बीज जैसी जीवन की तीन गतियाँ

February 1985

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बीज की तीन गति हैं− जमीन में गढ़े− गलकर उगे ओर पौधा बने, पौधे के बाद वृक्ष बने। वृक्ष पर फल लगें और उनसे अनेक बीज निकले और वंश परम्परा चलायें इसे बहादुरी कहते हैं।

दूसरी गति यह है कि किसी गृहस्थ के हाथ पड़े, पिसकर आटा बने। आटे की रोटी बने। उसे कोई खाये और अन्त में उसके मल के रूप में परिणति हो। यह विवशता की गति है।

तीसरी गति है−कृपणता की। दाना अपने आपको सब झंझटों से बचाकर कहीं लुका छिपा रहे और कीड़े−मकोड़ों की खुराक बनकर सड़ गल जाय।

मनुष्य जीवन की भी तीन गति हैं। वह जिसमें पुण्य परमार्थ के निमित्त अपने को लगाया जाय। ऐसे काम में अपने पराक्रम पुरुषार्थ को− सत्ता को अस्तित्व को खपाया जाय, जिससे इस समय तो अपनी सत्ता किसी श्रेष्ठ काम में खपा दी जाय पर उस पराक्रम का प्रतिफल ऐसा मिले जिससे लोक मंगल के उपयोगी कार्य बनें। पीछे की एक परम्परा बने। अनेक लोग स्मरण किया करे।

दूसरी गति विवशता में अपने को किसी के हवाले होने दिया जाय। सामर्थ्य और वीरता के अभाव में अपने को बचाया भी नहीं जा सकता। कोई न कोई पकड़ ही लेता है। पकड़ने वाला अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। भावना के अभाव में हर किसी की यही गति होती है। जो कमजोर हैं उन्हें किसी न किसी के चंगुल में फँसना पड़ता है। इसके उपरान्त मल के रूप में उनकी दुर्गति होती है। कोई उनकी चर्चा नहीं करता।

तीसरी गति मनुष्य जीवन की संकुचित स्वार्थियों की है। कायरों और कृपणों की है। वे अपने आपको छिपाते बचाते रहते हैं। छिपते लुकते रहते हैं। किसी के काम नहीं आते। किसी के चंगुल में नहीं फँसते। चाहते हैं कि कोई उनसे किसी के काम में आने की न कहे। कहे तो अपने को छिपा लें। ऐसे लोग सड़ते घुनते हैं। किसी के काम नहीं आते। बचते लुकते रहने पर भी अन्ततः किसी न किसी के कुचक्र में फँसते ही हैं। कीड़े−मकोड़े उन्हें खाने लगते हैं और ऐसी धूलि बन जाते हैं जिसे झाड़−बुहार कर कुड़े−करकट के ढेर में फेंक दिया जाता है।

हर किसी का जीवन इन तीन में से एक गति का भागीदार होता है।

पुण्यात्मा लोग बीज बनकर अपने को गलाते हैं। अंकुर के रूप में फूटते और पौधों के रूप में हरियाली से खेत की शोभा बढ़ाते हैं। कितने ही लोग उनके बढ़ने की आशा लगाये रहते हैं। खाद पानी देते हैं। रखवाली करते हैं और जीव पेड़ के रूप में बड़े बनकर फलते फूलते हैं तो अपनी तथा लगाने वाले की कीर्ति बढ़ाते हैं। जो छाया में बैठते हैं सो प्रसन्न। जो फल खाते हैं सो प्रमुदित। फलों में से बीज निकलते हैं और वह एक बीज जो गला था, उसकी वंशवृद्धि होती चली जाती है। एक के स्थान पर सैंकड़ों बीज उत्पन्न होते हैं और वंश परम्परा को हर साल बढ़ाते रहते हैं। सराहनीय जीवन यही है।

आलसी, अकर्मण्य, भावना रहित लोग भी प्रकृति क्रम के अनुसार किसी न किसी के चंगुल में फंसेंगे ही। कोई न कोई उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करेगा ही और अन्त में मल के रूप में किसी निरर्थक स्थान पर फेंक देंगे। वे दुर्गन्ध बनकर अपने भाग्य को कोसते रहेंगे।

सबसे अभागे वे हैं जो अपनी जान बचाते रहते हैं पर वह भी बचती नहीं। कीड़े मकोड़ों की खुराक बनाकर हर दृष्टि से निरर्थक बन जाते हैं। ऐसा जीवन हर दृष्टि से निन्दनीय और निरर्थक ही है।


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