धर्म का व्यावहारिक स्वरूप

February 1985

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अमेरिका का एक व्यक्ति आरम्भ में तो गरीब था। पर पीछे वह उद्यमपूर्वक व्यवसाय करके धनवान बना। पैसा तो उसके पास बहुत हो गया, पर यह नहीं समझ सका कि इसका सही उपयोग क्या करना चाहिए? चाटुकार दिन भर पीछे लगे रहते और तरह−तरह के षड़यन्त्र रचकर उसे ठगते रहते। पीछे उसे पछताना पड़ता। पैसे को तिजोरियों में रखा तो वहाँ चोरों ने ऐसी तरकीबें निकाली जिसे सुरक्षा का उद्देश्य पूरा न हुआ। अपनी नासमझी और चोरों की चालाकी पर उसे बहुत खीज आती। खीज कई बार तो इतनी अधिक बढ़ जाती कि सारा कारोबार समेटकर कहीं एकान्त में चले जाना या आत्मा−हत्या करने को मन करता।

इस बीच उसके एक मित्र ने उसे अच्छी किताबें दीं जिनमें धर्म और विवेक के समन्वय से सूझ−बूझ पर कदम उठाने और औचित्य का पग−पग पर सहारा लेने की सलाह दी गई थी। इस सलाह को उसने अपनाया, सभी चाटुकारी छूट गये और चोरों को घात लगाने का अवसर ही नहीं रहा। साथ ही कारोबार पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गया। वह अनुभव करता था कि मेरे जीवन का कायाकल्प “धर्म विज्ञान” ने कर दिया। यह रास्ता दूसरों को भी मिले तो उनका भी भला हो सकता है।

पहले वह धर्म को भी अन्ध−विश्वास मानता था और सोचता था कि यह भी भोले लोगों को बहकाने का एक तरीका है। पीछे जब उसने धर्म का तत्वज्ञान गम्भीरता से पढ़ा तो उसे पता चला कि वह पूर्णतया समझदारी और सचाई पर अवलम्बित है। उसने इस विषय पर जितनी किताबें मिल सकी ढूँढ़−ढूँढ़कर पढ़ डालीं। विचारशील विद्वानों के साथ जितना संपर्क साध सका उसका एक भी अवसर उसने नहीं गँवाया। उसकी सभी बाहरी समस्याओं और भीतरी उलझनों का समाधान हो गया।

पर उसने देखा कि इस तरह के विचारशील साहित्य का सृजन ही नहीं हुआ है जो धर्म के व्यवहारवादी पक्ष को सर्वसाधारणों के लिए प्रस्तुत कर सके और बिना धर्म के जो हानियाँ उठानी पड़ती हैं उनसे बच सके। उसे यह विषय इतना प्रिय लगा कि उसे व्यवसाय, व्यवहार और आरोग्य से भी अधिक महत्वपूर्ण होने पर भी उस विषय पर नहीं के बराबर साहित्य छपा है।

इस कमी की पूर्ति के लिए रोपरमार्टन नामक इस व्यक्ति ने अपनी समस्त पूँजी से “फाउण्डेशन आफ रिलीजन एण्ड फिलासॉफी” नामक संस्था का निर्माण किया। इसका उद्देश्य एक ही है कि “धर्म का व्यावहारिक जीवन में स्थान” विषय पर साहित्य का लेखन और प्रकाशन किया जाय ताकि सर्वसाधारण को यथार्थता से अवगत होने का अवसर मिले। धर्म को कोई रहस्यवाद समझता है तो कोई पाखण्ड किसी की दृष्टि से मूर्खों का धूर्तों द्वारा मूर्ख बनाने की कला का नाम धर्म है।

ईश्वर से मिलन, दर्शन, मुक्ति, मोक्ष, स्वर्ग, नरक की चर्चा धर्म के नाम पर आये दिन होती रहती है। यह सभी विषय ऐसे हैं जिनके प्रत्यक्ष प्रमाण कुछ भी न होने के कारण वे विशुद्ध रूप से मनुष्य की श्रद्धा के ऊपर अवलम्बित हैं। यदि श्रद्धा हो तो यह सभी विषय किसी को सन्तोष दे सकते हैं और प्रिय लग सकते हैं। यदि अश्रद्धा हो तो इन प्रसंगों में से एक भी ऐसा नहीं है जिसे तात्कालिक जीवन में उनका कोई प्रत्यक्ष प्रभाव देखा एवं प्रमाण पाया जा सके।

श्री मार्टन चाहते हैं कि उनकी पूँजी में जो भी प्रकाशन हो वह ऐसा हो जिसमें व्यवहारिक जीवन में आये दिन प्रस्तुत होने वाली कठिनाइयों और समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया जा सके। प्रगतिशील जीवन के लिए जिन सिद्धान्तों एवं नीति व्यवहारों की आवश्यकता है। उन सबका समावेश धर्म के अंतर्गत रहे और वे सभी प्रतिपादन ऐसे हों जो बुद्धिजीवियों को मान्य हों।

ये प्रसंग बड़ा ही महत्वपूर्ण है। यदि उसे ठीक ढंग से प्रस्तुत किया जा सका तो न तो धर्म अन्ध−विश्वास रहेगा और न कलह का कारण। ऐसी स्थिति में धर्म सर्वप्रिय भी होगा और सर्वमान्य भी।


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