जो मान लिया गया वह अन्तिम नहीं है।

February 1985

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प्राचीन काल से अद्यावधि मनुष्य का ज्ञान निरन्तर विकसित हुआ है। वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर उपलब्ध साधन सुविधाओं की बात छोड़ भी दें तो मनुष्य का ज्ञान ही अकेले इतना विकसित हुआ है कि वह उस अर्जित सम्पदा के बल पर विकसित होता जा रहा है। ज्ञान के विकास की यह प्रक्रिया निरन्तर अबाध गति से चल रही है और इस विकास के कारण कई प्राचीनकालीन धारणाएँ टूटी हैं तथा नये सत्य सामने आए हैं। उदाहरण के लिए अति प्राचीनकाल में यह समझा जाता था कि धरती एक फर्श की तरह है, उस पर नीले आसमान की छत टंगी हुई है। उस छत पर चाँद सूरज के रूप में दो झाड़−फानूस टंगे हैं तथा सितारों के जुगनू चमकते हैं।

समुद्र एक छोटे तालाब की तरह समझा जाता था। किन्तु अब वे सब धारणाएँ मिथ्या सिद्ध हुई हैं और यह तथ्य सामने आए हैं कि हमारी पृथ्वी विशालकाय ब्रह्माण्ड की एक राई रत्ती जितनी छोटी−सी सदस्या मात्र है। उसके जैसे असंख्य पिण्ड इस अनन्त आकाश में छितरे पड़े हैं। समूचे ब्रह्माण्ड का विस्तार मनुष्य की कल्पना शक्ति से बाहर है। अपनी धरती पर भी जितनी दृश्य पदार्थ है उससे असंख्य गुना विस्तृत और शक्तिशाली वह है जो विद्यमान रहते हुए भी अदृश्य है। प्राचीन और अर्वाचीन कल्पनाओं में इतना विचित्र अन्तर है कि लगता है मनुष्य खाई खन्दक के अन्धेरों से निकल कर सर्वप्रथम आलोकित होने वाले पर्वत शिखरों पर पहुँच गया है।

प्राचीन काल और अर्वाचीन काल की मान्यताओं के सम्बन्ध में अन्तर का इतना ही कारण है कि हमारे ज्ञान एवं साधन क्षेत्र का विस्तार हुआ है। तद्नुसार यह विश्व भी, जिसे हम अपना संसार कह सकते हैं अधिकाधिक विस्तृत होता चला गया है। संसार इतना विस्तृत तो पहले भी था, किन्तु उसका प्रत्यक्षीकरण अब हुआ है। इसलिए यही कहना होगा कि हमारा संसार इन दिनों बहुत अधिक विस्तृत हुआ है और भविष्य में भी हम जिस गति से बढ़ेंगे, हमारा विश्व भी उसी अनुपात से अधिक विकसित होता चला जाएगा। यूनान के लोगों की मान्यता थी कि पृथ्वी हरक्यूलस देवता के कन्धे पर टिकी हुई है। भारतीय उसे शेषनाग के फन पर या गाय के सींग पर टिकी मानते थे, सूर्य देवता के रथ में सात घोड़े जुते होने और अरुण सारथी द्वारा हांके जाने की मान्यता को अब सूर्य किरणों के सात रंग और प्रभातकालीन रक्ताभ आलोक कहकर संगतीकरण करना पड़ता है।

पौराणिक आख्यानों के अनुसार कभी पृथ्वी चटाई की तरह चपटी बिछी हुई थी और उस पृथ्वी को हिरण्याक्ष कागज की तरह लपेट कर भाग गया था तथा समुद्र में जा छिपा था। पृथ्वी को उसके शिकंजे से निकालने के लिए भगवान विष्णु को वाराह का रूप धारण करना तथा हिरण्याक्ष से छीनना छुड़ाना पड़ा था। उपलब्ध ज्ञान और प्राप्त तथ्यों के संदर्भ में इन घटनाओं को देखते हैं तो ये बातें बाल−बुद्धि की कल्पना ही सिद्ध होती है। पृथ्वी के लपेटे जाने की और उसी पर भरे हुए समुद्र में छिपा लेने की बात अब समझ से बाहर की बात है पर किसी समय यही मान्यता शिरोधार्य थी।

विद्वान आर्यभट्ट ने पहली बार पाँचवीं शताब्दी में पृथ्वी को गोल गेंद की तरह बताया। बारहवीं शताब्दी में भाष्कराचार्य ने उसमें आकर्षण शक्ति होने की बात जोड़ दी। प्राचीन ज्योतिष विज्ञान धरती को स्थिर और सूर्य को चल मानता था। सहज बुद्धि यही सोच सकती थी, किन्तु पीछे पृथ्वी को भ्रमण शील बताया गया तो बताने वालों को उपहासास्पद ही नहीं माना गया, वरन् उन्हें नास्तिक कहकर नास्तिकता के अपराध में सूली पर चढ़ा दिया गया। किन्तु तथ्य तो तथ्य है। सत्य की कितनी ही उपेक्षा की जाये उसे स्वीकार करना ही पड़ता है। पीछे जब अन्ध मान्यताओं की जकड़न ढीली हुई तो इन तथ्यों को भी स्वीकार किया जाने लगा और अब स्थिति यह है कि अब किसी को भी अपनी पृथ्वी के विश्व का नगण्य घटक मानने में कोई आपत्ति नहीं है।

अपने विश्व में असंख्य निहारिकाएँ हैं। वे इतनी बड़ी हैं कि उनके एक कोने में करोड़ों सूर्य पड़े रह सकें और वे पृथ्वी से इतनी दूर हैं कि उनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में लाखों वर्ष लग जाते हैं जबकि प्रकाश एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील की गति से चलता है। आसमान में जो तारे दिखाई पड़ते हैं उनमें से कई तो अपने सूर्य से भी हजारों गुना बड़े महासूर्य हैं। उनके अपने अपने सौर मण्डल तथा ग्रह−उपग्रह हैं। वे आपस में नजदीक दिखते भर हैं परंतु वास्तव में उनका फासला अरबों खरबों मील है। वे सभी एक−दूसरे के साथ पारस्परिक आकर्षण शक्ति के रस्सों से बँधे हैं। आकाश से नीचे गिने या ऊँचे उछलने जैसी कोई शक्ति नहीं है। उस पोल में हर वस्तु अधर में सहज ही लटकी रह सकती है। हलचल तो ग्रह−नक्षत्रों की अपनी आकर्षण शक्ति के कारण होती है। उसी के प्रभाव से वे अपनी धुरी पर अपनी कक्षा में घूमते हैं। यह बातें सुनने−पढ़ने विचित्र अवश्य लगती हैं पर हैं−सत्य। अब से कुछ सौ वर्षों पूर्व तक इन बातों पर कोई विश्वास न ही करता था, किन्तु अब मनुष्य का ज्ञान बढ़ा है और साथ ही उसका संसार भी। इसलिए इन मान्यताओं को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।

सूर्य सौर मण्डल का केन्द्र है। उसका व्यास पृथ्वी से 109 गुना वजन 3,30,000 गुना तथा घनफल 13,00,000 गुना बड़ा है। उसके एक वर्ग इंच स्थान में इतना प्रकाश उत्पन्न होता है जितना कि इतने ही स्थान में तीन लाख मोमबत्तियाँ जलाने से उत्पन्न हो सकता है। उसकी गर्मी 6 हजार डिग्री होती है, जिसकी तुलना में पृथ्वी की आग को बरफ जैसा ठण्डा माना जा सकता है। इतनी अधिक गर्मी के कारण सूर्य का सारा पदार्थ वाष्पीभूत है और उस द्रव्य में सदा भयंकर तूफान उठते रहते हैं जिनके कारण कभी−कभी तो इतने बड़े खड्ड हो जाते हैं कि उनमें अपनी पृथ्वी के समान कई धरतियाँ समा सकें। काले धब्बे के रूप में सूर्य पर दिखाई देने वाली आकृतियाँ यही हैं।

अपनी पृथ्वी ही उतर से दक्षिण तक 7896 मील तथा पूर्व से पश्चिम तक 7926 मील है। इसका 71 प्रतिशत भाग समुद्र में डूबा हुआ है। समुद्र की सर्वाधिक गहराई 35 हजार फीट है तथा भू−तल के ऊँचे−ऊँचे पहाड़ 29 हजार फूट तक ऊँचे हैं। पृथ्वी को सूर्य की परिक्रमा करने में 58 करोड़ 46 लाख मील की यात्रा एक वर्ष में पूरी करनी होती है। वह 66,600 मील प्रतिघण्टे की गति से अपनी कक्षा में भागती है साथ ही स्वयं भी लट्टू की भाँति 24 घण्टे में अपनी धुरी पर घूम लेती है।

पोले आकाश में साँस लेने योग्य हवा कुछ ही दूरी तक है। इससे आगे बन्द राकेटों में साँस लेने के लिए अतिरिक्त प्रबन्ध करना पड़ता है। प्राचीनकाल के लोग अन्यान्य लोकों में ऐसे ही विचरण करते थे जैसे पृथ्वी पर। इस तरह के कथा−प्रसंगों से पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है। अब तो वस्तुस्थिति सामने आ रही है उस आधार पर वैसा करना या यह मानना असम्भव हो ही गया है।

पिछले जमाने में सूर्य को ठण्डा माना गया था। उसका एक नाम ‘आतप’ भी है। आतप अर्थात् जो स्वयं तो ठण्डा हो किन्तु दूसरों को प्रकाश दे। किन्तु अब वैसा नहीं कहा जा सकता। ऐसा मानने का उन दिनों एक मात्र कारण यह था कि हम जितने ही ऊँचे चढ़ते जाते हैं, उतनी ही ठण्डक बढ़ती है। पहाड़ों पर बर्फ जमीं रहती है यह सर्वविदित है। जितनी ऊँचाई उतनी ठण्डक, इस सिद्धान्त ने सूर्य के ठण्डा होने की कल्पना दी थी पर अब इस बात की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।

चन्द्रमा किसी जमाने में पूर्ण ग्रह माना जाता था। उसे ‘तारापति’ कहते थे। सौर−मण्डल में ही नहीं आकाश में चमकने वाले ताराओं का भी वह अधिनायक था, किन्तु अब जो नये तथ्य सामने आये हैं उनके अनुसार चन्द्रमा पूर्ण ग्रह नहीं है, वह केवल सूर्य की ही नहीं वरन् पृथ्वी की भी परिक्रमा करता है। इसलिए उसे पृथ्वी का उपग्रह ही कहा गया है। सूर्य की तुलना में तो वह करोड़ों का हिस्सा भी नहीं।

पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा की अपनी−अपनी अलग गतियाँ हैं। इस चक्र में कई बार सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा के ऊपर पड़ने के मार्ग में पृथ्वी आ जाती है तो चन्द्रग्रहण दिखता है और जब पृथ्वी तथा सूर्य के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो सूर्य ग्रहण दिख पड़ता है। कौन और कितना आड़े आया। इसी हिसाब से ग्रहण की छाया न्यूनाधिक दिखती है। पहले कभी यह मान्यता रही थी कि राहु केतु राक्षस सूर्य व चन्द्रमा पर आक्रमण करते हैं, किन्तु अब वैसी बात नहीं कही जा सकती। मानवी प्रगति ने ऐसी कितनी ही पुरानी मान्यताओं को अस्वीकार कर दिया है और वह कड़वी गोली किसी प्रकार पुरातन पन्थियों को भी गले उतारनी पड़ रही है।

सूर्य, चन्द्र, ग्रहण को राहु केतु नामक राक्षसों का उत्पात मानने की तरह ही उल्कापात के सम्बन्ध में भी यह मान्यता प्रचलित थी कि ये देवताओं तथा प्रेतात्माओं की हलचलें हैं। समझा जाता था कि किसी महापुरुष के मरने पर एक तारा टूटता है। देवता लोग उल्कापात के माध्यम से पृथ्वीवासियों के लिए विपत्ति भेजते हैं। इस धारणा के कारण लोग भयभीत होकर देवताओं को प्रसन्न करने के लिए कर्मकाण्ड आदि रचा करते थे। किन्तु वैज्ञानिक गवेषणाओं ने सिद्ध कर दिया है कि उल्कापात अब प्रकृति की एक साधारण−सी घटना है। अनन्त आकाश में किन्हीं ग्रह नक्षत्रों के टूटे−फूटे टुकड़े कंकड़ पत्थरों के रूप में उड़ते रहते हैं। वे कभी पृथ्वी के वायु मण्डल में घुस पड़ते हैं तो हवा के घर्षण से वे जलकर खाक होने लगते हैं। यह जलना और दौड़ना ही उल्कापात है। कभी−कभी एक साथ सैकड़ों कंकड़ घुसते हैं तो आकाश में आतिशबाजी जैसी जलने लगती है। कुछ पिण्ड बहुत बड़े और अधिक कठोर होते हैं और उनका अध जला हिस्सा धरती पर आ गिरता है। ऐसी उल्काएं संसार भर में जब तब गिरती रहती हैं और उनके अधजले टुकड़े अजायब घरों में रखे जाते हैं।

ज्वालामुखी और भूकम्पों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही मान्यताएँ थीं। भूकम्प के सम्बन्ध में समझा जाता था कि शेषनाग जब अपना फन हिलाते हैं तो पृथ्वी पर भूकम्प आते हैं। अब यह मान्यता केवल अशिक्षित, देहाती ओर पिछड़े इलाकों भर में रह गई है अन्यथा शिक्षित समुदाय अच्छी तरह जानता है कि पृथ्वी आरम्भ में आग के गोले की तरह थी उसकी ऊपरी परत धीरे−धीरे ठण्डी होती गई और उस पर प्राणियों तथा वनस्पतियों का निवास सम्भव हो सका। अभी भी पृथ्वी के भीतर प्रचण्ड गर्मी है सारा पदार्थ पिघला हुआ है और कड़ाही में खौलते हुए तेल की तरह खुद−बुद करता रहता है। इसकी भाप अक्सर धरती−धरती के ऊपरी परत को बेधकर निकलती है तो जिधर से वह निकलती है वहाँ या तो ज्वालामुखी विस्फोट होता है अथवा भूकम्प आते हैं।

यह हलचलें निरन्तर होती रहती है। औसतन हर तीसरे दिन एक बड़ा और दस मिनट बाद एक हलका भूकम्प पृथ्वी पर कहीं न कहीं निरन्तर आता रहता है इसके अनेक कारण हैं। समुद्र की तली से पानी रिसकर उस आग्नेय द्रव पदार्थ तक जा पहुँचता है तो उसकी भाप विस्फोट करती हुई ऊपरी सतह को फाड़ती है। नये पहाड़ों के भीतर जहाँ−तहाँ गुफाओं की तरह बड़ी−बड़ी पोले हैं वे धंसकती रहती हैं। पृथ्वी की ऊपरी पपड़ी सिकुड़ती रहती है। ऐसे−ऐसे अनेकों कारण पृथ्वी पर ज्वालामुखी फटने अथवा भूकम्प आने के हैं। अब शेषनाग के फन हिलाने पर भूकम्प आने की बात मानना या स्वीकार करना अथवा इसी मान्यता पर अड़े रहना बाल हठ तथा दुराग्रह ही कहा जायेगा।

कहा जा चुका है कि मनुष्य निरन्तर प्रगति−पथ पर बढ़ता जा रहा है। उसका ज्ञान बढ़ रहा है और ज्ञान बढ़ने के फलस्वरूप पुरानी मान्यताओं के स्थान पर नये प्रतिपादन सामने आ रहे हैं। यह क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है और भविष्य में भी अनन्त काल तक चलता रहेगा। आज की अपनी स्थापनाओं में भी भविष्य में विकास क्रम के अनुसार परिवर्तनों की श्रृंखला चलती रही है। अतः हमें दुराग्रही नहीं होना चाहिए और पूर्वजों के प्रति पूर्ण आस्थावान रहते हुए भी यह मानकर चलना चाहिए कि जो कहा अथवा माना जाता रहा है या माना जा रहा है वही अन्तिम नहीं है।


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