समरसता एवं सहानुभूति पर आधारित ज्योतिर्विज्ञान

February 1985

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एक मनोरंजक आख्यान है। एक बार एक सज्जन पानी के जहाज में सफर करते हुए जुंग उठने पर एक दिन तेजी से डेक पर चहलकदमी करने लगे। शेष ने सोचा सम्भवतः टहलने का व्यायाम कर रहे हैं। किन्तु जब बहुत देर तक यही क्रम जारी रहा तो एक से रहा न गया। पूछा बैठा−भाई साहब! क्या बात है? तो जवाब मिला− ‘‘मुझे जरा जल्दी है। आप लोगों से जल्दी घर पहुँचना है। काफी जरूरी काम है घर पर! ऐसे ही बैठा रहा तो पहुँच गया समय पर।” सब उनकी नादानी पर हँस पड़े। पर क्या यह सच नहीं है कि इस सतत् चलायमान पृथ्वी पर, जो विराट् ब्रह्माण्ड में अपने सूर्य की निरन्तर परिक्रमा कर रही है, ऐसे नादानों की संख्या अच्छी खासी है। वे विराट् चेतन सत्ता के व्यष्टि घटक होते हुए भी स्वयं को उस महासत्ता से असम्बद्ध मानते हैं। विराट् की लयबद्धता में एक ही बने रहना है, यही ज्योतिर्विज्ञान का मूलभूत दर्शन है ज्योतिर्विज्ञान वह ज्योतिष नहीं है जिसे कुण्डली देखकर या हाथ देखकर ग्रहों की दशा का डर दिखाकर शान्ति कराने हेतु अनेकानेक चित्र−विचित्र उपचार कराने वाले एक पुरातन पन्थी एवं ठगे जाने वाले मूर्खों के रूप में देखा जा सकता है। वस्तुतः यह अध्यात्म का आद्याक्षर है, आत्मिकी की कुँजी है।

आज ज्योतिर्विज्ञान का जो प्रचलित रूप है वह उस पुरातन विधा का खण्डहर भर है। कितने ही परिवर्तन हुए हैं, इस ब्रह्माण्डीय विज्ञान के बाह्य कलेवर में। वेदों से सविता को सृष्टि का अधिष्ठाता केन्द्र बताते हुए उसकी उपासना का प्रतिपादन किया गया है। यह मान्यता अंतर्दृष्टि सम्पन्न ऋषियों की थी कि यह सूर्य स्थिर है, शेष ग्रह इसकी परिक्रमा करते हैं एवं ऐसे एक नहीं, अनेकों सूर्य हैं जो एक महासूर्य के चारों ओर धूम रहे हैं। ऐसे एक नहीं, अनेकों ब्रह्माण्ड हैं जिन सबका अधिपति एक है−सृष्टि संचालन की सुव्यवस्था करने वाला परब्रह्म। सत्य की शोध मानव मूल वृत्ति है। बहुत बार सत्य मिलता है, बहुत बार खो जाता है। ईसा के जन्म से भी तीन सो वर्ष पूर्व एरिस्टोकारिस नामक एक यूनानी ने वैदिक प्रतिपादन को सत्य बताते हुए कहा कि सूर्य केन्द्र है, पृथ्वी केन्द्र नहीं है। लेकिन ईसा के सौ वर्ष बाद (100 ए डी) ही टोलियों ने इस सूत्र के विलोम प्रतिपादन दिया कि पृथ्वी केन्द्र है, सूर्य उसका चक्कर लगा रहा है। 16-17 शताब्दी लगी। कोपर्निकस एवं कैपलर को यह खोज कर सत्यापित करने एवं लोगों के गले यह तथ्य उतारने में कि पृथ्वी नहीं, सूर्य केन्द्र है एवं पृथ्वी अपनी धुरी पर भी घूमती है व सूर्य के भी चारों ओर चक्कर लगाती है। अन्तर्ग्रही प्रभावों से सभी जीवधारी प्रभावित होते हैं, आर्यभट्ट की इस मान्यता को दुराग्रही समाज की मोहर लगी बीसवीं सदी में। यह वस्तुतः सत्यान्वेषण की दिशा में चली एक यात्रा है जिसमें व्यष्टि चेतना का समुच्चय, एक छोटा−सा घटक, यह मनुष्य उस विराट् से प्राण चेतना पाते हुए भी उस विराट् को खोजता अभिभूत होता रहता है।

अब यह बात अच्छी तरह समझ लें कि मनुष्य पृथ्वी पर बसने वाला विराट् सत्ता का एक घटक है एवं पृथ्वी उस विराट् के प्रतीक सूर्य के मण्डल का ही एक अंग है। तीनों में एक ही रक्त प्रवाहित हो रहा है। बच्चा गर्भावस्था में व जन्म के तुरन्त बाद तक रज्जुनाल से माँ से जुड़ा रक्त पाता रहता है। इस रक्त प्रवाह से ही जो माँ के हृदय की गंगोत्री से प्रवाहित होता है, शिशु के सारे क्रियाकलाप चलते हैं। सारे जीवकोशों का निर्माण, एक ही निषेचित डिम्बाणु से अरबों सेल्स का बनना इसी प्रक्रिया के सहारे बन पड़ता है। इसे वैज्ञानिक अपनी भाषा में समानुभूति (एम्पैथी) कहते हैं। मनुष्य−पृथ्वी−सूर्य−महासूर्य एवं परब्रह्म ये सभी इसी सहानुभूति की एक कड़ी हैं। जी भी सूर्य पर घटित होगा, वह मनुष्य एवं अन्यान्य जीवधारियों के रोम−रोम में स्पन्दित होगा। मानवी रक्त में तैर रही रक्त कोशिकाएँ एवं न्यूक्लिक एसिड जैसा जीन्स बनाने वाला लघुतम घटक सूर्य के अणुओं से समानुभूति−ऐक्य रखता है एवं अच्छे−बुरे सभी प्रभावों में बराबर हिस्सा लेता है। सूर्य के हमसे करोड़ों मील दूर अवस्थित होने पर भी इस प्रभाव में कोई अन्तर आने वाला नहीं।

इस अंतर्ग्रही प्रभाव को, सौर गतिविधियों के मानवी काया पर पड़ने वाले प्रभाव को जुड़वा बच्चों के उदाहरण से भली प्रकार समझा जा सकता है। एक ही अण्डे से पैदा हुए दो बच्चे जो गर्भाशय में साथ−साथ विकसित होते हैं, (मोनोव्युलरट्वीन्स) की जन्मोपरांत कहीं कितनी भी दूर क्यों न रखा जाय, उनके व्यवहार−चिन्तन−आदतों सभी में समानता पाई जाती है। यह एक अणु से एक पर्यावरण में विकसित होने की परिणति है। मानव, पृथ्वी, सूर्य भी इसी तरह से एक ही अणु से विनिर्मित होने के कारण सहानुभूति के आधार पर परस्पर प्रभावित होते हैं। यही ज्योतिर्विज्ञान का केन्द्र बिन्दु है। हर क्षण, हर पल, पृथ्वी के कण−कण का सूर्य के महाकणों से एक सम्बन्ध सूत्र जुड़ा हुआ है। इसी प्रकार मानवी जीवकोशों का भी उस विराट् से, विभु से, सम्बन्ध ऐसे जुड़ा है जैसे दो बिजली के तार जुड़े होते हैं, जिनमें सतत् विद्युत प्रवाहित होती रहती है।

इस सहानुभूति को अब विज्ञान ने एक नयी परिभाषा दी है− ‘‘क्लीनिकल इकॉलाजी” अर्थात् पर्यावरण से प्रभावित जीव विज्ञान। इसी में सूर्य पर घटने वाली सभी घटनाओं−धब्बों, सूर्य की लपटों और कलंकों, भू−चुम्बकीय तूफानों, मौसम में अप्रत्याशित परिवर्तनों के जीवधारियों पर प्रभाव के शुमार किया जाता है। यह चेतन जगत की एक लयबद्धता का, परोक्ष के प्रभाव का प्रत्यक्ष प्रमाण है। हर ग्यारहवें वर्ष सूर्य कलंकों के आने व अति सम्वेदनशील वृक्षों में रिंग्स बनने का जो परस्पर सम्बन्ध है, वह वैज्ञानिकों को आश्चर्यचकित कर देता है। वृक्ष में कितने रिंग बने, यह देखकर उसकी आयु का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। यदि मौसम अधिक गर्म होता है तो ये रिंग चौड़े बनते हैं व जब मौसम ठण्डा व शुष्क होता है तो ये रिंग सकरे होते हैं। मौसम के इतने से व्यतिरेक से भी इतनी दूर अवस्थित पृथ्वी के वनस्पति समुदाय पर बिल्कुल “टू द पाइण्ट” प्रभाव पड़ सकता है, यह इसका प्रमाण है।

जब वृक्ष वनस्पति इतने सम्वेदनशील हैं कि करोड़ों मील दूर अवस्थित सूर्य पर होने वाले परिवर्तनों को अपने ऊपर अंकित होने देते हैं तब मानवी काया के सूक्ष्मतम जीवकोशों एवं अति सूक्ष्म स्नायुकोशों का तो इन प्रभावों के प्रति और भी अधिक गहरी सहानुभूति होनी चाहिए। वैज्ञानिक बताते भी हैं कि सौर मण्डल स्थित पल्सार्ज एवं ब्लैक होल्स से निकलने वाले न्यूट्रीनो कण जो प्रकाश की गति से भी तेज चलकर धरती को पार कर जाते हैं, मानवी मस्तिष्क के ‘माइन्जेन’ अणुओं से बहुत अधिक मेल खाते हैं। इसी प्रकार अति सूक्ष्म न्यूकलीय अम्लों पर भी उनका प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार सौर मण्डल के परिवार के किसी भी सदस्य के धरती स्थित जीवधारियों पर पड़ने वाले प्रभाव को झुठलाया नहीं जा सकता। मालूम नहीं वृक्ष की तरह मानवी मस्तिष्क में भी हर ग्यारहवें वर्ष वर्त्तुल (रिंग्स) पड़ते हैं या नहीं। किन्तु यह सत्य है कि इस अवधि में मानसिक आवेग, उत्तेजना, उन्माद, बेचैनी बहुत तेज हो जाती हैं। आत्म−हत्या, परस्पर आक्रामक व्यवहार एवं दुर्घटनाओं में सहसा वृद्धि हो जाती है। रेडियो धर्मिता के परिवर्तन जो इतने विराट् अन्तरिक्ष में घटते हैं कैसे समष्टिगत मानसिकता को प्रभावित करते हैं, इसका अध्ययन ज्योतिर्विज्ञान विधा के अंतर्गत आता है।

जैसे यह ग्यारह वर्ष का सौर चक्र चलता है, ऐसे ही बड़े धूमकेतुओं का हर छिहत्तर वर्ष में उदित होने का क्रम चलता रहता है। अपनी करोड़ों मील लम्बी पूँछ में विषाक्त गैसें समेटे यह उपग्रह ज्यों ही पृथ्वी के घोड़ा समीप आता है, अपने दुष्प्रभाव छोड़ने लगता है। पहले 1835, फिर 1910 में, अब 1986 में जो विशाल धूमकेतु दृष्टिगोचर होने जा रहा है जिसका नाम इसकी खोज करने वाले सर एडमण्ड हैली के नाम पर हैली कामेट रखा गया है, अपने आने से पूर्व संकेत 2 वर्ष पूर्व से ही देना आरम्भ कर चुका है। जब−जब भी ये विषाक्त धूम पृथ्वी के समीपस्थ वातावरण में आते हैं, गृह−युद्ध, विश्व−युद्ध, संक्रामक रोगों का बाहुल्य बढ़ जाता है। यह भी अंतर्ग्रही प्रभावों का एक अंग है।

एक ऐसा ही कास्मो बायोलॉजीकल साइकल इजिप्ट में देखा जाता है। इजिप्ट के सम्राट हमेशा से ही सूर्य देवता के आराधक रहे हैं। वे सूर्य एवं मिश्र देश के मध्य से बहने वाली नील नदी में परस्पर गहन सम्बन्ध मानते थे। सम्राट फराहो ने अपने पुरोहितों के निर्देश पर अपने वैज्ञानिक समुदाय को कहा कि नील नदी में कब जल घटता है, कब बढ़ता है, इसका वर्णन सतत् लिखा जाता रहे। ईसा के पन्द्रह सौ वर्ष से पूर्व से अब तक की लगभग साढ़े तीन हजार वर्षों की जीवन गाथा इस नदी की थोड़ा भी बढ़ने या घटने, बाढ़ आने, पानी कम होने की लिखी रखी है। अब उसका अध्ययन करने पर ज्ञात हुआ है कि जो भी महत्वपूर्ण परिवर्तन नील नदी में हुए हैं, वे नब्बे वर्ष के अन्तराल पर घटित हुए हैं। इजिप्शियन विद्वान तस्मान ने यह तथ्य पता लगाया है एवं आधुनिक वैज्ञानिकों के इस निष्कर्ष से उसे सम्बद्ध बताया है कि सूर्य नब्बे वर्ष में अपनी आयु के उतार−चढ़ाव का एक अन्तराल पूरा करता है। 45 वर्ष वह जवान होता है एवं 45 वर्ष उसकी आयु के ढलने के होते हैं। पूर्वार्द्ध क्लाइमेक्स है तो उत्तरार्द्ध एण्टी क्लाइमेक्स जब नब्बे वर्ष पूरे होते हैं तो भू चुम्बकीय तूफान तेजी से आते हैं, भूकम्पों की बाढ़ आ जाती है एवं सुप्त पड़े ज्वालामुखी भी फूट पड़ते हैं। यही कारण था कि नील नदी के परिवर्तनों की एक बायोग्राफी मिस्र के पुरोहितों ने बनवाई। जब भूगर्भ तक सौर लपटों का प्रभाव पड़ता है तब मानवी काया के अरबों जीवकोश इस प्रभाव से कैसे अछूते रह सकते हैं। निश्चित ही उनके अन्दर भी उलट−पुलट भरे परिवर्तन होते हैं जो सीधे स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

ज्योतिर्विज्ञान की जानकारी वाला पक्ष यहीं तक सही है। जब यह कहा जाता है कि अमुक ग्रह अमुक नुकसान पहुँचाते हैं एवं उनकी शान्ति के लिये अमुक प्रकार से तन्त्र विधानादि कर दान−दक्षिणा देना चाहिए तो फिर यह कोरा अन्ध−विश्वास रह जाता है, जो धूर्तों को लाभ पहुँचाता है, बुद्धिजीवियों को नास्तिक बनाता है। एस्ट्रालॉजी व एस्ट्रानॉमी में फर्क समझा जाना चाहिए एवं ज्योतिर्विज्ञान के उन ज्ञात−अविज्ञात पक्षों से लाभान्वित होने का प्रयास किया जाना चाहिए जो अब तक विज्ञान की पोथी में बन्द हो चुके हैं। चिर पुरातन ऋषि प्रणीत शोधों को इस वैज्ञानिक जानकारी से भली−भाँति समन्वित किया जा सके तो इस अमृत से निश्चित ही मनुष्य जाति को लाभ ही मिलेगा। विराट् के एक ही घटक होने की मान्यता विकसित हो सके तो सहानुभूति की भावना और भी व्यापक रूप में स्वीकारी जाने लगेगी, परस्पर सहकार और बढ़ेगा।


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