प्रकृति का अनुसरण कीड़े मकोड़ों जैसा आचरण नहीं

February 1985

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आधुनिक दर्शन के पक्ष में दो दलीलें असंख्य मुखों से सुनी जाती हैं कि बड़ी मछली छोटी को निगल जाती है। बड़ा पेट छोटे की खुराक खींचकर खा जाता है। प्रकृति का यही नियम है। इसी को पालन करने में भलाई है। अन्यथा दुर्बल और कमजोर इस जमीन को घेर लेंगे और असंख्यों समस्याएँ उत्पन्न करेंगे। “जीवन के लिए संघर्ष” और “योग्यतम का चुनाव”, यही हैं दो बीज मन्त्र जिनकी व्याख्या विवेचना करते हुए आधुनिक संस्कृति की रूपरेखा खड़ी की गई है।

प्रकृति का अर्थ पशु पक्षी कीड़े−मकोड़े तक ही सीमित हो तब बात दूसरी है। अन्यथा प्रकृति के नियमों का अनुसरण करते समय मनुष्य की विशेषताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। इन विशेषताओं को अध्यात्म विज्ञान के अनुरूप “आत्मा” कहा जा सकता है और उसकी मौलिक संरचना तथा प्रेरणा को भी कहीं जगह देनी होगी। किन्तु यदि प्रकृति का अर्थ वहाँ तक ले जाना हो, जहाँ मनुष्य को चलने−फिरने वाला पौधा अथवा दो पैर वाला जानवर मानना हो तो ऋतु प्रकृति पर उन्हीं नियमों को लागू करना होगा जो बन्दर की औलाद पर लागू होते हैं।

यदि आधुनिक दर्शन ‘आत्मा’ से इन्कार करके प्रकृति के प्राणियों पर लागू होने वाले नियमों को ही सब कुछ मानने लगे तो भी प्रकृति का सुविस्तृत पर्यवेक्षण करना होगा। उसके नियमों में से अपने मतलब के जो हों उन्हीं को सब कुछ मान बैठने से अन्यान्यों को छोड़ देने से दर्शन शास्त्र की मर्यादा न निभ सकेगी। प्रकृति में अरबों−खरबों प्राणी रहते हैं। उनकी गतिविधियाँ बहुमुखी हैं। उनमें से बड़ी मछली द्वारा छोटी को खाया जाना और बड़े पेट द्वारा छोटे की खुराक अपहरण कर लिया जाना यह दो उदाहरण ही पर्याप्त न होंगे। यह उदाहरण भी सर्वांगपूर्ण नहीं हैं। यह भी आधे−अधूरे हैं। इन दो को समग्र कहना हो तो यों कहना पड़ेगा कि जीव−जन्तु अपने सजातीय बच्चों को ही खा जाते हैं। यदि ऐसा हुआ होता तो अभिभावकों द्वारा बच्चों के पालन पोषण की परम्परा ही समाप्त हो गई होती। मछलियों के कोई बच्चे दिखाई न पड़ते। उनकी माताएँ ही उन्हें खा-पीकर साफ कर दिया करती यदि सारी प्रकृति मछली तक ही सीमित नहीं है, अन्य प्राणी भी उसमें शामिल हैं, तो मादाओं द्वारा अपने बच्चों का पालन−पोषण किस आधार पर चल रहा है? सिंह जैसे खूंखार जानवर तक अपने बच्चों को पालते हैं। यद्यपि वे उनकी तुलना में कमजोर भी होते हैं, माँस आदि में हिस्सा भी बँटाते हैं।

प्रकृति का एक छोटा नियम ऐसा अवश्य है जिसमें हिंस्र पशु क्षुधा निवृत्ति के लिए छोटे प्राणियों को खा जाते हैं। पर वे भी अपने सजातियों को नहीं खाते। मछली अपवाद है, सो भी आँशिक रूप से अन्यथा मछलियाँ ही अपने अण्डे बच्चों का सफाया कर दिया करतीं। पेड़ों के बगीचे कहीं दिखाई न पड़ते। कोई पेड़ एकाकी भले ही खड़ा होता। पास उगने वाले पेड़ों को जब बड़े खा ही जाया करते हों तो बगीचे कैसे बनते? झाड़ियाँ कैसे सघन होतीं?

प्रकृति का नियम सहयोग भी है। दया और सेवा भी। दुर्बलों को सबल बनाने के लिए सहायता करना भी। अन्यथा किसी मादा के थनों से दूध कहाँ से आता और क्यों आता? मादाएँ अपने बच्चों को साथ क्यों लगाए फिरतीं?

डार्विन प्रभृति प्रत्यक्षवादियों ने मनुष्य की सत्ता और उसकी प्रकृति का स्वरूप निर्धारित करने में जीव जगत की परम्पराओं को आधार माना है। प्राणी किस प्रकार बने, बढ़े और सशक्त हुए, इसका इतिहास खोजते−खोजते वे उसी परम्परा को अपनाना मनुष्य के हित में मान बैठे हैं। इसी आधार पर उनने भावी मनुष्य समाज का ढाँचा खड़ा किया है। इसी को वे समय के अनुरूप सही दर्शन मानते हैं। इस संदर्भ में नीत्से आदि विचारकों का कथन है कि मनुष्यों का कमजोर वर्ग बना रहने पर सशक्त वर्ग की क्षमता क्षीण होगी। इसलिए उन्हें पालने की अपेक्षा समाप्त कर देने में ही लाभ है। पशुओं के बूढ़े और बेकार होने पर, वे उनका वध कर देने की प्रथा का समर्थन करते हैं। गौशाला, अनाथालय, अपंग सेवा सदन, भिक्षुक गृह, रुग्ण आश्रम जैसे संस्थान चलाने का परिणाम वे यह बताते हैं कि इससे समर्थ लोगों के फलने फूलने में बाधा पड़ेगी। फलतः दुनिया वैसी सुन्दर और सशक्त न बन सकेगी जैसी फलतः दुनिया वैसी सुन्दर और सशक्त न बन सकेगी जैसी कि वह बनती। नाज़ीवाद में अनेक तर्कों का आश्रय लेकर उन्होंने युद्ध की आवश्यकता पर जोर दिया है और उसे उपयोगी ठहराया है। साथ ही उनने जर्मन जाति की श्रेष्ठता का पक्ष लिया है और कहा कि विश्व शासन उन्हीं के हाथ में रहना चाहिए। अन्य कमजोर जातियों को युद्ध के बहने समाप्त कर देना चाहिए। यह दर्शन जर्मन जाति को उन्मत्त स्थिति तक पहुँचाकर उन्हें युद्ध के लिए आकुल करता रहा है। वे अपने समुदाय को विकसित करने के लिए समीपवर्ती क्षेत्रों को खाली रखने और वहाँ की साधन सामग्री अपने लोगों तक सीमित सुरक्षित रखने पर जोर देते रहे हैं।

यह एकाँगी चिन्तन न केवल अधूरा वरन् अनुपयुक्त भी सिद्ध होता जा रहा है। इसमें दोनों पक्ष के लोगों की ही अधिक हानि हुई है। वे ही मरते या घायल होते रहे हैं। उनके आश्रितों की संख्या बढ़ने से फिर दुर्बल वर्ग बढ़ गया जिसे कि वे समाप्त करना चाहते थे। इससे तो तैमूरलंग आदि को कत्लेआम पद्धति अधिक तर्क संगत थी, जिसमें मजबूत आदमी गुलामों के रूप में पकड़कर आश्रित बना लिए जाते थे और कमजोरों को काटते मारते चले जाते थे। आधुनिक दर्शन शास्त्र ने अब तक तो प्रतिपादन एवं तर्क और उदाहरण दिये हैं वे हर दृष्टि से हलके पड़ते हैं।

अब तक जीवन के लिए संघर्ष का तात्पर्य यह निकाला जाता रहा है कि पड़ौसी के मुँह का ग्रास छीन लिया जाय। जबकि यह होना चाहिए कि प्रकृति के साथ लड़−झगड़ कर उसके अंचल में भरी हुई विपुल सम्पदा में से अधिक उपलब्ध किया जा। अमेरिका अब से दो सो वर्ष पूर्व सूना पड़ा था। वहाँ जो लोग योरोप से जा−जाकर बसे, उनने जीवन के लिए संघर्ष किया और प्रकृति के अन्तराल में भरी हुई विपुल सम्पदा का दोहन किया। और देखते−देखते सुसम्पन्न हो गये।

प्रकृति में समर्थ व्यक्ति नेतृत्व के लिए चुने जाते हैं। वे अपने साथ अनेकों को लेकर चलते हैं। जो कार्य वे अपने बुद्धि बल और बाहुबल से नहीं कर सकते थे उसे करते हुए वातावरण को समुन्नत बनाकर करते हैं। यह सर्वोत्तम के चयन का सिद्धान्त है। टाटा ने साधन रहित होते हुए भी अपने बुद्धि कौशल से लोहे का विशाल कारखाना खड़ा कर दिया। उसमें लाखों श्रमिकों को आजीविका मिली और साथ ही देश की महती आवश्यकताओं की पूर्ति हुई। हर मनुष्य यदि बुद्धिपूर्वक काम कर सके तो अपने निर्वाह के अतिरिक्त समाज के लिए कुछ न कुछ प्रगति में सहायता कर सकता है। इस वैयक्तिक क्षमता को किस प्रकार सही तरीके से काम में लाया जाय यही निर्धारण कर सकने वाले के सम्बन्ध में नेतृत्व की क्षमता सम्पन्न होने से उन्हें सराहा जाता है। इसके अर्थ यह कभी नहीं हैं कि पड़ौसियों को मार−काट कर खतम किया जाय और सर्वत्र अपने ही अपने को अधिपति घोषित किया जाय।

प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करके उसके आदर्शों पर चलने के लिए बड़ी मछली द्वारा छोटी को खा जाने का एक ही उदाहरण नहीं है। प्रकृति की ओर वापस लौटने का तात्पर्य रहन−सहन में सादगी का समावेश करना है। न कि संचित सभ्यता तो तिलाञ्जलि दे बैठना। पशु और कीड़े ही हमारे शिक्षक हैं तो शिक्षा के झंझट का परित्याग करना होगा। भाई बहिन के रिश्तों को तिलाञ्जलि देनी होगी। आग का उपयोग बन्द करना होगा। सौंदर्य और कला का परित्याग करना होगा, क्योंकि मनुष्य के अतिरिक्त और कोई भी प्राणी इन विशेषताओं का अभ्यस्त नहीं है। मनुष्य की अपनी विशेष संरचना है। उससे अन्य प्राणियों का हित साधन होना चाहिए न कि नीति और व्यवस्था के सम्बन्ध में मनुष्य निम्न कोटि के जीव जन्तुओं से वह सीखे जिससे उसकी गरिमा का सर्वनाश होता है।


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