ज्ञान और विज्ञान यह दोनों सहोदर भाई हैं। ज्ञान अर्थात् चेतना को मानवी गरिमा के अनुरूप चिन्तन तथा चरित्र के लिए आस्थावान बनने तथा बनाने की प्रक्रिया। यदि ज्ञान का अभाव हो तो मनुष्य को भी अन्य प्राणियों की भाँति स्वार्थ परायण रहना होगा। उसकी गतिविधियाँ पेट की क्षुधा निवारण तथा मस्तिष्कीय खुजली के रूप में काम वासना का ताना−बाना बुनते रहने में ही नष्ट हो जायेगी। अन्यान्य सभी जीवधारी पेट और प्रजनन के सम्बन्ध में ही सोचते और इन्हीं दो कृत्यों में निरत रहते हैं। अकेला मनुष्य ही है जो जीवन का मूल्य और महत्व समझता है। वह आदर्शों के साथ जीने की बात सोचता है और इस निमित्त यदि कष्ट सहने पड़े तो भी प्रसन्नता पूर्वक सहन करता है। इस स्तर की मनोभूमि बनाने का कार्य ज्ञान है। इस शब्द से काम न चले तो उसे सद्ज्ञान कह सकते हैं।
ज्ञान का मोटा अर्थ जानकारी है। इस जानकारी की परिधि में वे सब बातें भी आती हैं जो वस्तु विनियोग से सम्बन्ध रखती हैं। कृषि, पशु−पालन, वास्तु, शिल्प आदि के जीवनयापन में काम आने वाली अनेकानेक गतिविधियाँ एवं वस्तुओं की जानकारी को भी यों ज्ञान शब्द की परिभाषा में लपेटा जा सकता है। पर यहाँ जिस हेतु को ध्यान में रखकर ज्ञान की महिमा बखानी जा रही है, वहाँ उसे चेतना को उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करने की प्रक्रिया समझना चाहिए।
मनुष्य भी एक तरह का पशु है। जन्मजात रूप से उसमें भी पशु प्रवृत्तियाँ भरी होती हैं। उन्हें परिमार्जित करके सुसंस्कारी एवं आदर्शवादी बनाने का काम जिस चिन्तन पद्धति का है उसे ज्ञान कहा गया है। गीताकार का कथन है कि− ‘‘ज्ञान से अधिक श्रेष्ठ और पवित्र अन्य कोई वस्तु नहीं है। “न हि ज्ञानेन पवित्रमिद्द विद्यते”
ज्ञान वह अग्नि है जो सड़े गले लोहे को अग्नि संस्कार करके माण्डूर भस्म−लौह भस्म आदि अमृतोपम गुण दिखा सकने योग्य बनाती है। पतित, पापी, मूढ़, पशु, महामानव, ऋषि आदि की काया एक ही तरह की होती है। उनकी बनावट और रहन−सहन पद्धति में कोई अन्तर नहीं होता। फिर जो एक को गया−गुजरा और दूसरे को आकाश में छाया देखते हैं। वह उसकी ज्ञान चेतना का ही चमत्कार है। वह हेय स्तर की हो तो मनुष्य निरर्थक या अनर्थ मूलक कामों में लगा हुआ दृष्टिगोचर होगा। यदि यह ज्ञान पवित्र, श्रेष्ठ और उत्साहवर्धक हो तो वही शरीर ऐसे काम करते हुए दिखाई देगा जिनसे असंख्यों को प्रेरणा मिले और उसका अनुगमन करने वालों के लिए भी प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो।
ज्ञान आन्तरिक जीवन से सम्बन्धित है और वह चेतना क्षेत्र में प्रभावित करके उचित अनुचित कर अन्तर करना सिखाता है। दूरदर्शी विवेकशीलता के आधार पर जो निर्णय या निर्धारण किये जाते हैं उन्हें ज्ञान का−सद्ज्ञान का− ही अनुदान कहना चाहिए।
ज्ञान का सहोदर है− विज्ञान। विज्ञान अर्थात् पदार्थ ज्ञान। हमारे चारों ओर अगणित वस्तुएँ बिखरी पड़ी हैं। वे अपने मूल रूप में प्रायः निरर्थक जैसी हैं उन्हें उपयोगी बनाने और उनकी विशेषताओं को समझने की प्रक्रिया विज्ञान है। विज्ञान ने मनुष्य को साधन सम्पन्न बनाया है। अन्य प्राणी इस जानकारी से रहित हैं इसलिए वे निकटवर्ती आहार को उपलब्ध करने में ही अपनी क्षमता समाप्त कर लेते हैं। यौवन की तरंग मन में उठने पर वे प्रजनन कृत्य में भी अपना विशेष पुरुषार्थ प्रदर्शित करते देखे जाते हैं। यह प्रकृति प्रदत्त शरीर के साथ मिलने वाली स्वाभाविकता है। उन्हें विज्ञान नहीं मिला। विज्ञान केवल मनुष्य की विशेष उपलब्धि है। आग जलाना, कृषि, पशु पालन, वास्तु, शिल्प, भाषा, चिकित्सा आदि एक से एक बढ़कर जानकारियाँ उसने प्राप्त की हैं और उनके सहारे साधन सम्पन्न बना है।
कभी विज्ञान की परिधि छोटी थी और उसके सहारे जीवनोपयोगी वस्तुओं तक का ही उत्पादन एवं प्रस्तुतीकरण होता था, पर अब बात बहुत आगे बढ़ गई और प्रकृति के अनेकानेक रहस्य खोज निकाल लिये गये हैं। इतना ही नहीं वरन् इससे भी आगे बढ़कर दूसरों के साधन छीनने वाले, उन्हें असमर्थ बनाने वाले प्राण घातक अस्त्र−शस्त्र भी बनने लगे हैं। जिस विज्ञान से सुख साधनों की वृद्धि का स्वप्न देखा जाता है वही यदि विनाश या पतन की सामग्री प्रस्तुत करने लगे तो आश्चर्य और असमंजस की बात है।
जिन्हें पिछले दो विश्वयुद्धों की जानकारी है। जो तीसरे अणुयुद्ध की तैयारी से परिचित हैं। इसी शताब्दी में 175 की लगभग छोटे और स्थानीय युद्धों की जिन्हें जानकारी है वे उस विभीषिका के पीछे विज्ञान की ही विनाश लीला को विभीषिका के रूप में सामने खड़ी देखते हैं। जिस विज्ञान के सहारे मांसाहार का व्यवसाय चमका, नशेबाजी की चित्र−विचित्र वस्तुएँ बनकर तैयार हुई। कामुकता को उत्तेजित करके वर्जनाओं पर प्रहार करने वाले अश्लील साहित्य एवं फिल्मों का घटाटोप उमड़ा वह विज्ञान की ही काली करतूत है। जहां चिकित्सा क्षेत्र में सर्जरी जैसे उपयोगी साधन बनाये वहाँ उद्योगीकरण के नाम पर ऐसे विशालकाय तन्त्र भी खड़े किये जिनने मुट्ठी भर लोगों को धन कुबेर बनाकर अगणित लोगों को बेकारी, बीमारी और भुखमरी के गर्त्त में बिलख-बिलख कर मरने के लिए छोड़ दिया। शहरों की तोंद फूल गई और देहातें उड़कर वनवासियों के झोंपड़ों में अभावग्रस्त हो गईं। यह भी विज्ञान का ही चमत्कार है जो प्रत्यक्ष सामने व आकार परोक्ष में बाजीगर की तरह कठपुतली का तमाशा दिखाता रहता है।
आज ज्ञान और विज्ञान दोनों ही अपनी प्रौढ़ावस्था में हैं। विडम्बना एक ही है कि वे सीधी राह चलने की अपेक्षा उलटी दिशा अपना रहे हैं और एक दूसरे का सहयोग न करके विरोध का रुख अपनाये हुए हैं और तरह तरह के दाँव पेचों का आविष्कार कर रहे हैं। इन गतिविधियों से वह धारा अवरुद्ध हो गई जो अब तक मनुष्य को समर्थ और सुखी बनाती रही है। अब उनमें प्रयास भस्मासुर जैसे हो चले हैं। जिसने उन्हें विकसित किया उसी मनुष्य को हेय, हीन बनाने और जीवन संकट खड़ा करने के लिए उद्यत दिखते हैं।
मानवोचित्त दूरदर्शिता और विवेकशीलता का तकाजा है कि ज्ञान और विज्ञान मिलकर चलें। ज्ञान के क्षेत्र में अनैतिकता, अन्ध श्रद्धा एवं अवाँछनीयता का प्रचलन बढ़ा−चढ़ा है। कुरीतियाँ और दुष्प्रवृत्तियाँ घट नहीं रही वरन बढ़ रही हैं। इसका ताना−बाना ‘ज्ञान’ द्वारा बुना जा रहा है। जानकार समझदार लोग अपने−अपने ढंग से इसका समर्थन कर रहे हैं। धर्म अपनी गरिमा से बहुत नीचे उतरकर साम्प्रदायिकता कट्टरता के विषय बीज बो रहा है और जिन्हें वे प्रभावित कर सकते हैं उन्हें अशिक्षितों और अधर्मियों से भी गया बीता बना रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि वे वैज्ञानिकता की तथ्यान्वेषी प्रवृत्ति अपनायें और अन्ध−परम्पराओं को अमान्य ठहराकर धर्म और अध्यात्म को सत्य के निकट पहुँचाने वाली वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान करें।
ठीक इसी प्रकार विज्ञान के लिए भी आवश्यक है कि वह अपनी उपलब्धियों का प्रयोग करते समय ज्ञान से परामर्श करे कि उपलब्धियों का उपयोग आँखें मूँदकर−अनीति के समर्थन में न होने पाये। शक्ति के ऊपर अंकुश रहे और शक्तियों को औचित्य के अनुशासन में जकड़कर रख जाय।
सुन्द और उपसुन्द दो भाई थे। दोनों ने इतनी शक्ति अर्जित कर ली कि संसार में कोई भी उन दोनों की संयुक्त शक्ति को चुनौती नहीं दे सकता था। किन्तु दुर्भाग्यवश वे अपनी इस विश्व विजयी शक्ति का संयुक्त उपयोग न सके। किसी छोटी बात पर अहंकार वश वे दोनों आपस में भिड़ गये और परस्पर लड़−भिड़कर समाप्त हो गये। यह उदाहरण ज्ञान और विज्ञान की संयुक्त शक्ति के सामने भी प्रस्तुत है। विज्ञान द्वारा अर्जित विभूतियों को यदि सद्ज्ञान के मार्गदर्शन में विवेकपूर्वक लोक मंगल के लिए प्रयुक्त किया जाय तो प्रस्तुत जन−समाज के प्रत्येक मनुष्य−प्रत्येक प्राणी−निर्वाह के ही नहीं प्रगति की भी आवश्यक सामग्री प्रचुर परिमाण में प्राप्त कर सके। तब मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण दिवा स्वप्न नहीं वरन् एक सुनिश्चित सम्भावना के रूप में सामने आ सकता है। जो मस्तिष्क जो अनुसन्धान विघातक क्षमता बढ़ाने के प्रयास में लगे हुए हैं। जो सम्पदा महामरण का साधन साधने में लगी हुई है यदि वह उलटकर ऐसे उपकरण खोजे जो मनुष्य का श्रम समय बचाकर सद्ज्ञान के मार्ग दर्शन में लोकहित संजो सके तो आज जितने वैभव का मनुष्य स्वामी है उतने से ही गरीबी, बीमारी, बेकारी, अशिक्षा और कलह कारणों का सरलता पूर्वक उन्मूलन हो सकता है।
शिक्षितों, विद्वानों की कमी नहीं। पर वे अपने मस्तिष्क को पैसे के लिए बेचकर किसी भी उचित अनुचित के समर्थन में बिना हिचक के संलग्न हैं। यदि उनने प्रज्ञा का अवलम्बन लेकर मनीषा को श्रेय देने वाली प्रखरता को गति दी होती तो जन शक्ति की यथार्थता का भान हुआ और प्रयासों का प्रवाह औचित्य की दिशा में बहा होता। वैज्ञानिक साधन कितने ही सशक्त क्यों न हों, उनका प्रयोग तो मनुष्य ही करता है। यदि इस प्रयोगकर्त्री विवेक−बुद्धि को श्रेयानुगामी बनाया गया होता तो वह साधनों का दुरुपयोग होने देने से रोकने के लिए आगे बढ़ी होती और उन्हें चुनौती दे रही होती जो निर्द्वन्द्व होकर विनाशकारी प्रयासों में लगे हुए हैं।
विज्ञान की सशक्तता के सम्बन्ध में दो मत नहीं हो सकते। पर यह भी सुनिश्चित है कि उनका भला−बुरा प्रयोग मनुष्य ही करता है। क्या निर्णय किया जाय इसका भार मुट्ठी भर सशक्तों पर छोड़कर शेष जन समुदाय मूक दर्शक बना रहे तो यह एक परले सिरे का दुर्भाग्य ही होगा। अनीति की गतिविधियाँ चलती रहें तो इसमें दोषी वे लोग भी होते हैं जो विरोध करने में डरते हैं या उसे आवश्यक कर्त्तव्यों में सम्मिलित नहीं करते। यह कार्य विचारशील विज्ञजनों का है कि विज्ञान को महाविनाश की दिशा में अग्रसर होने से रोकें और उन्हें स्वेच्छाचार न बरतने दें जिन्हें समर्थता उपलब्ध हो गई है।
चाकू को कलम बनाने के काम में लाया जा सकता है और किसी को अंग−भंग करने में भी। विज्ञान एक चाकू है जिसे मानवी प्रगति के लिए ही प्रयुक्त होना चाहिए। यह काम ज्ञान का है कि जन−साधारण की विचारणा का उद्बोधन करे और ऐसा वातावरण बनाये जिससे सामूहिक आत्म−हत्या के लिए समूची मानवता को विवश करने वालों के हाथ रुकें और पैर थमें।
ज्ञान को विज्ञानवादियों के संपर्क में आना चाहिए। और विज्ञान को अपनी सत्यान्वेषण की सहज प्रकृति से ज्ञानवानों का द्वार खटखटाना चाहिए। ताकि वे जन−मानस का इतना सान्निध्य करे कि मुट्ठी भर सत्ताधारी इस समूची दुनिया का भविष्य अन्धकार में न झोंक सके।
ज्ञान और विज्ञान की सत्ता पुरानी है पर नई परिस्थिति को देखते हुए उन दोनों को एक दूसरे का अवलम्बन लेते हुए समय की समस्याओं का समाधान करने में लिए उद्यत होना चाहिए।