भीतर की दुनिया हर हालत में सही रहे

February 1985

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हम दो दुनिया के बीच रहते हैं। एक हमारे भीतर की, जो बाहर की दुनिया को प्रभावित करती है, एक हमारे बाहर की जो भीतर को प्रभावित करती है। देखना यह है कि हमने किसे कितना महत्व दिया है, और किस सीमा तक किसे अपनाया है।

भीतर की दुनिया विचारों और भावनाओं की है। बाहर की दुनिया परिस्थिति और साधनों की। भावनाएँ यदि उच्चस्तरीय हैं, तो वह मजबूती बड़े काम की होती है। वह प्रामाणिकता और नैतिकता हर हालत में बनाये रहती है। परिस्थितियाँ विपरीत और साधनों की कमी रहने पर भी व्यक्ति सीधा खड़ा रहता है। बाहर के दबाव पड़ने पर भी झुकता नहीं। गरीबी और विपत्ति में भी दिन हँसते हुए गुजार लेता है। भीतर प्रसन्नता है, तो बाहर भी मस्ती बनी रहती है। इसके विपरीत जो बाहर की दुनिया में रहते हैं, उनके लिए परिस्थितियाँ ही सब कुछ रहती हैं, वे पैसा कम पड़ते ही रोने−बिलखने लगते हैं और संघर्ष−झंझट सामने आने पर तिलमिला जाते हैं, अनीति पर उतर आते हैं, शान्ति खो बैठते हैं और जिस उपाय से सम्पन्नता−सफलता हाथ लगे, उसे करने लगते हैं, भले ही उसमें नीति हाथ से गँवानी पड़े।

भीतर की दुनिया विचारों की हैं, आदर्शों और भावनाओं की। उसका स्तर यदि ऊँचा है, तो व्यक्ति हर हालत में प्रसन्न बना रहेगा। सिद्धान्तों का परिपालन उसे इतना साहस दे सकेगा, जिसके सहारे परिस्थितियों की विपरीतता भी कुछ बिगाड़ न सकें, विचलित न कर सके। गिराने के लिए यदि लोगों ने दबाव डाले और जाल बिछाये हैं, तो इस सीमा तक हैरान न कर सकेंगे कि आदर्शों को छोड़े और अनुकूलता खरीदने के लिए अनीति अपनाने पर उतारू हो। परिस्थितियाँ यदि मनः स्थिति को दबा डाले, तो समझना चाहिए कि मनुष्य बाहर की दुनिया में रहता है और भीतर की दृष्टि से खोखला है। जिसने सिद्धान्त−आदर्शों, विचार−भावनाओं का महत्व समझा है, वह सफलता उसी सीमा तक स्वीकार करेगा, जो अनुचित कदम उठाने और अनीति अपनाने के लिए बाधित न कर सके। उसे सम्पन्नता की चाह तो रहेगी, इसी सीमा तक जिसमें आदर्शों से विचलित न होना पड़े।

जिनने दोनों संसदों का सन्तुलन बिठा लिया है, वह योजना ऊँची बनाते समय यह ध्यान रखता है कि महत्वाकाँक्षा इतनी बड़ी न हो, जिसके लिए अनुचित कदम उठाने पड़ें। महत्वाकाँक्षा पूरी करने के लिए पराक्रम करना तो उचित है, पर वह पराक्रम ऐसा नहीं जो मर्यादा का उल्लंघन करने लगे। इसी प्रकार सन्तुलन मन वाला अपनी अपनी कार्य−पद्धति को इस स्तर की बनाता है, जिसमें प्रगति की गुंजाइश रहे। उन्नति की राह पर चलने में रुकावट न पड़े। साथ ही कुछ ऐसा न करना पड़े, जिसमें अपने को अप्रामाणिक ठहराया जाय।

बुद्धिमत्ता इसमें है जिसमें भीतरी और बाहरी दुनिया के साथ तालमेल बैठ सके। स्वजन सम्बन्धी प्रसन्न रहें। कारोबार में प्रगतिशीलता बनी रहे। साथ ही कार्य−कौशल ही हाथ से जाने न पाये।

जिसके लिए बाहर की दुनिया ही सब कुछ है, वह अन्तरात्मा की पुकार को प्राथमिकता न दे सकेगा। उसे बाहर वालों का ध्यान रहेगा। लोग जिस कदम में बड़प्पन प्रदान करें भले ही आदर्शों के हिसाब से हलका या गलत सिद्ध होना पड़े, बाहर की दुनिया में प्रचलन यही है कि सफलता और सम्पन्नता खरीदने के लिए जो भी करना पड़े, किया जाय। आदर्शों का ध्यान न रखने वाले को सीमित लाभ में सन्तोष करना पड़ेगा। लोग मूर्ख कहें और व्यवहार कुशलता से अनजान ठहरावें, तो उसके लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। जिसने भीतर की दुनिया को सही रखा है, उसकी बाहर की दुनिया भी ऐसी रहेगी, जिसे गलत न कहा जा सके।


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