ध्यान योग का उद्देश्य और स्वरूप

February 1985

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जब साँसारिक वस्तुओं, विषयों या व्यक्तियों में से किसी पर चित्त पड़ा रहता है, उसका आधा-अधूरा कल्पना चित्र मस्तिष्क में घूमने लगता है। इसमें कोई अनोखापन भी नहीं है। ध्यान के नाम पर किसी देवता या चक्र उपत्यिका आदि का कल्पना चित्र गढ़ा जाय और कुछ देर उस पर एकाग्र हुआ जाय तो वैसी ही कुछ अनुभूति भी होने लगती है। इतने भर को प्रगति मानकर कोई प्रसन्नता, सफलता अनुभव करने लगे तो उसे नकारा भी क्यों जाय?

इतने भर से यदि योगाभ्यास हो जाता है और योगी बना जा सकता है तो इससे सरल बात और क्या हो सकती है। योग एक बड़ी बात है। उसमें अतीन्द्रिय क्षमताओं का जागरण और दिव्य सत्ताओं के साथ समीकरण होता है तो उस सरलता का लाभ कोई क्यों न उठाना चाहेगा?

किन्तु वास्तविकता ऐसी है नहीं। ध्यान का मोटा स्वरूप एकाग्रता है। एकाग्रता किसी भी प्रयोजन के लिए क्यों न की जाय, उसका लाभ तत्काल प्रकट होता है। द्रौपदी स्वयंवर में केवल अर्जुन ही मत्स्य बेध की चुनौती में उत्तीर्ण हुये थे क्योंकि उनने एकाग्रता की साधना सिद्ध कर ली थी। सूर्य किरणों को कानवेक्स लेन्स पर एकत्रित कर लिया जाय तो एक दो इंच की धूप से देखते−देखते अग्नि प्रकट हो जाती है। तनिक−सी भाप को एक नली में केन्द्रित कर लिया जाय तो रेल का शक्तिशाली इंजन द्रुतगति से दौड़ने लगता है। बन्दूक की नली में थोड़ी−सी बारूद अवरुद्ध कर लेने पर शीशे की गोली पिघल जाती है और निशाने को आरपार करती है। एकत्रीकरण के ऐसे चमत्कार हम आये दिन देखते हैं।

ध्यान का सामान्य रूप मानसिक क्षमता के बिखराव को रोककर एक केन्द्र पर नियोजित करना है। सरकस के अचम्भे में डालने वाले खेलों में से अधिकाँश एकाग्रता पर अवलम्बित हैं। रस्सी पर चलना, झूले पर कहीं से कहीं कूद जाना जैसे खेलों में मात्र एकाग्रता के ही चमत्कार दृष्टिगोचर होते हैं। महत्वपूर्ण काम करने वाले इसी विद्या को अपनाते हैं। वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार अपनी सफलता इसी आधार पर प्रस्तुत करते रहते हैं। लम्बे चौड़े हिसाबों को सही रखने वाले एकाउण्टैण्ट, एक पाई की भी भूल नहीं पड़ने देते इसमें उनकी यही विशेषता काम करती है। निशानेबाजों की सफलता इसी अभ्यास पर निर्भर रहती है। आर्चीटेक्ट विशालकाय भवनों का राई रत्ती स्वरूप बना देते हैं और उसमें क्या वस्तु किस स्तर की लगेगी इसका लेखा−जोखा ऐसा बना देते हैं जिसमें तनिक भी भूल न रहे। उनकी तन्मयता को ही इसका श्रेय जाता है। योजनाएँ बनाने और इनकी पूर्ति में क्या करना पड़ेगा, इसका सही ढाँचा खड़ा करना चिन्तन की तल्लीनता का प्रतिफल है। जो भी काम पूरी दिलचस्पी और तन्मयता के साथ किये जाते हैं वे सही सुन्दर और सफल होते हैं। यही है ध्यान का चमत्कार।

एक बार सन्त विनोबा से किसी ने पूछा− ‘‘आपको ध्यान योग का पारंगत माना जाता है। कृपया उसका विधान बताइए?” उत्तर में उनने कहा “मैं जो सोचता या करता हूँ, उसमें समग्र तन्मयता केन्द्रीभूत कर देता हूँ। सोचता हूँ उस समय यही कार्य मेरे लिए सर्वोपरि महत्व का है। इस संदर्भ का चिन्तन ही मेरे लिए अभीष्ट है। इसे करने में मुझे इस प्रकार जुटना है कि शक्ति का एक कण भी बिखरने न पाये। यही वह विधान है जिसे मैं अपने हर कृत्य में अपनाता हूं। इस प्रकार जागृत स्थिति में निरन्तर ध्यान योग में तल्लीन रहता हूं। यहाँ तक कि विश्राम के समय भी यही मनःस्थिति रहती है। फलतः थोड़े समय का विश्राम भी पूरी तरह थकान मिटा देता है।

ध्यान योग का यही तरीका है। हम हाथ में लिये हुए प्रत्येक कार्य को सर्वोपरि महत्व का समझें और चिन्तन तथा कर्म से उसी में घुल जायें तो समझना चाहिए कि व्यावहारिक जीवन में हम ध्यान योगी हो गये। फलतः जो भी करेंगे वह सफल और शानदार होगा।

अध्यात्म दर्शन का ध्यानयोग यह है कि निर्धारित समय पर अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्तियों को समेटकर अन्तर्मुखी बनाये। संसार की गतिविधियों के सम्बन्ध में कुछ समय विचार करना छोड़कर हृदय या मस्तिष्क केन्द्र में आत्मा की प्रकाश ज्योति का ध्यान करें। इसमें दृश्य मात्र ही पर्याप्त नहीं है वरन् यह भी अनुभव करना चाहिए कि अपनी सत्ता शरीर से सर्वथा पृथक ईश्वर की अंश ज्योति मात्र है। परमात्मा में जो विशेषताएँ विभूतियाँ हैं, वे सब अपने भीतर भी विद्यमान हैं। करना इतना भर है कि धुंधलेपन को दूर किया जाय। कषाय−कल्मषों की जो हल्की-सी परत जम गई है उसे रगड़ कर साफ किया जाय। रगड़ से तात्पर्य तपश्चर्या से है। तप का अर्थ है संयमी और कष्ट सहिष्णु जीवन। इस प्रक्रिया को अपनाते ही आत्म ज्योति का धुँधलापन दूर होने लगता है और क्रमशः आत्मबोध की वह स्थिति उभरने लगती है जो बोधि वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध के अन्तराल में प्रकट हुई थी।

देवी देवताओं का ध्यान करना उतना उपयोगी नहीं है। यदि उसके लिए बहुत मन हो तो इतनी ही मान्यता बनानी चाहिए कि परब्रह्म का यह अपनी अभिरुचि के अनुरूप गढ़ा हुआ साकार स्वरूप है। निराकार भगवान का प्रकाश रूप में और साकार भगवान का देवी देवताओं की आकृति में ध्यान किया जाता है। यह मान्यता भ्रम पूर्ण है कि देवी देवताओं की स्वतन्त्र सत्ता है और जो उनमें से जिसकी आराधना करता है वे उसके साथ पक्षपात करते हैं, मनोकामना पूरी करते हैं। इस आधार पर किये ध्यान बाल बुद्धि के परिचायक हैं।

शरीराभ्यास के वशीभूत होना ही माया ग्रस्तता है। मृत्यु को भूल जाना ही अज्ञान है। शरीर में प्रति मनुष्य के सीमित कर्त्तव्य हैं। मनुष्य जन्म की सार्थकता इसी में है कि आत्म-सत्ता को ईश्वर का अविनाशी अंश माने और पूर्णता प्राप्ति के लिए जिन कर्त्तव्यों और दायित्वों का निर्वाह आवश्यक है, उसमें प्रमाद न बरतें।

ध्यानयोग में आत्म सत्ता के स्वरूप, कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व पर चित्त को केन्द्रीभूत करना है। यह सुयोग्य भगवान का सबसे बड़ा अनुग्रह है। इसका सही उपयोग इतना ही है कि अपनी अपूर्णताओं से निपटते हुए पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचें। इसी मानवी काया में देवत्व को उभरने दें। दूसरा उद्देश्य है भगवान के इस विश्व उद्यान को अधिकाधिक सुरम्य और समुन्नत बनाने के लिए वर्तमान परिस्थितियों में जो संभव है उसे कार्यान्वित करने में चूक न करें।

हठयोग की प्रक्रिया में षट्चक्र, पंचकोश, कुण्डलिनी, तीन नाड़ियों आदि का ध्यान किया जाता है और इन शक्ति संस्थानों के अंतर्गत जो अतीन्द्रिय क्षमताएँ विद्यमान हैं उसे जागृत करने एवं सशक्त बनाने का प्रयत्न किया जाता है। किन्तु अन्ततः इन उपलब्धियों का प्रयोजन संसार क्षेत्र में अपनी विभूति विशेषता प्रकट करना है। इन सिद्धि साधनाओं में आत्मश्लाघा प्रदर्शित करने के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं सधता। अस्तु प्रज्ञावान साधक खेल-खिड़वाड़ों में अपना समय नष्ट नहीं करते एकाग्रता सम्पादन का उद्देश्य पहले पूरा करते हैं।

चित्त वृत्तियाँ साँसारिक ऐषणाओं में भ्रमण करती रहती हैं। उन्हें वासना, तृष्णा और अहन्ता के रसास्वादन की ललक सताती रहती है। मृग तृष्णा की भाँति उन्हें इसी व्यामोह में भटकते जीवन बीत जाता है। अस्तु योगाभ्यास में इन चित्तवृत्तियों के निरोध की आवश्यकता पूरी की जाती है। संसार की ललक लिप्साओं से मन समेटकर आत्म ज्योति में चेतना को केन्द्रीभूत किया जाता है। यह प्रक्रिया सम्पन्न की जा रही है और उसमें सफलता भी मिल रही है, ऐसा ध्यान जब भी अवसर अवकाश मिले, तभी करना चाहिए।

तरह−तरह के दृश्यों की कल्पना करना और उनका मूर्तिमान देखने के लिए प्रयत्न करना, बाल−बुद्धि का यही प्रयास चलते देखा गया है। योग के नाम पर इसी कौतुक कौतूहल में लोग मन बहलाते रहते है। प्रज्ञावानों को अपने स्तर के अनुरूप उच्चस्तरीय ध्यान धारणा का अवलम्बन करना चाहिए। ध्यानयोग की सफलता इसी आधार पर सम्भव हो जाती है।

तरह−तरह के दृश्यों की कल्पना करना और उनका मूर्तिमान देखने के लिए प्रयत्न करना, बाल−बुद्धि का यही प्रयास चलते देखा गया है। योग के नाम पर इसी कौतुक कौतूहल में लोग मन बहलाते रहते हैं। प्रज्ञावानों को अपने स्तर के अनुरूप उच्चस्तरीय ध्यान धारणा का अवलम्बन करना चाहिए। ध्यानयोग की सफलता इसी आधार पर सम्भव हो जाती है।


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