बाद यह विश्वास भी होता है कि वह उपार्जित सम्पदा में दूसरों के लिए रत्नाभूषण बनाकर उपहार में दे सकता है या नहीं।

अध्यात्म का प्रथम प्रतिफल निरोगी काया के रूप में दृष्टिगोचर होता है आहर विहार का संयम बरतने के कारण वह तो दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु से बच जाता है। आमतौर से उसे काय कष्ट नहीं उठाने पड़ते। साधक का मन प्रसन्न सन्तुष्ट और उल्लसित रहता है जबकि यह लाभ कोटयाधीशों के भाग्य में भी बदा नहीं होता। वे हर समय सोते जागते चिंतातुर ही रहते हैं। खीज और थकान उन पर निरन्तर छाई रहती है। उपार्जन, संरक्षण, आक्रमण हानि जैसे कितने ही भय उन्हें त्रास देते रहते हैं उस दबाव से शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार के स्वास्थ्य खो बैठते हैं। गहरी नींद का आनन्द उन्हें कदाचित् ही कभी आता है। चेहरे पर फूल जैसी मुस्कान कदाचित् ही कभी दृष्टिगोचर होती हो। इसके लिए तड़पते हैं तो मदिरा और व्यभिचार का आश्रय लेते हैं उसमें भी उत्तेजना भर मिलती है और फिर भी मन को खिला देने वाली प्रसन्नता तो कदाचित् ही कभी दृष्टिगोचर होती है। यह स्थिति आये बिना चैन की लम्बी निरोग जिन्दगी नहीं जियी जा सकती जिसे कि ऋषि कल्प स्थिति के लोग सहज ही हस्तगत कर लेते हैं।

ऐसे व्यक्तियों की मन की प्रसन्नता का क्या कहना? जो राग−द्वेष से ऊपर उठ जाते हैं, उन पर हर घड़ी प्रसन्नता की मस्ती छाई रहती है। यही सोम रस है। इसे पीकर अमर हुआ जा सकता है। मस्तक का क्षरण काम करने से नहीं मनोविकारों से होता है। अंतर्द्वंद्वों में शरीर गलता है। जिसने प्रसन्नता सिद्ध कर ली, वह साँसारिक दृष्टि से खिला हुआ फूल समझा जायेगा और तितलियों, मधु-मक्खियों, भौरों को अपनी और आकर्षित करेगा। इतना ही नहीं, उसका मस्तिष्क असाधारण क्षमताओं से सम्पन्न रहेगा। ऐसे कितने ही जादुई मस्तिष्क देखे जाते हैं, जिन्हें लायब्रेरियां की लायब्रेरियां जबानी याद थीं। जो छोटी आयु में ही ढेरों कक्षाओं के विद्वान हो गये थे। जिनने 3 वर्ष की आयु में ही भाषा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। एक घटना तो ऐसी है जिसमें गर्भस्थ बालक ऐसी बातें करने लगा था मानों वह कोई भरा−पूरा वैज्ञानिक हो। विलक्षण प्रतिभाओं का यह चमत्कार मस्तिष्क को क्षीणता से बचा लेने मात्र का प्रतिफल है।

सामान्यतया मनुष्य जीवित लोगों से ही संपर्क रख सकने में समर्थ होता है। पर यदि मनोमय कोश का धरातल कुछ ऊँचा हो जाय तो उस विश्व ब्रह्माण्ड में परिभ्रमण करती हुई अनेकानेक दिवंगत आत्माओं से संपर्क सध सकता है, और एक−एक लोक के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रह सकता है, जिसके बारे में अब तक नहीं के बराबर जानकारी रही है। मोटेतौर पर यही समझा जाता है कि भूत−प्रेत कहीं श्मशान, पीपल, खण्डहर पर बैठे रहते और जिस−तिस को डराकर कुछ पूजा पत्री ऐंठते रहते हैं पर गहरी जानकारियों ने बताया है कि उनका एक सुविस्तृत लोक अपने इस मनुष्य लोक जैसा ही है जहाँ के निवासी जीवित मनुष्यों की कई तरह से सेवा सहायता भी करते रहते हैं। उन्हें पूर्वाभास कराते और कई मुसीबतों से बचाते हुए अप्रत्याशित सुविधाओं का सुयोग बिठाते हैं। विकसित सूक्ष्म शरीर का तन्त्र विज्ञान के माध्यम से इनके साथ सरलतापूर्वक सम्बन्ध सध सकता है।

कितने ही देवोपम ऋषि व्यक्ति ऐसे भी हैं जो अपने सूक्ष्म शरीर को तो साधनारत देखते हैं पर स्थूल शरीर से अन्य उपयुक्त व्यक्तियों के माध्यम से ऐसे कृत्य करते कराते रहते हैं जो संसार के हित साधन में महत्वपूर्ण सहायता करें।

मन्त्र शक्ति−अस्त्र-शस्त्रों की सामर्थ्य से बढ़कर है घटकर नहीं। अन्तरात्मा की दिव्य ऊर्जा जब जागृत होती है तो समीपवर्ती समस्याओं के समाधान में सहायता करती है। वातावरण बदलती है और जिन्हें उपयुक्त समझती है उन्हें शाप से दण्डित और उपहार से पुरस्कृत करती है।

मनुष्य के शरीर और मन में अनेकानेक सामर्थ्यों के पुँज भरे पड़े हैं पर उनमें से जितने दैनिक प्रयोजनों में काम आते हैं उतने ही जागृत स्थिति में रहते हैं। शेष सोई स्थिति में रहते हैं। यदि उनमें थोड़ी-सी भी सामर्थ्य जगाई जा सके तो व्यक्ति सिद्ध पुरुष विभूतिवान बन जाता है और सामान्य व्यक्ति की तुलना में कई गुनी क्षमता का परिचय देता है और वह क्षमता भी सामान्य स्तर की न होकर विशेष स्तर की होती है। ऐसे व्यक्ति एक होते हुए भी, एक शरीर में रहते हुए भी ऐसी भूमिकाएँ निभाते हैं, मानों कितने ही सामर्थ्यवान मिल-जुलकर किसी बड़े मोर्चे को सम्भाले हुए हों। संख्या की दृष्टि से उन्हें एक गिना जा सकता है किन्तु क्रियाओं की दृष्टि से वे अत्यधिक प्रयास करते और उतना करते हैं जितना अनेकों मिलकर भी कदाचित् ही कर पाते। कई बार तो उन अकेले का ही ऊर्जा प्रवाह एक वातावरण को उलट देने का अप्रत्याशित काम करता है।

वर्तमान व्यापक संकटों में आत्म शक्ति के विकसित होने पर कितने ही समाधान निकल सकते हैं। अणु युद्ध की बात सोचने वालों के दिमाग उलट सकते हैं उनके दुस्साहस भयभीत होकर अपना ही मरण सोच सकते और हाथ खींच सकते हैं। चलने वाले आयुध जमीन पर गिरने की अपेक्षा पंख लगाकर आकाश में उड़ सकते हैं। पर्यावरण में छाया हुआ विकिरण कोई बुहार कर महा अंतरिक्ष में कूड़े करकट की तरह फेंक सकता है। वृक्षों की कमी से आक्सीजन की कमी पड़ने पर उसकी पूर्ति घास−पात या अनाज के छोटे पौधों में कराई जा सकती है। बादलों को दिशा देकर वर्षा का अभाव दूर किया जा सकता है। इसी प्रकार खनिजों की कमी से उत्पन्न होने वाला विश्व संकट किसी अन्य उपचार द्वारा सरल हो सकता है। उमड़ते युद्ध की घुमड़ती घटाटोप घटाएं किसी आँधी तूफान के प्रवाह में पड़कर कहीं से कहीं पहुँच सकती हैं।

मनुष्य की पीढ़ियाँ वंशानुक्रम एवं जीन्स स्थिति के कारण कुमार्गगामी, कुत्सा और कुण्ठाग्रस्त बनती जा रही है, उन्हें सुधारने के लिए एक−एक व्यक्ति की सूक्ष्म सर्जरी होना कठिन है किन्तु अध्यात्म शक्ति यदि एक्सरे की तरह एक−एक मनुष्य में होकर पार होती चली जाय तो उनमें ऐसे भीतरी परिवर्तन हो सकते है जिससे भावी पीढ़ियों का स्वभाव एवं स्तर ही बदल जाय। इतने लोगों को पढ़ाना, समझाना और मस्तिष्क की धुलाई करना वर्तमान प्रशिक्षण प्रक्रिया के अंतर्गत बहुत कठिन है। किन्तु यदि मनुष्यों का स्तर झाँर अन्तराल बदलने वाला विद्युतीय तूफान आ धमके तो युग परिवर्तन के अवसरों पर भूतकाल में जो चमत्कार होते रहे है वे अभी भी हो सकते है। विश्व परिवर्तन की−युग परिवर्तन की दिशा में और भी ऐसा बहुत कुछ हो सकता है जिससे स्वरूप की अभी तो कल्पना भी नहीं की गई है। नये युग का मनुष्य ऐसा हो सकता है। जिसमें न केवल गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से वरन क्षमताओं की दृष्टि से भी ऐसा परिवर्तन हो सके जिसका अभी तो यदा−कदा परिचय मिलने पर ही अपने को हतप्रभ होना पड़ सकता है।

ऐसी−ऐसी वैयक्तिक सामूहिक−प्रगति गत अनेक कल्पनाओं के करते हुए असम्भव जैसा कुछ भी अनुभव नहीं करना चाहिए। यह विश्व जिस नियन्ता का बनाया हुआ है अपनी कलाकृति में थोड़ा बहुत अन्तर कर दे तो उसमें अनहोनी जैसी बात क्या है? मनुष्य देखने में कीट पतंगों में से एक है। पर स्मरण रहे वह ईश्वर का अविनाशी अंश और राजकुमार भी है। जो ब्रह्माण्ड में है वह बीज रूप में पिण्ड में भी है इस तथ्य को भुला देने की आवश्यकता नहीं है। फिर दोनों के बीच इतना अन्तर कैसे पड़ गया? इसका एक ही उत्तर है कि व्यक्ति हर दृष्टि से अनैतिक बन गया है। उसका चिन्तन, चरित्र, व्यवहार, मान्यता, आकाँक्षा, भावना, क्रिया, सभी कुछ अवाँछनीय दिशा में उलट गई हैं। उसे उलटेपन को उलट कर यदि सीधा किया जा सके तो आज की चिन्ताएँ और समस्याएं कल ही सरल और सुगम हो गई दृष्टिगोचर होंगी।

प्राचीन काल में जिन प्रयोजनों की आवश्यकता थी उनको ध्यान में रखते हुए उन दिनों की साधना का उपक्रम बनाया गया था। अतएव उसका स्वरूप कुछ भिन्न था लेकिन आज की परिस्थितियाँ, आवश्यकता और वातावरण का प्रवाह ही भिन्न नहीं है वरन साधना करने वालों के शरीर एवं मन जिस अन्न जल से जिस संपर्क संसर्ग में जिस ढाँचे में ढल गये हैं उसका एक बार नये सिरे से काया−कल्प करना पड़ेगा। छुरी चाकू मामूली लोहे में भी ढल जाते हैं पर तोपें ढालने के लिए उनमें अष्ट धातुओं का संमिश्रण प्रयुक्त करना पड़ता है। अन्यथा इतनी अधिक और इतनी तेज बारूद का धमाका होने से निशाना सही स्थान पर लगना तो दूर, वह तोप ही टुकड़े−टुकड़े हो जायेगी। आज की स्थिति के अनुरूप अध्यात्म शक्ति का उद्भव और प्रकटीकरण करने के लिए परोक्ष जगत में क्रियाशील तपःपूत आत्माओं को काया−कल्प स्तर का प्रयोग करना पड़ रहा है। एक नहीं अनेकों उच्चस्तरीय आत्माएँ उस प्रयोग में लगी हैं जिससे आत्मिकी की परिष्कृति से चमत्कारी नवयुग का आगमन सम्भव हो सके।


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