योग विधा को गुह्य रखने की परम्परा है। सामान्य बुद्धि से विचार करने पर यह अनुचित लगता है कि किसी अच्छी बात को सर्व साधारण से छिपाकर रखा जाय। अच्छी बात को जितने अधिक लोग जानें उतना ही अच्छा। सामान्य बुद्धि इसी बात का प्रतिपादन करके ही छिपाने वाले निर्देशन की भर्त्सना करेगी।
तथ्य तक पहुँचने के लिए महत्वपूर्ण बातों को जानने के लिए तद्नुरूप पात्रता होने की बात समझनी चाहिए। अस्त्र−शस्त्र छोटे बच्चे के हाथ में नहीं दिये जाते क्योंकि भय रहता है कि वे बुद्धि विकास के अभाव में उसका अनुचित उपयोग कर सकते हैं और अपने लिए तथा दूसरों के लिए संकट खड़ा कर सकते हैं। तिजोरी में क्या है इसे बच्चों को नहीं बताया जाता। जमीन में धन गाढ़ना हो तो भी बच्चों को हटा देते हैं। वे कौतूहल वश दूसरों को बता सकते हैं और घर का भेद अनुपयुक्त लोगों तक पहुँच जाने पर चोरी−डकैती का संकट खड़ा हो सकता है। चूहे या खटमल मारने की दवाएँ बच्चों की पहुँच से बाहर रखी जाती है। खेल-खेल में ही वे उसे खा जायें तो लेने के देने पड़ सकते हैं। इस प्रकार के छिपाव में अनुचित कुछ नहीं है। मात्र सावधानी का− पात्रता का ध्यान रखने भर का भाव है।
योग का आरम्भिक शिक्षण चिन्तन और चरित्र की उत्कृष्टता सिखाने से होता है। राजयोग का पूर्वार्ध यम, नियम, और आसन प्राणायाम हैं, अर्थात् शारीरिक, मानसिक पवित्रता− परिपक्वता। वह स्थिति पूरी होने पर अगले चार चरणों को सीखने की बारी आती है। प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि का अभ्यास इसके आदत करना पड़ता है। छोटी कक्षाओं के बालक, वर्णमाला, मात्रा−स्वर, व्यंजन, गिनती, पहाड़े आदि याद करते हैं। इसके बाद उन्हें सरल स्तर का पढ़ना−लिखना तथा जोड़, घटाना, गुणा, भाग स्तर का गणित पढ़ाया जाता है। प्रगति का एक निर्धारित क्रम है। अंकगणित, रेखागणित, बीज गणित आदि की जानकारियाँ कई कक्षाएं उत्तीर्ण कर लेने के उपरान्त कराई जाती हैं। आरम्भिक कक्षा का विद्यार्थी उन्हें सीखने का आग्रह करे तो अध्यापक हँस भर देते हैं। समय आने पर बताने की बात कहकर टाल देते हैं। बच्चा रूठे तो भी उसकी परवाह नहीं करते। जो बात जिस स्थिति में उपयुक्त नहीं उसमें वह कर गुजरने की हठ करें तो उसे पूरा नहीं किया जाता। पाँच वर्ष का बालक पड़ौस में ब्याह शादी होते देखकर अपने विवाह की हठ करे तो माता−पिता उसकी बात पर कहाँ ध्यान देते हैं। योग की उच्चस्तरीय अतीन्द्रिय क्षमताओं से सम्बन्धित योग पक्ष के सम्बन्ध में भी यही बात है।
आध्यात्मिक प्रगति चरित्र निर्माण से आरम्भ होती है। यह आरम्भिक बाल कक्षाएँ सबके लिए खुली हुई हैं। उससे ऊँची कक्षाओं में प्रवेश करने की पात्रता बढ़ती है। मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश करने की परीक्षा से पूर्व पात्रता नापने की टैस्ट परीक्षाएँ होती हैं। यदि उसे उत्तीर्ण न कर पाये तो दाखिला नहीं मिलता। इस प्रतिबन्ध के पीछे कोई दुर्भाव छिपा हुआ नहीं है। एक कक्षा के बाद दूसरी तीसरी चौथी आदि कक्षाओं में प्रवेश पाने की सुनियोजित व्यवस्था का समावेश भर है। इसे कोई दुराव ठहराये या विद्यार्थियों के साथ अनीति, पक्षपात करने जैसा दोष लगाये तो वह आक्षेप मान्य नहीं हो सकता।
चरित्र निष्ठा अपने आप में एक योगाभ्यास है। उसके आधार पर मनुष्य अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करता है और उतने भर से भी अपना व्यक्तित्व विकसित करके संसार क्षेत्र में भी बड़े उत्तरदायित्वों को वहन करता है, बड़ी सफलताएँ प्राप्त करता है। संसार में जितने भी महामानव हुए हैं−उन सभी को अपने से छोटे, बराबर वालों और बड़ों के बीच अपनी चरित्रनिष्ठा को प्रामाणित करना पड़ा है और इस आधार पर उनका विश्वास अर्जित करना पड़ा है। इसके पश्चात उन्हें बड़े उत्तरदायित्व सम्भालने के लिए कहा गया है। ऐसा कहीं नहीं हुआ कि अनजानों को ऐसे ही शासनाध्यक्ष या कोषाध्यक्ष या सेना पति बना दिया गया। ऐसे महत्वपूर्ण कार्यों के लिए प्रामाणिकता का सबूत प्रस्तुत करना पड़ता है। अतीन्द्रिय क्षमताएँ कमाने में उतनी कठिनाई नहीं है जितनी कि सम्भालने में। इस क्रम का व्यतिक्रम करने में हानि ही हानि है, लाभ नहीं।
योग की दो दिशा धाराएँ हैं। एक में विचार परिष्कार, चरित्र शोधन, संयम साधन, पुण्य परमार्थ जैसी ज्ञान वैराग्य की साधना करनी पड़ती है। यह भक्त सन्तों का, सन्त सज्जनों का मार्ग है। इस आधार पर जो शक्ति प्राप्त होती है। वह आत्म−कल्याण तथा जन−कल्याण दोनों ही प्रयोजनों के काम आती है। गाँधी, तिलक, सुभाष, नेहरू, पटेल, विनोबा आदि की साधनाएं ऐसी ही थीं। उन्हें भी एक प्रकार के योग साधक ही कह सकते हैं। यह मार्ग सबके लिये खुला है। इसकी शिक्षा किसी भी श्रेष्ठ सज्जन के परामर्श से किसी को भी उपलब्ध हो सकती है। स्वाध्याय, सत्संग और चिन्तन मनन से भी यह शालीनता का मार्ग किसी को भी सहज सुलभ हो सकता है। उच्चस्तरीय व्यक्तियों के क्रिया कलाप में सम्मिलित रहने से भी उस प्रकार की उत्कृष्टता, आदर्शवादिता हस्तगत हो सकती है। ऐसे लोग जब चमत्कार तो नहीं दिखाते और न वरदान आशीर्वाद देते हैं पर ऐसे योगियों की तुलना में अपना और अन्यान्यों का−समाज और समय का जो हित साधन करते हैं, वह किसी भी प्रकार कम महत्व का नहीं होता।
अतीन्द्रिय क्षमताएँ जागृत करके असामान्य स्तर के चमत्कार दिखाना सम्भव होता है। इसके लिए हठयोग की−तन्त्र योग की साधनाएँ करनी पड़ती हैं। उनके लिए मनोबल को असाधारण स्थिति तक पहुँचाने के लिए असाधारण स्तर की ऐसी साधनाएँ करनी पड़ती हैं, जिनमें निर्धारित विधि विधान में तनिक भी भूल नहीं होनी चाहिए। भूल करने पर साधक को क्षति उठानी पड़ सकती है। कई बार तो वह क्षति इतनी बड़ी होती है कि प्राण संकट जैसा व्यवधान सामने आ खड़ा होता है उनको साधने के लिए कठोर अनुशासन के निर्वाह की साहसिकता चाहिए। विधि−विधान पर अटूट श्रद्धा और तन्मयता चाहिए। बीच में मन उचट जाने, श्रद्धा डगमगा जाने में साधना खण्डित हो जाने का डर रहता है। खण्डित साधना साधक के लिए विपत्ति खड़ी करती है। उन हानि को न केवल व्यक्ति विशेष सहन करता है वरन् परिवार का सन्तुलन भी बिगड़ जाता है। दूसरों के बीच निंदा होती है। अपनी, साधना की, गुरु की, सभी की निन्दा होती है।
चमत्कारी सिद्धियाँ दिखाने को मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म, प्राण प्रहार, मारण, मोहन, उच्चारण, वशीकरण जैसी करामातें हाथ आ जाने पर घटिया स्तर के लोग उनका कौतुक कौतूहल प्रदर्शित किये बिना रुक नहीं सकते। इससे अनेक पात्र कुपात्र लाभ उठाने के लिए पीछे लगते हैं। किसी की मनोकामना पूरी न की जा सके तो वे ही फिर शत्रु बन जाते हैं और जैसे बन पड़े वैसे क्षति पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। काम कर दिया जाय तो अनेकों से चर्चा करते हैं। इस आधार पर फिर पात्र−कुपात्रों की भीड़ लगने लगती है और निन्दकों प्रशंसकों का एक निरर्थक हज्जूम पीछे लग जाता है। इनका काम कर देने में भी अनर्थ और न करने में भी अनर्थ। कौतुक दिखाने वाले सिद्ध पुरुष अपनी कष्ट उपार्जित साधना का एकाकी बाजीगर स्तर के खेल तमाशे में नष्ट करके स्वयं छूँछ बन जाते हैं। संचित भण्डार समाप्त हो जाने पर करामात दिखाने की क्षमता भी समाप्त हो जाती है।
ऐसे लोग कई बार अपने स्वार्थ साधन के लिए उन करामातों का उपयोग करने लगते हैं और नीति−अनीति का अन्तर भूल जाते हैं। कर्मफल से कोई नहीं बच सकता। सिद्ध करामाती भी नहीं। लाभवश ऐसे कुकृत्य करने लगने पर चरित्र की सम्पदा शेष नहीं रहती है और वे गये बीते लोगों के स्तर पर जा पहुँचते और अधोगामी बनते हैं। इन खबरों को देखते हुए सत्पात्र की परीक्षा किये बिना चमत्कारी सिद्ध साधनाओं के सम्बन्ध में उन्हें गुह्य रखने का ही अनुशासन है। सत्पात्र साधक मिले तो ही उन्हें सिखाये जाने का निर्देशन है।