क्या यह भवितव्यता टाली नहीं जा सकती?

February 1985

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वृद्धावस्था क्यों आती है और इसके बाद मृत्यु के मुख में क्यों जाना पड़ता है, इसके अनेक कारणों में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मनुष्य के स्नायु संस्थान में काम करने वाला विद्युत प्रवाह−चुम्बकत्व क्रमशः घटता जाता है। फलतः उसकी जीवनी शक्ति क्षीण होने लगती है। इससे शारीरिक क्रिया−कलापों में वैसी समस्वरता नहीं रहती जैसी कि बचपन एवं यौवन काल में रहा करती थी।

आयु बढ़ने के साथ−साथ काय−कलेवर की स्थूलता एवं परिपक्वता भले ही बढ़ जाय पर चुम्बकत्व घटता जाता है। फलतः आकर्षक प्रभाव में न्यूनता आने लगती है। वृद्धावस्था में मनुष्य और भी अधिक अनावर्धक हो जाता है। स्वरूप में रूखापन आ जाने से दूसरों को उनके साथ रहने में रुचि नहीं रहती। दूसरों को प्रभावित करने की दृष्टि से भी वे दुर्बल पड़ते जाते हैं। चुम्बकत्व की कमी न केवल बाह्य आकर्षण एवं प्रभाव को कम करती है वरन् आन्तरिक दुर्बलता के कारण क्षति पूर्ति के लिए आवश्यक क्षमता भी अर्जित नहीं कर पाती। आमदनी से खर्च बढ़ते जाने पर दिवालिया होने की स्थिति आ जाती है। जीवन व्यवसाय में इसी को मरण कहते हैं।

यह क्रम न केवल मनुष्य पर वरन् समस्त ब्रह्माण्ड पर लागू होता है। जन्म, विकास और अवसान त्रिविधि सृष्टि प्रक्रिया ही अध्यात्म क्षेत्र में ब्रह्मा, विष्णु, महेश के नाम से परिकल्पित की गई है। उनके क्रम चक्र पर जड़ चेतन सभी को परिभ्रमण करना पड़ता है। अपना भूलोक भी इसका अपवाद नहीं है। धरती कब जन्मी थी इसका काल निरूपण विज्ञान क्षेत्र के गणितज्ञ बड़ी बारीकी से कर रहे हैं और क्रमशः तथ्य के निकट पहुँच रहे हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि पृथ्वी मरण की दिशा में भी अग्रसर हो रही है। इस मरण धर्मा संसार में जब कोई भी दृश्य पदार्थ या प्राणी अमर नहीं रह सकता तो धरती ही कैसे अपवाद हो सकती है। भूत की तुलना में भविष्य और भी अधिक उत्सुकता पूर्ण होता है, धरती कब जन्मी, कैसे जन्मी, इसका विवरण रोचक है, साथ ही यह ज्ञातव्य भी कम रोमाञ्चकारी नहीं है कि धरती मरेगी कैसे? उसे किस रोग से ग्रसित होकर कितने दिन अपंग अशक्त और इस स्थिति में रहना होगा और फिर दम तोड़ने के समय का दृश्य कैसा हृदय विदारक होगा।

प्राणियों की तरह ही पदार्थों में भी चुम्बकत्व होता है। इसी ऊर्जा को प्राणि वर्ग में प्राण कहा जाता है और पदार्थों में विद्युत कहते हैं। इसकी मात्रा जिसमें जितनी अधिक है वह उतना ही समर्थ है। इस भण्डार में कमी आने से दुर्बलता बढ़ती है और क्रमशः मरण की घड़ी समीप आ पहुँचती है धरती का मरण भी नियति की इसी क्रिया प्रक्रिया के माध्यम से सम्पन्न होगा।

“निकट भविष्य में ही धरती पर महाप्रलय होगी और उसके बाद पैदा होने वाला मानव या तो दैत्याकार होगा या वामनाकार”। यह कोरी कल्पना नहीं, बल्कि वैज्ञानिकों की लम्बी शोध के बाद की गयी भविष्यवाणी है।

धुँधले अतीत से चली आ रही जल−प्रलय की पौराणिक कथा कितनी सत्य है, यह तो नहीं मालूम, पर एक बात तो निर्विवाद सत्य है कि उस आदिकाल में कोई न कोई घटना ऐसी अवश्य हुई होगी, जिससे संसार के अधिकाँश प्राणियों का नाश हुआ होगा। अब जिस प्रलय की बात वैज्ञानिक कहते हैं वह जल प्रलय से नहीं, अपितु धरती का चुम्बकत्व लोप हो जाने की वजह से होगी। इस दिशा में जितनी जानकारियाँ एकत्र की गयी हैं, उनके अनुसार वह समय अब कुछ ही शताब्दियों बाद आने वाला है। वस्तुतः उसके लक्षण व प्राणी जगत पर दुष्प्रभाव तो अभी से ही नजर आने लगे हैं।

धरती एक विशाल चुम्बक है, जिसकी क्रोड़ में तरल पदार्थ भरा पड़ा है। पृथ्वी की सतह पर जो चुम्बकीय बल कार्य करते है, उनका उद्गम स्थल यही क्रोड़ है। यह पृथ्वी रूपी शक्तिशाली चुम्बकत्व ही है, जिसके कारण लटकती हुई कम्पास सुई इसकी बल रेखाओं के साथ सदा उत्तर−दक्षिण दिशा में संकेत करती रहती है। ‘धरती चुम्बक’ के ये 2 ध्रुव वे स्थान है, जहाँ पृथ्वी के चुम्बकत्व का प्रभाव सर्वाधिक होता है। ये चुम्बकीय ध्रुव स्थिर नहीं होते। उत्तर ध्रुव घूमकर दक्षिण की ओर व दक्षिण ध्रुव उत्तरी ध्रुव की वर्तमान स्थिति की ओर घूम रहा है। पृथ्वी के ऐसे भाग जहाँ आज गर्मी पड़ती है, किसी समय बर्फ में दबे हुए थे। वैज्ञानिकों ने विश्व के विभिन्न भागों में स्थित प्राचीन चट्टानों का भी अध्ययन किया है व विभिन्न प्रकार के जीव−जन्तुओं, पेड़−पौधों के फासलों की खोज की है। अन्वेषण के दौरान वैज्ञानिकों ने यह जाना कि धरती के उत्तरी ध्रुव व दक्षिणी ध्रुव पर, जहाँ आज बेहद ठण्ड पड़ती है व बर्फ ही बर्फ जमी रहती है, किसी समय गर्म मौसम था। ध्रुवों के बदलते इतिहास को देखकर वैज्ञानिक कहते हैं कि सम्भव है एक समय अमेरिका, अफ्रीका व एशिया में उत्तर ध्रुव का स्थान बन जाय। वैज्ञानिकों के अनुसार ईस्वीसन 4000 के लगभग ये ध्रुव एक दूसरे से स्थान पूर्णतया बदल चुके होंगे।

पृथ्वी का चुम्बकत्व नष्ट होने के बारे में वैज्ञानिकों का यह विचार है कि इन ध्रुवों के स्थान बदलने के क्रम में एक ऐसी अवधि आयेगी, जब चुम्बकत्व का लोप हो जायेगा यह अवधि 1-2 शताब्दी की होगी। इस अवधि में असंख्य प्राणी सदा कि लिये समाप्त हो जायेंगे। जो भी बचे रहेंगे, उनमें इतने अधिक आनुवाँशिक परिवर्तन हो जायेंगे कि उनकी जाति आज के अपने पूर्वजों से भिन्न होगी। ये ही या तो दानवाकार या वामनाकार होंगे।

इस भविष्यवाणी के अनुसार वह समय अभी तो दूर है पर उसके पूर्व लक्षण दिखाई देने लगे हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के अन्त में हुआ हिरोशिमा पर बम विस्फोट व ध्वंस इस महाप्रलय की शुरुआत कहा जा सकता है। इस महानाश के बाद के दुष्परिणाम हमारी आँखों के सामने प्रत्यक्ष हैं। रेडियो धर्मिता के कारण जन्म विकलांग सन्तानों एवं कई तरह के आनुवाँशिक रोगों का वर्णन ठीक उसी नई मानव सृष्टि का उल्लेख है जिसका जिक्र ये वैज्ञानिक कर रहे हैं।

आज सम्पूर्ण विश्व में विचित्र मौसम परिवर्तन, महामारी, बाढ़ तथा अकाल के समाचार सुनने में आ रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वह विभीषिका और भी जल्दी आ रही है जिसकी सुदूर भविष्य में घटित होने वाली तथ्यपूर्ण आशंका है। प्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है? अमेरिकी वैज्ञानिक ‘हीगन’ व नील उपडायक कहते हैं कि चुम्बकत्व समाप्त होते ही पृथ्वी का सुरक्षा कवच (ओजोनोस्फियर) समाप्त हो जायेगा। तब इस पृथ्वी पर अन्तरिक्ष से कास्मिक किरणों की निरन्तर बौछार होने लगेगी। इन कास्मिक किरणों से धरती पर स्थित जीवन का सर्वनाश तो होगा ही, अपितु मनुष्यों में भी आनुवाँशिक परिवर्तन होंगे। नये प्रकार के विचित्र फल−फूल पैदा होने लगेंगे। नये कीड़े−मकोड़े व जीवाणु−विषाणु जन्मने लगेंगे। नये प्रकार का इंसान राक्षस भी हो सकता है व कद में बौना भी। उसकी अनेकों आंखें, कान व सींग हो सकते हैं।

पृथ्वी की चारों ओर से रक्षा करने वाला अभेद्य कवच ओजोनोस्फियर इन्हीं घातक किरणों की बौछार से प्राणी जगत को बचाये रखता है। ओजोनोस्फियर−चुम्बकत्व घटने पर ही क्षीण होता जाय, ऐसी बात नहीं है। विभीषिकाएँ जो इन दिनों पृथ्वी को अपने चंगुल में लिये हुए हैं, इसी ओजोन की परत की सघनता में कमी आने के कारण जन्मी हैं, ऐसा मत खगोल भौतिकविदों का है।

ओजोनोस्फियर वैज्ञानिकों के अनुसार 3 कारणों से कम होता जा रहा है। एक−सुपरसोनिक ट्राँसपोर्ट यानी काफी ऊँचाई पर उड़ने वाले यानों द्वारा होने वाला वायु प्रदूषण ओजोन की निष्क्रिय ऑक्सीजन में बदल देता है। आज विश्व भर में इन कान्कार्ड वायुयानों का हल्ला मचा हुआ है। लगता है जब तक प्रत्यक्ष दुष्परिणामों के दण्ड कास्मिक किरणों से होने वाली हानि के मनुष्यों को नहीं मिलेंगे, तब तक यह प्रदूषण जारी रहेगा।

दूसरा कारण वैज्ञानिक कीटनाशकों की वजह से होने वाले प्रदूषण को बताते हैं। इनमें मौजूद सल्फर डाई ऑक्साइड ओजोन से प्रतिक्रिया कर इसकी सघनता को समाप्त करती है। तीसरा सर्वविदित कारण है−रेडियो धर्मिता में वृद्धि।

वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी धीरे−धीरे गरम होती रही है। उनके अनुसार पृथ्वी पर कुल बर्फ का एक बड़ा हिस्सा अब तक पिघल चुका है। अमेरिका के राष्ट्रीय सामुद्रिक और वातावरणीय प्रशासन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी के गर्म होने का कारण कल−कारखानों से निकलने वाले प्रदूषक तत्व हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार सन् 2030 तक पृथ्वी का तापमान 2 से 9 डिग्री सेण्टीग्रेड बढ़ जायेगा। इसका प्रभाव पृथ्वी की जलवायु पर असाधारण रूप से पड़ेगा। पिछले 70 वर्षों में उत्तरी ध्रुव की बर्फ 1/3 एवं अमेरिका की आधी बर्फ गल चुकी है। आल्प्स एवं हिमालय पहाड़ के ग्लेशियर भी गलते जा रहे हैं।

अमेरिकी समुद्र तट के निरीक्षक डा. एच. ए. मार्नर का कहना है कि शहरों की ऊँचाई समुद्र तल से कम होती जा रही है। ध्रुवीय हिमावरण के पिघलते जाने से महासागरों का तल धीरे−धीरे ऊपर उठता जायेगा एवं सागर के निकट विशाल नगरों का अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा।

सबसे हास्यास्पद बात यह है कि वैज्ञानिक गम्भीर विचार विमर्श के बाद इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि महाप्रलय की स्थिति से मुकाबला करने के लिये भावी माताओं को धरती के भीतर गुफाओं में रख दिया जाये ताकि वे पूर्णतया सुरक्षित रहें वह नवशिशुओं पर इस स्थिति का कोई प्रभाव न पड़े।

पर धरती के गर्म होने की सम्भावना भी इन्हीं वैज्ञानिकों की है। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि ध्रुवों के बल क्षेत्र के दिशाभिमुखीकरण की अवधि में पृथ्वी के चारों ओर कृत्रिम चुम्बकीय बल स्थापित किया जाय ताकि अन्तरिक्ष से आने वाली घातक किरणों से बचाव हो सके।

क्या हम महाप्रलय से पूर्व संकेतों को समझकर प्रकृति से खिलवाड़ करना बन्द नहीं कर सकते? वृक्षों को काटना बंदकर भूक्षरण एवं बाढ़ की विभीषिका से बचा जा सकता है एवं वातावरण प्रदूषणजन्य हानि से भी बचा जा सकता है। कल-कारखानों द्वारा छोड़े जाने वाले जहर को यदि कम किया जा सके, छोटे−छोटे गृह−उद्योगों से काम चलाया जा सके तो कास्मिक किरणों द्वारा किये जाने वाले विध्वंस से बचा जा सकता है। चेतावनी तो वातावरण दे ही रहा है पर विज्ञान वेत्ता इसे न समझ पायें तो महाप्रलय अवश्यम्भावी है। इसे देरी तक टाला नहीं जा सकता।

प्रकृति प्रदत्त चुम्बकत्व को यदि उचित रीति से खर्च किया जाय तो समर्थता, सुव्यवस्था एवं दीर्घजीवन का लाभ हर किसी को मिल सकता है। पर यदि उसका अपव्यय दुरुपयोग किया जाय तो अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने की तरह समय से पूर्व ही दिवालिया बनने और अकाल मृत्यु के मुख में गिरने के संकट का सामना करना पड़ेगा।

पृथ्वी की स्वाभाविक मृत्यु में अभी बहुत विलम्ब है, पर हम उस पर आश्रय प्राप्त करने वाले और बुद्धिमान होने का दावा करने वाले मनुष्य ही उसे अकाल मृत्यु के मुख में धकेल देने के लिए आतुर हो रहे हैं। अदूरदर्शी आतुर प्रगति के लिये हम जो नीति अपना रहें हैं, उसने न केवल मनुष्य जाति का वरन् इस सुन्दर भूलोक का भविष्य भी अन्धकारमय हो रहा है। क्या समय रहते हम इस भवितव्यता को टाल नहीं सकते?


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