साधना से सिद्धि

February 1985

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सिद्धि के लिए−सफलता के लिए−साधना की अनिवार्य आवश्यकता मानी है। कहा गया है कि साधक को सिद्धि मिली है। जो सिद्धि चाहते हैं पर साधना से जी चुराते हैं उन्हें असफल रहना पड़ता है। भले ही वे उसका दोष किन्हीं व्यक्तियों, परिस्थितियों, ग्रह नक्षत्रों को लगाते रहें।

संसार में हर वस्तु मूल्य देकर खरीदी जाती है। मुफ्त में ही सड़क पर पड़ा हुआ कूड़ा−करकट ही कोई समेट सकता है। बहुमूल्य मोती बीनने वाले को समुद्र की तली से गहरे गोते लगाने पड़ते हैं। इतना ही नहीं सफल गोताखोर बनने के लिए उस कला ही बारीकियाँ समझने और प्रवीणता प्राप्त करने के लिए मुद्दतों का समय लग जाता है।

कहा जाता है कि साधना बारह वर्ष में पूरी होती है और तब इस योग्य बनती है कि अभीष्ट सफलता के दर्शन हो सकें। यह बात अध्यात्मिक साधनाओं के लिए ही नहीं साँसारिक प्रयोजनों की पूर्ति के लिए समान रूप से सही है। कलाकार, संगीतकार, गायक, वादक, बनने के लिए जो महीने पन्द्रह दिन का समय पर्याप्त समझते हैं वे भूल करते हैं। साधक को कई मंजिलें पार करनी पड़ती हैं। उसमें सबसे पहली कठिनाई है। चित्त की ऊब से निपटना। बाल बुद्धि में अस्थिरता होती है वह अधिक देर किसी काम पर नहीं टिकती। बच्चे अभी बालू का महल बनाते हैं। वह बन नहीं पाता कि टहनियाँ तोड़कर बगीचा लगाना आरम्भ कर देते हैं। वह भी जब तक पूरा नहीं हो पाता कि तीसरा आरम्भ करते हैं और फिर चौथे पांचवें का सिलसिला चला देते हैं। मन की उतावली चाहती है कि जिस प्रकार चिन्तन में जल्दबाजी मची रहती है उसी उतावली से काम भी बनते चले जाँय। पानी के बबूले उठते तो बहुत जल्दी हैं पर उन्हें फूटने में भी देर नहीं लगती। यह खेल−खिलवाड़ की दृष्टि से तो ठीक है पर महत्वपूर्ण कार्यों के लिए जितना श्रम और समय चाहिए उसे देखते हुए उतावली का कोई मूल्य नहीं है।

शेख-चिल्ली की कहानी सभी ने सुनी होगी। वह तेल का मजूरी से मिलने से पहले ही मुर्गी−मुर्गी से बकरी−बकरी से भैंस−भैंस से मकान−मकान में बीबी, बीबी के बच्चे होने की योजना बनाने लगा था। उतावली इतनी थी कि तेल का घड़ा सिर से गिर गया और मजूरी मिलना तो दूर मालिक के लात घूँसे खाने पड़े। यह कहानी सच न भी हो तो भी हममें से अधिकाँश के ऊपर लागू होती है। जो योजनाएँ तो बड़ी बनाते हैं और आकर्षक भी। पर उन्हें पूरा करने के लिए जिस एकाग्रता, श्रमशीलता एवं धैर्य की आवश्यकता है उनमें से एक भी सँजोते नहीं, सफलता चाहते हैं। पर साथ ही इस बात के लिए भी व्याकुल रहते हैं कि उसके लिए निरंतर अभ्यास न करना पड़े और जब तक प्रवीणता प्राप्त होने के लिए परिश्रम की आवश्यकता है उतनी देर प्रतीक्षा न करनी पड़े। इस उतावली में कितने ही व्यक्ति एक काम भारी उत्साह के साथ पकड़ते हैं और जब हथेली पर सरसों नहीं जमती तो अधीर हो जाते हैं। उस निराशा में जो कर रहे थे उसे छोड़ बैठते हैं और फिर कोई नया काम अपनाते हैं। उसमें भी देर तक मन नहीं लगता और इस प्रकार एक के बाद दूसरे अधूरे काम छोड़ने और उन असफलताओं का दोष जिस−तिस पर लगाते हुए भाग्य को कोसते हैं। इस प्रकार मनोबल टूट जाता है और थोड़े समय में−सामान्य परिश्रम से बन पड़ने वाले काम भी पूरे नहीं हो पाते।

किसी भी महत्वपूर्ण काम की सफलता के लिए आवश्यक योग्यता की वृद्धि, अभीष्ट साधन एवं अनवरत श्रम की आवश्यकता होती है। इतने पर भी बीच−बीच में परिस्थितिवश असाधारण कठिनाइयाँ आतीं और असफलताएँ दिखती रहती हैं। जो इतने भर से घबरा गये उन्हें निराशा घेर लेती है।

एक विद्वान का कथन है कि हर असफलता यह बताती है कि जितने साधन और श्रम की आवश्यकता थी उसमें कमी रह गई। इसलिए अबकी बार उसे दूने उत्साह के साथ करना चाहिए। राणा प्रताप जैसे अनेकों योद्धाओं को जीवन भर कठिनाइयाँ और असफलताएँ घेरे रहीं। पर उनने मन मलीन नहीं होने दिया और एक तरह न सही दूसरी तरह निश्चित लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयत्न किया।

ईसा−मसीह आजीवन अपने निश्चित संकल्प की पूर्ति में लगे रहे, फिर भी सफलता नाम मात्र की मिली और शूली पर चढ़ना पड़ा। इतना होते हुए भी उनकी न तो प्रशंसा हुई न अप्रतिष्ठा। क्योंकि वे आरम्भ से लेकर अन्त कर संकल्पपूर्वक अपनी साधना में लगे रहे। सफलता का अपना महत्व है पर साधना पथ पर अन्त तक आरूढ़ रहना यह भी कम महत्व की बात नहीं है। उससे मनुष्य की गरिमा घटती नहीं है।

आध्यात्मिक साधनाओं के मार्गदर्शक अपने शिष्यों को कहते हैं कि अपनाये हुए मार्ग पर जन्म-जन्मान्तरों तक आरूढ़ रहना चाहिए। एक जन्म में लक्ष्य पूरा न हो सके तो बिना उदास हुए उसे अगले जन्म में पूरा करने का संकल्प सुनिश्चित रखना चाहिए। जिनका मनोबल इतना प्रबल होता है ऐसे ही साधक सिद्ध पुरुष बनते हैं।

अनेकों वैज्ञानिक ऐसे हुए हैं जिन्हें अपनी शोध में सारा जीवन खपा देना पड़ा। तब उन्हें कुछ प्रकाश हाथ लगा। ऐसा भी हुआ है कि उनके प्रयास से लाभ उठाकर अगली पीढ़ी के वैज्ञानिक ने सफलता सम्पन्न की। शब्द कोश बनाने जैसे समय साध्य कार्य कभी−कभी एक पीढ़ी के लोग पूरा नहीं कर पाते तब छोड़ा हुआ काम अगले लोग पूरा करते हैं। इससे उन पर कोई असफलता का दोष नहीं मढ़ता वरन् धैर्य और साहस की प्रशंसा की होती है। कलाकारों में से कितने ही हुए हैं जो अपने विषय के प्रवीण पारंगत बने। जबकि आरम्भ में उनकी सामान्य बुद्धि उपहासास्पद लगती थी। लगन बड़ी चीज है। तत्परता का बड़ा महत्व है, वह कालिदास जैसे मूर्खों की लगन की कसौटी पर कसने के उपरांत मूर्धन्य होने का श्रेय प्रदान करती है। अमेरिका की खोज निकालने वाले कोलम्बस की लम्बी समुद्री यात्राओं और बीच−बीच में आती रही प्राणघाती असफलताओं को जो जानते हैं उन्हें मनुष्य की तत्परता का मूल्य समझने का अवसर मिलता है।

जो काम करना हो उसे समझ सोचकर किया जाय। अपनी सामर्थ्य, साधन, परिस्थिति आदि का आरम्भ में ही अनुमान लगा लिया जाय। मार्ग की कठिनाइयों की कल्पना कर लेने में हर्ज नहीं, इतने पर भी यदि अपना धैर्य और साहस साक्षी देता हो तो संकल्पपूर्वक उस मार्ग पर कदम बढ़ाना चाहिए। बढ़ाने के उपरान्त उस पर दृढ़ रहना चाहिए। प्रयास की दिलचस्पी घटने नहीं देनी चाहिए। ऐसी मनःस्थिति ही साधना कही जाती है। और साधना यदि सच्ची हो तो वह सिद्धि के लक्ष्य तक पहुँच कर रहती है। साधना के लिए एक मोटी अवधि बारह वर्ष की निर्धारित की गई है। जिनमें इतने समय का धैर्य और उत्साह होता है वे देर सबेर में−सिद्ध पुरुष सफल मानव होकर रहते हैं।


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