भक्त का स्तर एवं भगवान की मनुहार

February 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भगवान के दर्शन की इच्छा, हमारे पुराणों, कथा वाचक किंवदंतियों, जन श्रुतियों ने इस कदर फैला और फुला दी है कि उससे हर स्तर के धार्मिक व्यक्ति को इसी की लगन लगी रहती है। पूजा−पाठ का, जप ध्यान का, तीर्थ यात्रा का जो भी क्रिया−कृत्य चलता है उसके पीछे प्रथम उद्देश्य मनोकामनाओं की पूर्ति और दूसरे भगवान की दर्शन झाँकी का मन होता है। ऐसा होना सम्भव है। ऐसा हम आये दिन सुनते आ रहे हैं। यह सब इतना अधिक कहा और सुना गया है कि इस प्रतिपादन के सम्भव या असम्भव होने तक यह कभी विचार नहीं उठता। इन सम्भावनाओं पर तर्क और विवेक का उपयोग करने तक की इच्छा नहीं होती। इस संदर्भ में जनमानस सम्मोहन ग्रस्त जैसा हो गया है। किसी असत्य को सत्य जैसी मान्यता मिले यह बड़े दुर्भाग्य की बात है।

कर्मफल का सिद्धांत सही और सर्वमान्य है। इसी मान्यता से प्रेरित प्रभावित होकर लोग सत्कर्म करते और दुष्कर्मों से यथा सम्भव बचते हैं। पुरुषार्थ भी संसार में इसीलिए जीवित है कि उसके द्वारा क्षमता सम्पदा और सफलता की उपलब्धि को विश्वस्त माना जाता है। कभी अपवाद आते हैं तो भी उसका समाधान इस प्रकार कर लिया जाता है कि कोई कर्मफल आगे पीछे के व्यतिक्रम में उलझ गया होगा। देर हो रही होगी, अन्धेर नहीं होना है।

मानवी नीति निष्ठा और अनुशासन परायण को स्थिर रखने और विश्व व्यवस्था न बिगड़ने देने की दृष्टि से यह मान्यता सर्वथा उचित एवं आवश्यक है। इसमें व्यतिरेक उत्पन्न करना लगभग नास्तिकता को अपना लेने जैसा है। कर्मफल नहीं मिलता। न बुरे को बुरा न अच्छे का अच्छा। संसार में ऐसे ही अँधेर चल रहा है। जो बलिष्ठ और आक्रान्ता है सफलताएँ उसी को मिलने वाली हैं। इस प्रकार के चिन्तन ने असुरता को बढ़ावा दिया है और पाप अनाचार की बाढ़ आई है। अस्तु “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाला सिद्धान्त विचारशील समाज द्वारा अमान्य और निन्दनीय ठहराया गया है। संसार में कर्म के प्रतिफल की मान्यता जीवित ही रहनी चाहिए।

इसी मान्यता का सहोदर भाई एक और है। वह यह कि देवी देवताओं की हलकी−फुलकी पूजा−पत्री कर देने से उन्हें प्रसन्न किया जा सकता है और वह मनोरथ चुटकी बजाते पूरा हो सकता है जिसके लिए योग्यता बढ़ाने, साधन जुटाने, कष्ट साध्य परिश्रम एवं देर तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता पड़ती है। पूजा से प्रसन्न करके देवताओं से मनमाने वरदान पाने का सिद्धांत बड़ा विचित्र है। यह एक तो कर्मफल के सर्वमान्य सिद्धान्त को काटता है और दूसरे देवी−देवताओं की गरिमा गिराता है। वे तनिक−सी पूजा पत्री पर उतने प्रसन्न और उदार क्यों हो जाते हैं। भक्तजनों की योग्यता, पात्रता की ओर से आंखें क्यों बन्दर लेते हैं? औचित्य और न्याय की देखभाल उनके यहाँ क्यों नहीं होती?

देवताओं के पास कुछ और भी काम है या इसी एक झंझट में उलझे रहते हैं कि किसने कितनी पूजा की और उसका मनचाहा वरदान हाथों हाथ भेजा गया या नहीं? देवता एक−माँगने वाले भक्त लाखों करोड़ों। सबका हिसाब निपटाना उन बेचारों के लिए कितना बड़ा सिर दर्द होगा। सम्भव है कभी सोचते हों कि ऐसी देवतागिरी से क्या लाभ मिला? जरा-सी प्रशंसा की शब्दावली सुनने और दो चार पैसे के निरर्थक सामान की पूजा भेंट पाकर उनका क्या काम चला?

फिर देवता एक नहीं उनकी पूरी फौज है। पुराण प्रसिद्ध देवता भी तैंतीस कोटि हैं। फिर अपने−अपने वंश, कुल, क्षेत्र के अलग−अलग इन सबकी आजीविका इन पूजा करने वाले भक्तों से ही चलती है। तभी वे वरदान देंगे। कोई भूल जाता है या उपेक्षा करता है तो उसके घर वालों में से किसी को विशेषतया बच्चों को बीमार कर देने और जब मुआवज़ा पूरा मिल जाय तब शान्त होने का कृत्य ऐसा है जो साधारण श्रेणी के लोगों के लिए भी अशोभनीय है।

व्रत कथाओं देवी−देवताओं की कथा गाथाओं में जब यही सब आये दिन सुनने को मिलता है, तो अपने ऊपर, देवताओं के ऊपर पूजा पत्री की बाजीगरी का ऐसा न समझ में आने वाला माहात्म्य सुनते हैं तो विवेकशीलता विद्रोह कर उठती है। बेचारी भावुकता की तो कोई कहे क्या? उसे तो झुनझुना देकर भी चुपाया, हँसाया, बहकाया जा सकता है।

इसी के साथ−साथ लगे हाथों भगवान जी के दर्शनों का प्रसंग चलता है। भक्त से भगवान प्रसन्न हुए कि नहीं। इसकी एक पहचान यह है कि वे भक्त के घर दर्शन देने के लिए दौड़े−दौड़े आये कि नहीं। आने पर ही तो−‘‘वर माँग−वर माँग की रट लगावेंगे और भक्त जब लौकिक पारलौकिक सारी कामनाओं की लिस्ट उनके हाथ में थमा देगा तो वे तथास्तु का अभ्यस्त उच्चारण करके अंतर्ध्यान हो चलेंगे।’’

यहाँ विचारणीय बातें कई हैं। भगवान की छवियाँ प्रतिमाएँ अपने हिन्दू धर्म में ही हजारों तरह की हैं। संसार भर के सभी धर्मों के भगवान की छवियों का लेखा−जोखा लिया जाय तो उन सबके आकार−प्रकारों का एक पूरा अजायब घर की बन जाता है। हर मान्यता वाले का अलग भगवान रहा। जिस भक्त ने दर्शन की आकाँक्षा की है उसके लिए उसी रूप में उन्हें आना पड़ेगा। नहीं तो जिस प्रकार तुलसीदास जी कृष्ण की प्रतिमा को देखकर विदक गये थे, वैसी ही गड़बड़ी हर जगह होने लगेगी। भक्त की इच्छा के अनुरूप वेश विन्यास बनाकर भगवान को दर्शन देने की तैयारी करनी पड़ेगी। एक घण्टे में हजारों भक्तों को निपटाना पड़ेगा। ऐसी हालत में लोक−लोकान्तरों में कोटि−कोटि प्रकार के जीव जन्तुओं की व्यवस्था बनाने के लिए समय कहाँ से मिलेगा। भक्त की याचना और भगवान का उसे दर्शन देने के लिए दौड़ पड़ना, इस एक काम को ही वे निपटा सकें तो बहुत समझना चाहिए। विश्व−व्यवस्था के लिए शायद उनने दूसरे मुनीम गुमाश्ते रखे हों।

भक्त और भगवान को दो रास्ते आपस में बाँधे हुए हैं एक मनोकामना की पूर्ति−दूसरा दर्शन देने के लिए भगवान का पधारना। इस सम्बन्ध में भगवान ही घाटे में रहे। अपना घर छोड़कर दौड़ते हुए भक्त के घर भी उन्हीं को आना पड़ा और बिना किसी कर्म, पुरुषार्थ की, औचित्य और पात्रता की देखभाल किये। मनोकामना भी उन्हीं को तत्काल पूरी करनी पड़ी। नफे में तो भक्त ही रहा।

भगवान सम्बन्धी प्रचलित मान्यताओं के सम्बन्ध में हममें से हर एक को विचार करना चाहिए, और सोचना चाहिए कि क्या वे सही हैं? यदि सही हैं तो भक्त और भगवान का स्तर क्या रह गया?

पात्रता अर्जित करने के लिए अपने व्यक्तित्व को निखारना, इसके लिए संयम की कठोर आग में अपने आपको तपाना फिर क्यों किसी के मन भावेगा। वास्तविक झंझट भावुक किंवदंतियों और तथ्यान्वेषी विचारशीलता का है। जो विवेकवान हैं, वे सही रास्ता ही अपनाते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118