दुनिया के दर्पण में अपना ही चेहरा दिख पड़ता है।

February 1985

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एक राजा ने ऐसा महल बनवाया जिसमें छोटे-छोटे अनेकों दर्पण जड़े हुए थे। राजा उसमें प्रवेश करता तो उसे चारों दिशाओं में तथा छत पर अपनी ही अनेकानेक छवियाँ दिखाई देतीं। वह अपने जैसे इस समुदाय को देखकर बहुत प्रसन्न होता।

एक दिन गलती से एक कुत्ता उसमें बन्द हो गया। उसे बहुत से कुत्ते दिखाई पड़े। अपने घर में इतने शत्रुओं को घुसा हुआ देखा कर वह आग बबूला हो गया। भौंकने लगा। अब दर्पण वाले भी सभी कुत्ते भौंकने लगे। महल से प्रतिध्वनि की आवाज उठने लगी और हर ओर से कुत्ते दाँत निकालकर आक्रमणों की मुद्रा में दिखने लगे। कुत्ता उनके साथ लड़ने, मरने पर आमादा हो गया। जिधर देखता उधर दुश्मन ही नजर आते। दिन भर उनसे लड़ता रहा और अन्ततः उन सबके साथ अकेला लड़ते−लड़ते लहूलुहान होकर मर गया।

दूसरे दिन सफाई के लिये महल खुला तो वह कुत्ता मरा पड़ा निकला उसने दीवारों में जड़े कई काँच भी तोड़ डालते थे। कुत्ते को देखकर सभी उपस्थित जनों की समझ में आ गया कि इसका कारण क्या हो सकता है। दर्पणों में उसने अपने प्रतिद्वन्द्वी देखे और उन्हें परास्त करने के आवेश में अपनी जान गँवा बैठा।

यह संसार एक दर्पण है। इसमें जितने ही मनुष्य हैं वे अपनी ही जैसे दिखाई पड़ते हैं। यदि सब वैसे न हों तो भी इतनी बात सर्वथा सच है कि अपनी प्रकृति के लोग ही कहीं न कहीं से आकार अपने मित्र सम्बन्धी बन जाते हैं और एक अच्छा−खासा गिरोह बन जाता है। चोर, जुआरी, ठग, जेबकट, डाकू, शराबी अपनी प्रकृति के लोगों को ढूँढ़ लेते हैं और अन्ततः उनका भी अपने ढंग का गिरोह बन जाता है। हर प्रकृति में अपना एक अनोखा आकर्षण होता है। वह चुम्बक ही तरह अपनी बिरादरी वालों को समीप बुला लेता है या उनके पास जा पहुँचता है। हिरन कबूतर ही नहीं मनुष्य भी अपनी बिरादरी के साथ रहना पसन्द करते हैं। बिरादरी से मतलब यहाँ स्वभाव या प्रकृति से है।

एक व्यक्ति फोटोग्राफर से अपना फोटो खिंचवाकर लाया वह बहुत सुन्दर था। उसे देखकर एक दूसरे व्यक्ति ने भी अपना वैसा ही फोटो बनवाने की इच्छा की। फोटो ग्राफर ने उसका भी खींच दिया। पर वह उसकी आकृति के अनुरूप कुरूप था। इस पर वह फोटोग्राफर से लड़ने मरने को तैयार हो गया। दूसरे का इतना सुन्दर और मेरा इतना कुरूप? इसके पीछे द्वेष या पक्षपात किया गया है। फोटोग्राफर वस्तुस्थिति समझाने की बहुत कोशिश करता रहा पर वह मानने को तैयार न होता था। झगड़ा बढ़ गया और हाथापाई होने लगी तब पड़ौसी इकट्ठे हो गये और वाकया सुनकर खिंचवाने वाले की ही गलती बताने लगे और कहने लगे कि वस्तुस्थिति जानो, तुम्हारा चेहरा ही कुरूप है तो फोटो सुन्दर कैसे बन सकता है?

अपना स्वभाव और दृष्टिकोण जैसा भी होता है। सम्बन्धित लोगों में वही दोष दिखाई पड़ते हैं। बुरी प्रकृति दूसरों को मालूम पड़ती है जबकि होती अपनी है और उनके व्यक्तित्व में दर्पण की तरह परिलक्षित भर होती है।

धूप में चलने पर एक काली कलूटी छाया कभी आगे, कभी पीछे चलती है। इस चुड़ैल के हर घड़ी साथ लगे रहने पर काया ने बहुत बुरा माना और भगाने का प्रयत्न किया। गालियाँ दीं और डण्डे लगाये पर वह दूर हटने को तैयार ही नहीं हुई। समझदारों ने झंझट का शरण पूछा और मालूम होने पर बहुत हँसे। उनने कहा− ‘‘हम लोग थोड़ी देर में भगा देंगे।” दोपहर को बाहर बजे सूरज जब ठीक सिर पर आ गया तब उसे बुलाया और कहा− देखें! वह चुड़ैल कहाँ है? वह पैरों तले पहुँच गई थी। इसलिए कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती थी। उसे खुश देखकर लोगों ने इतना और समझा दिया कि धूप में चलोगे तो छाया साथ रहेगी ही।

सन्तों की−सज्जनों की−सेवा भावियों की दोस्ती अपने जैसे लोगों से हो जाती है। आवश्यकता नहीं कि वे एक ही गाँव या इलाके के हों। दूर−दूर के रहने वाले होने पर भी एक दूसरे का परिचय कहीं न कहीं से प्राप्त कर लेते हैं और उनके बीच मेल−जोल का सिलसिला चल पड़ता है और अन्ततः वे घनिष्ठ बन जाते हैं। चोर डाकुओं के गिरोह बनते रहते हैं। इसका कारण एक ही है कि हर मनुष्य की अपनी प्रकृति होती है। उसे साथियों की आवश्यकता पड़ती है। चुम्बक लोहे के टुकड़ों को खींचकर अपने पास जमा कर लेती है। मनुष्य भी अपनी−अपनी प्रकृति के अनुरूप मण्डलियाँ बना लेते हैं, और उनके मिले−जुले प्रयास चमत्कार दिखाने लगते हैं। यदि मनुष्य अपनी प्रकृति बदल डाले और नई रीति−रीति अपनाले, तो पुराने सभी मित्र धीरे−धीरे छिन्न−भिन्न हो जायेंगे और नई परिवर्तित प्रकृति के अनुरूप जमघट बढ़ने लगेगा।

एक बच्चा पिता के साथ नदी तट पर गया। हवा चल रही थी और लहरें उठ रही थीं। हर लहर पर एक अलग सूरज चमक रहा था। बच्चे ने पिता से पूछा ये आकाश में सूरज एक ही बड़ा है। पर हर लहरों पर तो सैकड़ों हजारों की संख्या में दिख रहा है और आकार में छोटी भी है। पिता ने समझाया कि अवकाश वाला सूरज तो एक ही है। लहरों पर तो उसके प्रतिबिम्ब भर चमक रहे हैं।

इस संसार में जन समुदाय नदी की लहरों की तरह है। उनके अपने−अपने गुण स्वभाव हैं। पर उनकी वहीं विशेषताएँ उभर कर हमारे सामने आती हैं, जिन्हें हम ढूँढ़ते हैं। सज्जनों के साथ आमतौर से दूसरे लोग भी सज्जनता का व्यवहार करते हैं। इसके विरुद्ध क्रोधी लोगों का हर किसी से झगड़ा होता रहता है। बाजार में अनेकों दुकानें होती हैं। पर उनमें पहुँचते वहीं लोग हैं जिन्हें जिस चीज की जरूरत होती है। जिसे मिठाई खरीदनी है वह लोहे की दुकान पर जाकर व्यर्थ हैरान होगा और निराश वापस लौटेगा।

कुंए में नीचे मुँह करके या गुम्बज में ऊँचा मुँह करके जोर से जो कुछ भी बोला जाय, उलटकर उन्हीं शब्दों की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ेगी। संसार की बनावट भी ऐसी है। अपनी प्रकृति और आदतें ही लोगों के साथ संपर्क साधने पर अपनी उसी प्रकार की प्रतिक्रिया लेकर वापस लौटती है। गेंद को जिस ऐंगिल पर मारा जाया सामने वाली दीवार से टकराकर वह उसी तेजी से उसी एंगल पर वापस लौटती है।

यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि लोगों में अपनी−अपनी भली−बुरी विशेषताएँ हैं ही नहीं। वे तो होती हैं और बनी भी रहेंगी पर प्रश्न यह है कि हमारे साथ किनका कैसा व्यवहार हो। हम यदि चाहते हैं कि दूसरे हमसे सज्जनता बरतें तो सर्वप्रथम हमें अपने व्यवहार में शालीनता का समावेश करना चाहिए। देखा जाय कि सामने वाला कुछ भी क्यों न हो हमारे साथ सज्जनता का ही व्यवहार करेगा। आमतौर से यही होता है। यों इसके प्रतिकूल व्यवहार भी होता है पर उसे अपवाद ही कहना चाहिए जो कभी-कभी होता है।

सयानी लड़कियों के साथ गुण्डागर्दी, छेड़छाड़, आवाजकशी प्रायः तभी होती है जब उनने बेतुका श्रृंगार बना रखा हो। कपड़े, बेशऊर ढंग से पहने हों। तो उस फूहड़ सज्जा को देखकर चरित्र का ढीलापन, मनचलापन उजागर होता है और छेेड़खानी की हिम्मत पड़ती है। सादा जीवन उच्च विचार का आदर्श अपनाकर रहा जाय तो फैली हुई गुण्डागर्दी सहज ही बहुत घट सकती है। इस संसार में जो भी कुछ है, प्रतिक्रिया स्वरूप ही है, इस तथ्य को हमेशा मानकर चलना चाहिए।


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