मोटी आँखों से जब हम अपने चारों ओर नजर उठा कर देखते हैं तो जमीन, पेड़, खेत, आसमान, सूरज, तारे जैसी मोटी वस्तुएँ ही देखकर रह जाते हैं, पर जब बारीकी के साथ खोजबीन करते हैं तब पता चलता है कि हम प्रचण्ड शक्ति से भरे−पूरे एक ऐसे समुद्र में मछली की तरह रह रहे हैं जिसके एक−एक कण को अद्भुत और आश्चर्यजनक कहा जा सकता है।
मिट्टी का एक ढेला छदाम से भी कम कीमत का होता है, जिसमें अणु परमाणुओं की एक अगणित संख्या रहती है, ऐसी दशा में मूल्य और महत्व की दृष्टि से उसकी कीमत नगण्य ही होगी। छोटे ढेले के प्रहार का परिणाम स्वल्प सा होता है, फिर हाथ से छूने और आँख से देखने तक में न आने वाले परमाणु की प्रतिक्रिया कितनी हो सकती है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
यह मोटी दृष्टि हुई। शक्ति के अनन्त भाण्डागार की प्रत्येक छोटी इकाई अपने आप में इतनी महत्ता संजोये बैठी है कि दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। जब एक कण का यह हाल है तो फिर इन अगणित इकाइयों के पुञ्ज की सत्ता और महत्ता को किस प्रकार समझा और आँका जाय।
अति लघु से अति विशाल कितना बड़ा है। इसकी गणना तो दूर, कल्पना कर सकना भी मानवी बुद्धि से बाहर की बात है। परमाणु भी अब सबसे छोटी इकाई नहीं रहीं। उनके भी भेद−उपभेद हैं। वह भी एक सौर मण्डल है और इस सबसे छोटी इकाई की सूक्ष्मता के अन्त में अपना एक अलग संसार भरा और बसा पड़ा है। उसकी उद्भुतता विराट् ब्रह्मांड की विलक्षणता से कम रहस्यमय है?
फिर विराट् कितना बड़ा है? इसकी थोड़ी कल्पना करने के लिए पहले उस दूरी का नाप लेने के फीते का स्वरूप समझना चाहिए। प्रकाश एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलता है। यह प्रकाश समस्त पृथ्वी का एक चक्कर एक सेकेंड के सातवें हिस्से जैसे स्वल्प समय में लगा लेता है। पृथ्वी से चन्द्रमा तक पहुँचने में डेढ़ मिनट और सूर्य तक पहुँचने में आठ मिनट लगते हैं। यह है प्रकाश की चाल। इस चाल से चलते हुए एक वर्ष में प्रकाश जितनी दूर तक पहुँच सके, वह हुआ एक प्रकाश वर्ष। खगोल भौतिकी में गणना का माप यह प्रकाश वर्ष ही है।
ब्रह्माण्ड और पृथ्वी की तुलना करना, अपनी चिन्तन परिधि से कल्पना शक्ति से बाहर की चीज है। इसलिए उस कल्पना की तुक बिठाने के लिए सूर्य को एक मध्यवर्ती आधार मानकर चलें तो उस तुलना को करने में थोड़ी सहायता मिलेगी। यद्यपि ब्रह्माण्ड में करोड़ों सूर्य अपने ग्रह उपग्रहों के साथ अपना−अपना सौर−मंडल बना कर भ्रमण करते रहते हैं और फिर से स्वयं भी किसी महाकेन्द्र की परिक्रमा में संलग्न रहते हैं। तो भी अपने सौर−मण्डल के केन्द्र सूर्य का ही ऊहापोह इतना विशाल हो जाता है कि उसकी कल्पना करने से ही मानवीय बुद्धि एक प्रकार से हताश होकर स्तब्ध रह जाती है। फिर करोड़ों सूर्यों की सम्मिलित शक्ति एक विशालता की कल्पना किस तरह की जाय?
ज्वलनशील गैसों के पिण्ड−सूर्य का व्यास पृथ्वी से 109 गुना बड़ा है। व्यास 865380 मील, परिधि 2700000 मील और उसका क्षेत्र 3393000 अरब वर्गमील है। यदि वह पृथ्वी से 9 करोड़ 30 लाख मील की दूरी पर न होकर कुल 10 लाख मील दूर होता तो हमें आकाश में एक मात्र सूर्य ही दिखाई देता।
सूर्य की शक्ति का कोई पारावार नहीं। उस की सतह का तापक्रम 600 डिग्री सेंटीग्रेड है तो अन्दर का अनुमानित ताप 15000000 डिग्री सेंटीग्रेड। 12 हजार अरब टन कोयला जलाने से जितनी गर्मी पैदा हो सकती है उतनी सूर्य एक सेकेण्ड में निकाल देता है। अनुमान है कि सूर्य का प्रत्येक वर्ग इंच क्षेत्र 60 अश्वों की शक्ति (हार्स पावर) के बराबर शक्ति उत्सर्जित करता है। उसके सम्पूर्ण 3393000000000000 वर्गमील क्षेत्र में शक्ति का अनुमान करना हो तो इस गुणन खण्ड को हल करना चाहिए− 3393000000000000×1760×3×12। इतने हार्स पावर की शक्ति न होती तो यह जो इतनी विशाल पृथ्वी और विराट् सौर जगत आँखों के सम्मुख प्रस्तुत है वह अन्धकार के गर्त में बिना किसी अस्तित्व के डूबा पड़ा होता।
इस प्रचण्ड क्षमता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यदि 93000000 मील लम्बी और 880 गज मोटी बर्फ की शिल्ली के ऊपर उसको केन्द्रित कर दिया जाये तो सारी बर्फ एक सेकेंड में गलकर बह निकलेगी। सूर्य के 1 वर्ग इंच में जिस ऊर्जा व प्रकाश की कल्पना की गयी है वह 5 लाख मोमबत्तियों के एक साथ जलाने की शक्ति के बराबर होता है। यदि यह सारी शक्ति एक साथ पृथ्वी पर फेंक दी जाती तो यहाँ की मिट्टी भी जलने लगती। जलने ही नहीं लगती, यह भी एक प्रकार का सूर्य पिण्ड हो जाती। जबकि सामान्य स्थिति में पृथ्वी को सूर्य शक्ति का 220 करोड़वाँ हिस्सा ही मिलता है। 3 अरब आबादी मनुष्यों की, 100 अरब आबादी पक्षियों की, 1000 अरब आबादी अन्य जीव जन्तुओं की और पृथ्वी पर पाये जाने वाले विशाल वनस्पति जगत तथा ऋतु संचालन का सारा कार्य उस 220 करोड़वें हिस्से जितनी शक्ति से सम्पन्न हो रहा है। पूरी शक्ति जो सौर मण्डल के करोड़ों ग्रहों−उपग्रहों, क्षुद्र ग्रहों का नियमन करती है, प्रकाश और गर्मी देती है। अपने 19 करोड़ 98 लाख महाशंख भार को 200 मील प्रति सेकेंड की भयानक गति से 25 करोड़ वर्ष में पूरी होने वाली विराट् आकाश की परिक्रमा भी वह महासूर्य अपनी इसी शक्ति से पूरी करता है। जब सम्पूर्ण शक्ति और सक्रियता को कूता जाना सम्भव नहीं। उसे तो भावनाओं की परिधि में केवल उतारा जाना भर ही सम्भव है।
वह तो पृथ्वी से उसकी उतनी दूरी है, जो जीव जन्तुओं को हँसने-कुदकने का अवसर दे रही हैं यदि यह दूरी घट जाय तो जीवन अग्नि रूप हो जाय अर्थात् जो चेतना अब दिखाई दे रही है वह सूर्य के गहरे कराल अग्नि ज्वाल में समा जाये। कल्पना करें कि, कदाचित किसी तेज से तेज रफ्तार वाली रेलगाड़ी से सूर्य तक जाना सम्भव हो जाय तो वहाँ तक पहुँचते−पहुँचते एक मनुष्य को 85-85 वर्ष के दो जीवन धारण करने पड़ जायें इसमें मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच की निद्रा के 5 वर्ष अभी जोड़े ही नहीं गये। ध्वनि से भी तीव्र रफ्तार वाले सुपरसोनिक जेट एवं राकेट्स को ही वहाँ पहुँचने तक 20 वर्ष लग सकते हैं और इस बीस वर्ष में तो सारी पृथ्वी का खाका ही बदल सकता है।
शक्ति की, विशालता की, कर्तृत्व की, वैभव की थोड़ी-सी झाँकी अपने सूर्य के सम्बन्ध में ऊपर दी है। इससे भी हजारों गुने बड़े सूर्य करोड़ों की संख्या में अपने सौर−मण्डलों सहित उस ब्रह्माण्ड में घूम रहे हैं। उन सबकी गरिमा का लेखा−जोखा कैसे लिया जाय? पर देखते हैं कि वे समस्त शक्ति केन्द्र अपने−अपने कार्य में नियमितता व्यवस्था और मर्यादा लेकर चल रहे हैं। कहीं न उद्धतता है, न उच्छृंखलता। निर्धारित कर्त्तव्य−कर्म को अणु से लेकर महत् तक सभी पालन कर रहे हैं। यदि ऐसा न होता तो यह इतना बड़ा ब्रह्माण्ड−व्यवसाय एक क्षण में बिखर जाता। ग्रह−नक्षत्र आपस में टकरा जाते या शक्ति का व्यतिक्रम करके सारी ईश्वरीय व्यवस्था को नष्ट−भ्रष्ट करके रख देते।
“खगोल भौतिकी की महत्वपूर्ण खोजों से यह स्पष्ट हो चला है कि ब्रह्माण्ड का निरन्तर विस्तार हो रहा है। समस्त आकाश−गंगाएँ, समस्त सौर मण्डल और ग्रह−नक्षत्र क्रमशः अपना आकाशीय−क्षेत्र आगे बढ़ाते चले जा रहे हैं। कहा जाता है कि अरबों वर्ष पूर्व सृष्टि के अन्तराल में ‘घनीभूत’ पदार्थ के मध्य एक भयंकर विस्फोट हुआ था। उसी के छिटक कर ग्रह−नक्षत्र बने और वह छिटकना तब से लेकर अब तक क्रमशः आने ही बढ़ता चढ़ता चला जा रहा है। सभी आकाश−गंगाएँ एक−दूसरे से दूर हटती जा रही हैं और यही हाल सौर मण्डलों का है। शून्य आकाश के उन्मुक्त क्षेत्र की विशालता इतनी बड़ी है कि अभी करोड़ों−अरबों वर्षों तक यह दौड़ ऐसे ही चलती रह सकती है।
भारतीय मनीषियों की भी यही मान्यता रही है कि सृष्टि के आरम्भ में एक मूल द्रव्य हिरण्यगर्भ था। उसी के विस्फोट से आकाश−गंगाएँ विनिर्मित हुईं। इस विस्फोट की तेजी कुछ तो धीमी हुई है, पर अभी भी उस छिटकाव की चाल बहुत तीव्र है।
विश्व ब्रह्माण्ड के सदस्य ग्रह−नक्षत्र अपनी सूत्र−संचालक आकाश−गंगाओं के साथ जुड़े हैं और आकाश-गंगायें महातत्व हिरण्यगर्भ की उँगलियों में बँधी हुई कठपुतलियाँ भर हैं। अगणित सौर मण्डल भी एक−दूसरे का परिपोषण करते हुए अपना क्रिया−कलाप चला रहे हैं। सूर्य ही अपने ग्रहों को गुरुत्वाकर्षण में बांधे हो और उन्हें ताप प्रकाश देता हो सो बात नहीं है, बदले में ग्रह परिवार भी अपने शासनाध्यक्ष सूर्य का विविध आधारों पर पोषण करता है। सौर परिवार के ग्रह अपनी जगह से छिटक कर किसी अन्तरिक्ष में अपना कोई और पथ बनालें तो फिर सूर्य का सन्तुलन भी बिगड़ जायेगा और वह आज की स्थिति में न रहकर किसी चित्र−विचित्र विभीषिका में उलझा हुआ दिखाई देगा।
सौर परिवार का ग्रह मण्डल एवं निहारिकाएँ एक सुव्यवस्थित क्रम से सतत् क्रियाशील हैं, भ्रमणशील हैं। लगता है कोई विशाल तन्त्र इस पूरे विराट् तत्व का सुसंचालन कर रहा हो। ब्रह्माण्ड की गति और विस्तार का क्रम सर्वत्र एक सा है। हर ग्रह−नक्षत्र अपनी धुरी पर घूमता है। पृथ्वी 24 घण्टे में अपनी एक परिक्रमा पूरी करती है जबकि चन्द्रमा 336 घण्टे में। अर्थात् वहाँ के दिन और रात में हमारी पृथ्वी के दिन व रात से 14 गुने बड़े दिन और 14 गुनी बड़ी रात होगी है। बुध की परिस्थितियाँ भिन्न हैं। अर्थात् उसका एक भाग निरन्तर सूर्य की ही ओर बना रहता है दूसरा अन्धकार में, पर अपने आप में गतिशील वह भी है। हम समझते हैं सूर्य स्थिर है, पर ऐसा नहीं वह भी 1 सेकेंड में 13 मील की गति से घूमता है, मन्दाकिनियाँ भी अपने सौर परिवारों को लेकर किसी विराट् परिक्रमा में संलग्न हैं, अपनी “स्पाइरल” आकाश गंगा की स्वयं की गति 200 मील प्रति सेकेंड है। इसी तरह ब्रह्माण्ड 150 मील प्रति सेकेंड की गति से विकसित हो रहा है। यह गति हर जगह है। एक प्रकार से मानव के लिए एक शिक्षण है कि हर व्यक्ति को अपनी एक आचार संहिता ऐसी निर्धारित करनी चाहिए, जिससे समाज में गतिशीलता तो रहे पर किसी भी सीमा, किसी के अधिकारों का अतिक्रमण न हो। हर ग्रह अपने मुखिया की परिक्रमा में लगा है। हर चन्द्रमा अपने ग्रह का, ग्रह सौर परिवार का, सौर−मण्डल मन्दाकिनियों की परिक्रमा करते रहने का अपना कर्त्तव्य बखूबी निभाते देखे जा सकते हैं। मनुष्य क्यों नहीं मर्यादा में बना रह अपना कर्त्तव्य पूरा कर सकता है?
ब्रह्माण्डीय चेतना की सबसे बड़ी विशेषता है−सतत् विकास। जड़ समझे जाने वाले ब्रह्माण्ड में बैठे जुगनू रूपी तारे−ग्रह नक्षत्रादि अपनी−अपनी निहारिकाओं के साथ सतत् और अधिक विकसित होते जा रहे हैं। फैलाव की यह सीमा अपरिमित है, अनन्त है।
चेतना और उसके परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाली गति विकास की प्रक्रिया को पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा से लेकर अखिल ब्रह्माण्ड में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए पिछले दिनों वैज्ञानिकों ने अपने अन्तरिक्ष उपकरणों और खगोलीय शोधों के आधार पर कहा कि सारा ब्रह्माण्ड निरन्तर फैलता जा रहा है। इन खगोल वैज्ञानिकों में विख्यात नक्षत्रविद् डा. हबल, फ्रेड हायल, सर एडिंग्टन, कार्ल साँगा आदि का नाम लिया जाता है। आज से कोई 60 वर्ष पूर्व की बात है− विश्वविख्यात नक्षत्रविद् डा. हबल अपने दूरदर्शी स्पेक्ट्रोमीटर पर सुदूर नक्षत्रों से आने वाले प्रकाश के वर्णक्रम का अध्ययन करते थे। सूर्य का श्वेत प्रकाश सात रंगों के मेल से बना है। स्पेक्ट्रोमीटर एक ऐसा यन्त्र है जिसमें एक त्रिपार्श्व काँच लगा रहता है, जब प्रकाश की एक किरण को उसमें कुदाया जाता है तो इस काँच के गुण के अनुसार वह अपने सातों रंगों में फूट पड़ता है। इन रंगों के वर्णक्रम से प्रकाश की स्थिति अन्तरंग खनिज स्रोतों की जानकारी भी की जाती है पर यहाँ जो प्रयोग चल रहा था उसका प्रयोजन एक आकाशगंगा की दूरी की जाँच करना था जो उस समय ब्रह्माण्ड की सीमा पर प्रतीत हो रही थी।
जाँच के समय एक बिलकुल ही नया तथ्य प्रकाश में आया। वर्णक्रम का लाल रंग निरन्तर सरकता और क्षीण होता प्रतीत हो रहा था, जिसका अर्थ था कि आकाश गंगा परे हट रही है। उससे आने वाला नाद भी क्रमशः मन्द पड़ता जा रहा था, उससे भी उपरोक्त तथ्य की पुष्टि हो रही थी। इस परिवर्तन को “डॉपलर प्रभाव” की संज्ञा दी गई और एक नये दर्शन ने जन्म लिया कि ब्रह्माण्ड निरन्तर बढ़ रहा है। यह चौंका देने वाली जानकारी थी, जिसने वैज्ञानिकों के समाने विचार के लिये सैकड़ों प्रश्न छोड़े हैं।
फ्रीडमैन से लेकर आइन्स्टीन तब अब संसार के सभी प्रमुख अन्तरिक्ष विज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि ब्रह्माण्ड निरन्तर फैल रहा है। सभी खगोलीय पिण्ड एक−दूसरे से दूर हटते जा रहे हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व एक अन्य ज्योतिर्विद् डा. जेम्म क्लार्क भारत वर्ष आये थे, विज्ञान भवन में उपरोक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा− अंतरिक्ष की गहराइयाँ जितनी अनन्त की ओर बढ़ेंगी, उसमें झाँककर देखने से मानवीय अस्तित्व का अर्थ और प्रयोजन उतना ही स्पष्ट होता चला जायेगा। शर्त यह रहेगी कि हमारी अपनी अन्वेषण बुद्धि का भी विकास और विस्तार हो। यदि हमारी बुद्धि, विचार और ज्ञान मात्र पेट प्रजनन, तृष्णा, अहन्ता तक ही सीमित रहती है, तब तो हम पड़ौस भी नहीं जान सकेंगे। पर यदि इन सबसे पूर्वाग्रह मुक्त हों तो ब्रह्माण्ड इतनी खुली ओर अच्छे अक्षरों में लिखी चमकदार पुस्तक है कि उससे हर शब्द का अर्थ, प्रत्येक अस्तित्व का अभिप्राय समझा जा सकता एवं अनुभव किया जा सकता है।
वस्तुतः चेतना का मुख्य गुण है− विकास। जहाँ भी चेतना या जीवन का अस्तित्व विद्यमान दिखाई देता है, वहाँ अनिवार्य रूप से विकास, वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ने की हलचल दिखाई देती है। इस दृष्टि से मनुष्यों, जीव−जन्तु और पेड़−पौधों को ही जीवित माना जाता है। परन्तु भारतीय अध्यात्म की मान्यता है कि जड़ कुछ है ही नहीं, सब कुछ चैतन्य ही है। सुविधा के लिए स्थिर निष्क्रिय और यथास्थिति में बने रहने वाली वस्तुओं को जड़ कहा जाता है, परन्तु वस्तुतः वे प्रचलित अर्थों में जड़ है नहीं। इस तत्त्वदर्शन को भली−भाँति हृदयंगम किया जाना चाहिए।