मनोनिग्रह ऋद्धि-सिद्धियों का भाण्डागार

February 1985

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जिस प्रकार मन का वाहन उपकरण शरीर है। उसी प्रकार चेतना का वाहन मन। मन को जो कुछ कराना होता है अपनी इच्छाएं शरीर द्वारा पूरी करता है। चेतना की रुझान या आकाँक्षा को कार्यान्वित करने का ताना−बाना मन के द्वारा बुना जाता है। जड़ शरीर और चेतन आत्मा का मध्यवर्ती कार्यवाहक मन है।

मन की शक्ति असाधारण मानी गई है। व्यक्तित्व के उत्थान पतन का वही निमित्त कारण है। गुण, कर्म, स्वभाव उसी के प्रयासों की परिणति है। भव−बन्धनों में उसी की ललक लिप्साएँ बाँधती हैं और हथकड़ी बेड़ियाँ उसी के संकल्प से कटती हैं। वह चाहता है तो जीवन रहते मुक्त होकर रहता है। अपूर्णता को घटाते−घटाते पूर्णता की स्थिति तक पहुँचा देता है। आत्मा का प्रतिनिधि जो ठहरा है। सर्व साधन सम्पन्न वह है। शरीर राज्य का राजा तो है वही इससे बाहर संसार को प्रभावित करने, उसमें बिखरे साधन बटोर लेने की क्षमता भी उसमें है। उसी का चिन्तन सीधा उलटा होकर सुख−दुःख की भूमिका बनाता है। उत्थान और पतन का अधिष्ठाता निश्चित रूप से वही है।

निजी जीवन की लगाम जिस भी दिशा विशेष में मोड़नी पड़े, उसमें मन का पुरुषार्थ ही काम देता है। प्रतीत भर यह होता है कि शरीर को इन्द्रियों या आदतों ने जकड़ रखा है। पर बात वैसी है नहीं, आदतों को मन अपनाता है, उसी की परतों में वे अपना घोंसला बनाती है और छिपकर बैठी रहती हैं। कामनाओं के सम्बन्ध में भी यही बात है। मन चाहे तो उन्हें चाहे जब उधेड़कर फेंक सकता है। मकड़ी अपने मुँह में से लार निकाल कर जीलर बुनती है। फिर जब उसकी मौज आती है तभी उस जाले की गोली बनाना और निगलना शुरू कर देती है। देखते−देखते वह ताना बना समाप्त होने और खेल खतम होने की स्थिति बन जाती है। निजी जीवन को जिन गुण, कर्म, स्वभावों को विनिर्मित, सुदृढ़ करना हो अथवा हटाना, मिटाना, हो उनके लिए मन की संकल्पशक्ति पूर्णतया समर्थ रहती है। आरम्भ में ही शरीर पुराने अभ्यासों को छोड़ने में थोड़ा अनख दिखाता है पर सर्वथा अवज्ञा करने की सामर्थ्य उसमें है नहीं। ऐड़ लगाने और चाबुक फटकारने भर से वह सीधा हो जाता है और जिस भी राह पर चलाना हो− चलने लगता है।

मन बदलने भर की देर है कि निकृष्ट को श्रेष्ठ और श्रेष्ठ को निकृष्ट बनते देर नहीं लगती। नहुष, ययाति, विश्वामित्र जैसों को कामुकता ने घर दबोचा और विल्व मंगल अम्बपाली जैसों को उस कीचड़ से एक छलाँग मार कर ऊपर उबरने में देर नहीं लगी। बाल्मीकि अंगुलिमाल और अजामिल जैसों ने अपना पूर्व इतिहास इस प्रकार बदल दिया मानों वे उस रास्ते पर पहले कभी चले ही नहीं। इन्द्र और चन्द्र इतने उच्च पद पर आसीन होते हुए भी गौतम शाप से अपनी दुर्गति कराते फिरे और सर्वत्र निन्दा के भाजन बने। वह और कुछ नहीं मन रूपी बाजीगर की कलाबाजी मात्र है। वह किसी को भी पशु−पिशाच या देवता की पंक्ति में बिठा सकता है।

जिन्हें आत्म साधना अभीष्ट है उन्हें मन देवता की मनुहार करनी पड़ती है। वही गुरुओं का गुरु है। बाहर वालों के दिये हुए उपदेश इस कान सुनकर उस कान निकल जाते हैं। पर यदि किसी तथ्य को हृदयंगम कर ले तो वह पत्थर की लकीर बन जाते हैं।

यह अन्तरंग जीवन की बात हुई। बहिरंग जीवन पर दृष्टिपात करने से भी यही प्रतीत होता है कि परिस्थितियां बदल देने में उसी को श्रेय है। लिंकन और वाशिंगटन जिन परिस्थितियों में−जिस परिवार में उत्पन्न हुए थे, उसी हवा में बहते रहते तो अनगढ़ श्रमिक जैसी जिन्दगी जी रहे होते। गाँधी, बुद्ध जैसे महामानव घर परिवार की जन्मजात परिस्थितियों ने इतने ऊँचे नहीं उठाते थे। हरिश्चंद्र, अशोक, हर्षवर्धन जैसों का कुछ से कुछ हो जाना और किसी का वरदान या पराक्रम नहीं था। यह चमत्कार उनके बदले हुए मन ने ही कर दिखाया। कालिदास और वरदराज जैसों को मूर्धन्य विद्वान बनाने में उनकी बदली हुई अन्तरंग उमंगों ने ही असाधारण भूमिका निभाई। रक्त माँस की दृष्टि से सभी मनुष्य लगभग एक जैसी स्थिति के हैं, पर एक का आसमान पर चढ़ जाना और दूसरे का खाई के गर्त में गिरना यह सब कुछ मन द्वारा अपनाई गतिविधियों के ऊपर निर्भर है।

मन की शक्ति अपार है। चेतना को−आत्मा को सर्वशक्तिमान का अविनाशी अंश माना जाता है, पर उसके कौशल का परिचय मन के माध्यम से ही मिला है। योगीजन मन को साधने की साधना में ही निरत रहते हैं। इसी एक प्रयोजन के लिए वे विभिन्न विधि−विधान अपनाते हैं। जिसे जितनी सफलता मिल जाती है वह उसी स्तर का चमत्कारी सिद्ध पुरुष बन जाता है। ऋद्धि−सिद्धियों का उद्गम और कार्यक्षेत्र मानोलोक में ही सीमित और विस्तृत है। यह उक्ति अक्षरशः सत्य है कि जिसने मन जीता उसने संसार को जीत लिया।” जिसके हाथ में अपना मन है उसके हाथ में संसार का समस्त वैभव सिमट कर एकत्रित होता है।

मन की निग्रहित करने का असाधारण महत्व माहात्म्य बताया है और साथ ही उस प्रयोजन की सिद्धि के लिए अनेकानेक विधि−विधान बताये हैं। इन सबमें सर्वसुलभ इन्द्रिय जप है। मन को वायु वेग जैसा चंचल कहा गया है। उसकी यह घुड़दौड़ वासना, तृष्णा और अहन्ता के क्षेत्र में ही लगती रहती है। उसे रसों की अनुभूति इन्हीं में लगती है। इनमें से सर्वप्रथम वासना की बारी आती है। तृष्णा और अहन्ता इससे थोड़े ऊँचे स्तर पर आती हैं। यह इन तीनों से ही मन सकोड़ लिया जाय तो उस एकाग्रता की सिद्धि में देर न लगेगी जिसके आधार पर आत्म जप का लाभ मिलता है और साथ ही अभीष्ट प्रयोजन के लिए प्रबलतम पुरुषार्थ बन पड़ता है। बिखराव को समेट लेना ही चेतना क्षेत्र का प्रबलतम पुरुषार्थ है। मन उपरोक्त तीन लिप्साओं में ही घुड़दौड़ लगाता रहता है। इन्हीं में उसे रस प्रतीत होता है। यदि इन केन्द्रों के रसानुभूति को समेट लिया जाय तो समझना चाहिए किसी मनोनिग्रह की सिद्धि हस्तगत हो गई। और मनुष्य आध्यात्मिक पुरुषार्थों में से किसी को भी कर गुजरने की स्थिति में पहुँच गया।

साधना क्षेत्र के विद्यार्थियों को सर्वप्रथम इन्द्रिय जप का अभ्यास करना चाहिए। ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं और उनके अपने−अपने रस हैं। सामान्य स्तर के व्यक्ति इन्हीं में लटकते रहते हैं पीछे तृष्णा, अहन्ता की कल्पनाशील अभिलाषा जागृत होती और मनुष्य को कठपुतली की तरह नचाती है।

इन्द्रियों में प्रथम है- रसना। जीभ का रस चिन्तन को सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रभावित करता है। यह जन्मजात सहचर है। दूसरा रस कामुकता का है इसके लिए यौवन के उभार तक की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वयोवृद्ध होने पर वह असमर्थता के कारण अनायास ही समाप्त भी हो जाती है, किन्तु रसना की स्वाद लिप्सा ऐसी है जो जन्म से लेकर मरण पर्यन्त साथ रहती है। अर्थ और अनर्थ उसी के द्वारा सबसे अधिक होते हैं। स्वाद के वशीभूत होकर लोग अभक्ष्य भक्षण करते हैं और आवश्यकता से अधिक मात्रा में उदरस्थ करते रहते हैं। इसका प्रतिफल पाचन तन्त्र की खराबी के रूप में हाथोंहाथ सामने आता है। अपच से उत्पन्न सड़न ही अनेक स्तर के विष उत्पन्न करती और अनेक नाम रूप के रोगों के उत्पन्न करने का विभिन्न कारण बनती है। यह कुटेब यदि बनी रहे तो चिकित्सा के हेतु किये गये सभी उपचार व्यर्थ होते हैं। औषधियाँ अपने क्षणिक चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती है। स्वाद के कुचक्र में जकड़ा हुआ मनुष्य पकवान, मिष्ठान जैसे अनेक आहार ढूँढ़ता और निकालता रहता है। स्वाद के कारण अधिक मात्रा में खाया हुआ तथा चिकनाई, मिठाई, नमक, मसाले आदि के कारण दुष्पाच्य बना हुआ आहार धीरे−धीरे पाचन तन्त्र को अशक्त ही नहीं विषाक्त भी बना देता है। फलतः स्थिर आरोग्य का सूत्र ही हाथ से चला जाता है और मनुष्य दुर्बलता रुग्णता का आयेदिन शिकार रहते हुए अकाल मृत्यु का ग्रास बनता है। ऐसे लोग निरोग जीवन का आनन्द ले ही नहीं पाते और रोते−कलपते ज्यों−त्यों करके आधी−अधूरी जिन्दगी में ही दिन काट कर बिस्तर बाँधकर काल के गाल में चले जाते हैं।

रसना का अन्य इन्द्रियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। वह बिगड़ती है तो शेष चार को भी बिगाड़ लेती है। इनमें से अगला कदम जननेन्द्रिय लिप्सा का आता है। चटोरा व्यक्ति कामुक प्रवृत्तियों का गुलाम हुए बिना रहता नहीं। अध्यात्म साधना में ब्रह्मचर्य का बहुत महत्व बताया गया है उसे तेजस् का भण्डार कहा गया है। मनोबल उसी पर निर्भर रहता है। ओजस् तेजस् और वर्चस् जन्य विभूतियों का तादात्म्य ब्रह्मचर्य के साथ रहता है। यदि वह क्षीण होता रहे तो मनुष्य आत्मबल गँवा देगा। सामान्य बुद्धिबल तक घट जाता है फिर प्रज्ञा और मेधा का तो कहना ही क्या है? जो आत्मोत्कर्ष की आधारशिला मानी गई है। जो स्वाद को नहीं जीत सकता। उसके लिए ब्रह्मचर्य साधन असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।

शरीर का आधार पाचन तन्त्र है और आत्मा का वर्चस्व ब्रह्मचर्य पर निर्भर है। दोनों को एक−दूसरे से जुड़ा हुआ समझा जाना चाहिए। जो स्वाद नहीं जीत सका उससे ब्रह्मचर्य निभेगा नहीं, ब्रह्मवर्चस् गँवाकर ऐसा व्यक्ति उच्चस्तरीय विभूतियों से वंचित होकर ही रहेगा। (क्रमशः)


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